सूर्यदक्षिणा/नंदनी
कस्यप ऋषि के पोते श्राद्धदेव नन्दन वन में अपनें आश्रम में भगवान की पूजा अर्चना ध्यान व तपस्या किया करते थे। एक दिन सुर्य देव उनके पास आए और उनसे प्रार्थना की, कि वे उनके लिए एक महायज्ञ करें। महायज्ञ की समाप्ति पस्चात सूर्य देव नें उन्हें दक्षिणा स्वरूप एक कन्या दी और कहा आप इसे अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार करें। भविश्य में यह आपका नाम बढ़ाएगी और इस पर आप गर्व करेंगें। इस कन्या को अपनी पुत्री रूप में स्वीकार कर श्राद्धदेव अपनें आश्रम नन्दन वन में आए तब वहां रहनें वाले अन्य ऋषि मुनियों नें पूंछा यह कन्या कौन है तो श्राद्धदेव नें कहा यह सूर्य दक्षिणा है। नन्दन वन में उस कन्या के आ जानें से वहां खुशी की एक लहर सी दौड़ गई और लोग उसे प्यार से नन्दनी कहनें लगे। इस प्रकार उस कन्या के दो नाम प्रचलन में आ गए, कोई उसे प्यार से सुदक्षिणा (सूर्यदक्षिणा) कहता तो कोई नन्दनी। श्राद्धदेव ब्राम्हण थे, इसलिए उनकी यह कन्या, ब्राम्हण कन्या कहलाई। धीरे धीरे जब यह कन्या बड़ी होनें लगी तो श्राद्धदेव को उसकी शादी की चिन्ता सतानें लगी, तब श्राद्धदेव अपनी चिन्ता लेकर ब्रम्हाजी के समीप पहुंचे और नन्दनी के लिए उचित वर की चाहत प्रकट की, तब ब्रम्हाजी नें नन्दनी के विवाह हेतु चित्रगुप्तजी को चुना और नन्दनी का विवाह चित्रगुप्तजी से करवा दिया। इससे इनके चार पुत्र उत्पन्न हुए जो भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यभानु कहलाए।