सूरज पालीवाल
Prof. Suraj Paliwal | |
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जन्म | 8 नवम्बर 1951 मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
शिक्षा | एम.ए. व पी०एचडी० (हिंदी) |
विधा | पत्रकारिता, संपादन, आलोचक, अध्यापन |
सूरज पालीवाल (जन्म: 8 नोव्हेंबर 1951 मथुरा, उत्तर प्रदेश) हिन्दी के वरिश्ठ आलोचक और प्रगतिशील आलोचना के प्रमुख संवाहक हैं।
जीवन
सूरज पालीवाल का जन्म 8 मई 1951 को मथुरा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उन्होंने हिन्दी साहित्य में एम०ए० व पी०एचडी० करने के पश्चात प्रत्रकारिता, अध्यापन एवं आलोचनात्मक लेखन कार्य में सक्रिय हैं। प्रो. पालीवाल प्रसिद्ध आलोचक, संपादक एवं शिक्षाविद हैं। आपकी दो कहानी संग्रह, दस आलोचना ग्रंथ और हिंदी की जानी-मानी पत्रिकाओं में 90 से अधिक आलेख प्रकाशित हैं। आप ने ३० वर्ष की अकादमिक जीवन में कई राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित एवं संयोजित किया हैं। संप्रति आप साहित्य विद्यापीठ, महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के अध्यक्ष एवं अधिष्ठाता के रूप में कार्यरत हैं।
सम्मान
प्रेमचंद पुरस्कार, पंजाब कला एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार, डॉ॰ राम विलास शर्मा आलोचना सम्मान[1], आचार्य निरंजन नाथ विशिष्ट साहित्यकार सम्मान[2]
संपादन
- एक दशक तक चर्चित कथा मासिकी 'वर्तमान साहित्य' के संपादक मंडल में सक्रिय रहे
- 'इरावती' त्रैमासिक के प्रधान संपादक
- जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के त्रैमासिक बुलेटिन 'परिसर' के संस्थापक-संपादक
- अतिथि संपादक[3]
रचनाएँ
कहानी संग्रह
- टीका प्रधान
- जंगल
आलोचना
- फणीश्वरनाथ रेणु का कथा साहित्य,
- संवाद की तह में
- रचना का सामाजिक आधार
- आलोचना के प्रसंग
- साहित्य और इतिहास- दृष्टि
- महाभोज: एक विमर्श
- समकालीन हिंदी उपन्यास
- हिंदी में भूमंडलीकरण का प्रभाव और प्रतिरोध
कहानी संग्रह पर संजीव की अभिमत
सूरज पालीवाल के कहानी संग्रह की भूमिका हिंदी के चर्चित कथाकार संजीव ने लिखी है। उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि सूरज पालीवाल नवें दशक के महत्वपूर्ण कथाकार हैं, जिन्होंने अपने समय के यथार्थ को राजनीतिक चेतना के साथ रेखांकित किया। अपनी भूमिका में वे लिखते हैं- कृत्रिमता से दूर सहजता की खोज में -अपने दौर के समर्थ कथाकार सूरज पालीवाल की कहानियां पहले भी पढ़ता रहा था और आज भी, पर छिटपुट पढ़ना एक बात है, समग्र पढ़ना और बात। सूरज पालीवाल की 'जंगल तथा अन्य कहानियां' पढ़कर पहला असर अवसन्नता का होता है। एक अजीब-सा धुआं आत्मा पर टंग जाता है- खौफ का धुआं। क्या सब कुछ हृास की ढलान पर ऐसे ही नीचे लुढ़कता जायेगा ? कभी भी, कुछ भी नहीं बदलेगा? कहानी 'श्रवण की वापसी' हो या 'रामराज', 'कल का सुख' हो या कोई और, सूरज पालीवाल किसी जबरन आशा का झांसा नहीं देते, बल्कि तल्ख हकीकतों को खोलकर पाठक के सामने रख देते हैं। 'श्रवण की वापसी' को ही लें, भारतीय किसान परिवारों में एक अदद गाय या भैंस पालने का सपना 'गोदान के होरी' से लेकर आज तक पलता आ रहा है और उसी के साथ कर्ज लेकर ली गई इस गाय या भैंस का कर्ज न चुका पाने की विडम्बना भी। तीन हजार रुपये का कर्ज! भूमिहीनों के लये सरकारी कर्ज! भैंस के पुट्ठे पर लगा कर्ज का सरकारी ठपपा बापू के पुट्ठे का ठपपा बन जाता है और भैंस की तड़प बापू की तड़प। यह भैंस न हुई जी का जंजाल हो गई। भैंस का दूध, दही, घी कभी बी.डी.ओ. का चपरासी ले जाता, कभी बड़े बाबू, कभी कोई और। न देने पर किस्त की धमकी। परिवार का कोई भी सदस्य भैंस का दूध-दही-घी नहीं पाता। किस्त की लडकती तलवार, बेटे की बेरोजगारी ऊपर से। कहीं से भी कोई सहायकता नहीं मिलती-न पांवनेदारों से, न रिश्तेदारों से और न बेटे से। अंततः कर्ज न अदा कर पाने की स्थिति में बापू को जेल होती है। बेरोजगार बेटा श्रवण नहीं बन पाता। यह बीते हुये कल की कहानी है और आने वाले कल की भी। सूरज पालीवाल की कहानियों की पृष्ठभूमि ब्रज और उसके आसपास की ग्रामीण और कस्बाई स्थितियां हैं, गरीबी है, भुखमरी है, गांवों में पनपती गुंडई है, ग्राम प्रधानी के चुनाव हैं, जातिवादी जकड़न में जकड़ी शक्तियों के वर्चस्व की लड़ाई और टकराहटें, पैंतरे और समीकरण हैं। इन्हीं के चलते गांव में पुल बनाने की पंचायत की मीटिंग भंडुल हो जाती है। उन्हीं के कारण गांव के किंचित धनी चमार टीका को ग्राम प्रधान नहीं बनने दिया जाता। जाटों का प्राधान्य, ब्राह्मणों की कूटनीति के कारण जीती बाजी भी हार जाता है टीका। जातिवादी गांव की हकीकत और उदारता का ढोंग ओढ़े ब्राह्मणवाद पर सटीक टीका करती है कहानी 'टीका प्रधान'। 'टीका प्रधान' अगर वर्णभेद की कहानी है तो 'अजनबी' वर्गभेद की। ब्राह्मण होकर भी गरीब रामधन अपने असवर्ण, पर सम्पन्न मित्र के सद्व्यवहार के बावजूद वर्ग वैषम्य की दूरी लांघ नहीं पाता। अपरिचय की यह दीवार बच्चों तक खिंची हुई है। कभी 'काफिला' में इस विषय पर एक कहानी पढ़ी थी 'कुट्टी'। लेखिका थी मालती महावर। सूरज पालीवाल की 'अजनबी पहचान' मालती महावर और वर्गभेद पर तमाम लेखकों की कहानियों की पीड़ा की दास्तान को आगे बढ़ाती है। यह पीड़ा एक अजीब पीड़ा है, बाहर से दिखती नहीं, अंदर-ही-अंदर इंटरनल ब्लीडिंग की तरह टीसती और रिसती रहती है, यथार्थ का प्रक्षेपण जितना आसान होता है, सटीक निशाने तक पहुंचना उतना ही दुःसाध्य और इसी में लेखक की सच्ची अग्निपरीक्षा होती है। स्थिति और दिक्कतदार तब हो जाती है, जब व्यक्ति से आगे बढ़कर पूरा समाज इस हृास का शिकार होता जा रहा हो और उबरने की गुंजाइश कहीं से भी न निकल पा रही हो, सभी एक दूसरे से मुंह चुराकर खुदगर्जी के शार्टकट के सहारे निष्कृति पा लेना चाहते हों। 'रावण टोला' में रावण बनाने वाले कारीगर को कोई वाजिब पैसा देना नहीं चाहता। सिर्फ एक कारीगर नहीं, हाथ और हुनर का काम करने वाले सभी कारीगरों की उपेक्षा है वणिक समाज की। गांव के कारीगरों और कमेरों के प्रति नजरिया एक-सा है। टेढ़ा दुखी है कि शहर के नाई को तीन रुपये नकद देंगे और मेहमान की तरह बात करेंगे पर गांव के टहलुआ को देते समय प्राण निकलते हैं। फिर एक धूसर-सा सत्य यह है कि गांव में पैसे हैं ही नहीं किसी के पास। यानी व्यक्ति ही नहीं पूरा ग्राम समाज असहाय पड़ता जा रहा है शहर के सामने। 'रावण टोला' का धंधा मारा जा रहा है। शत्रु जितना मूर्त है, उससे ज्यादा अमूर्त। अफवाह है वे बदला लेंगे... मगर कौन बदला लेगा और किससे? बाजारवाद और भूमंडलीकरण के लंबे साये ग्रसने वाले हैं सब कुछ, धंधे, हुनर, परंपराएं, संस्कृति। ठहरी हुई स्थितियां हैं, ठहरे हुये लोग, लगता है सूखते तालाब-सा सारा कुछ जम गया है। 'रामराज' अपने व्यंग्यात्मक शीर्षक से ही नहीं, इसके आगे ग्राम्यजीवन में गहरे उतरकर गांव के भ्रष्ट होते हुये आदमी की प्रधानी में हुई जीत के अंतरजाल की बुनावट पर उंगली रखती है। सेना से गांव का भागा हुआ जवान चौधरी हरपाल सिंह चोरी, डाका, घोटाले कौन-कौन से कुकर्म नहीं करता, मगर चुनाव वही जीतता है। सूरज पालीवाल की कहानियां ग्राम-सभा, चुनाव प्रशासन जैसे संस्ािानों ओर नैतिक साहस जैसे मूल्यों के निरंतर कमजोर पड़ते जाने और अंततः व्यर्थ होते जाने की दास्तान बयान करती हैं। आज तो शैल्पिक चमत्कारेां और खिलंदड़ी भाषा से कथ्य की कमी को ढकने की नीम चालाकियों का दौर है, मगर कभी कथ्य अपने आप में ही इतना मजबूत, मार्मिक और बेधक हुआ करता था कि उसे किसी अतिरिक्त या सायास साज-सज्जा की जरूरत नहीं होती थी 'कल का सुख' एक ऐसी ही कहानी है, जिसे पढ़ने के बाद आप देर तक उदास बने रहते हैं। मुश्किल है, इन संस्थाओं के नष्ट होने का रोना हम किससे रायें, जबकि हमारी अंतिम शरणस्थली परिवार और विवाह नाम की संस्था पर भी अब मारात्मक प्रहार होने लगे हैं। कहीं ये टूट गई हैं, कहीं टूटने की कगार पर हैं। 'कुछ गलत नहीं' कहानी में संघर्षशील विधुर पिता और छोटे भाई के सपने, बड़े बेटे के जर्मनी जाते ही आकाश चूमने लगते हैं पर जैसा कि होता है, वर्गांतरित बड़ा बेटा उन्हें पूरी तरह निराश करता है। ऐसी कहानियों को, चरित्रों को बहिर्मुखी बनाकर लोग कहानी का नाश कर देते हैं, सूरज पालीवाल ने इस खतरे से इस कहानी की रक्षा करते हुये इसे अंतःविस्फोद और जिजीविषा की कहाकनी में तब्दील कर दिया है। संघर्षशील पिता, जो विधुर भी है, का चरित्र इस कहानी में बहुत सशक्त ढंग से उभरकर आया है। वृद्ध पिता बड़े बेटे की ठेस खाकर बैठ जाते हैं मगर हार नहीं मानते। सुबह हल-बैल लेकर फिर खेतों पर चल पड़ते हैं- 'एक साल फेल होने पर दोबारा परीक्षा भी तो दी जाती है।' 'एक गवाह मौत' हाशिए पर पड़ी गांव की दलित कन्या की अकेली-अकेली मौत की संस्मरणात्मक कहानी है। 'आसो' का पिता बहादुर थाा, दलित होते हुये भी गांव की आन की कई बार रक्षा की थी उसने, पर दूसरे स्तर पर नियति और अपने भोलेपन या मूर्खता के आगे असहाय। 'आसो' अपने दुखी वैवाहिक जीवन से त्रस्त दोबारा मायके आई तो फिर मायके की होकर ही रह गई, मगर बाप की बहादुरी और खुद्दारी उसकी धमनियों में बहती है- 'यह समाज ऐसे थोड़े ही बदलेगा बेटा! सीतारामी ओढ़कर दूसरां की कृपा से जिंदगी गुजर सकती है लेकिन जिसे जिंदगी कहते हैं, असली जिंदगी, वह सीतारामी फेंककर अपने ही बल जी सकते है।' पूरे गांव की बुआ, कभी गांव के रक्षक रहे बहादुर पिता की बहादुर बेटी आसो, कई दिनों की भूखी, निराहार दो रोटी के लिेये चिल्लाती मर गई और गांव देखता रहा। यह बेटा कौन है जो रूप बदल-बदलकर सूरज पालीवाल की कहानियों में आता है-कभी दर्शक बनकर, कभी भोक्ता बनकर ? अन्य कोई नहीं सूरज पालीवाल स्वयं ! उनका किशोर ! अक्सर इस किशोर को अपने गांव या कस्बे से शहर भेजा जाता है पढ़ने के लिये लेकिन शहर में उसका मन नहीं लगता। यह किशोर हिंदू भी हो सकता है और मुसलमान भी, सवर्ण भी और असवर्ण भी, धनी भी, गरीब भी लेकिन होता है वह किशोर, उम्र की वह गांठ जिससे दुनिया के आगे के कल्ले फूटते हैं। शहर में रहकर भी वह गांव को जीता है-स्मृतियों में नॉस्टेल्जिया में। ऐसा नहीं है कि ये स्मृतियां किसी सम्पन्न या समृद्ध अीत की हैं, बल्कि ज्यादातर तो उस ठहरी हुई जिंदगी के ठहरे, सड़ते पानी-सी ही हैं, कहीं-कहीं तो अपराध और अपराधिकी में लिथड़ती हुई, मगर मिट्टी के मटियाले रंग के अपने ही ढब हैं, अपनी ही खुशबू जो निहायत अपनी-सी है। काफी दिनों तक शहरी जीवन जी लेने के बाद भी वह रह जाता है 'आउट साइडर' और प्रवासी ही। इस विकास या विपर्यय की इंतहा क्या है? सूरज पालीवाल के नायक-नायिका शहर में उम्र की लंबी अवधि बिताकर भी मुखौटे वाली दोहरी जिंदगी के शहरीपन को मन-प्राण से स्वीकार नहीं कर पाते। उन्हें सरल, सहज, अकृत्रिम जीवन ही भाता है। बेशकर रंग-रोगनविहीन यह चेहरा उतना आकर्षक और चाक्षुष नहीं है पर छलिया तो कतई नहीं। उहापोह के बीच अक्सर निर्णय भी देर तक दहलीज पर ठिठका पड़ा रहता है, पर अंततः वह झुकता है सहज, सरल और अकृत्रिम की ओर। सहजता की खोज ही संभवतः कथाकार को 'जंगल' तक ले आती है, जहां सब कुछ अपने नैसर्गिक रूप में है- आदिम और अकृत्रिम प्रेम भी, घृणा भी-'कुल्हाड़ी से फॉरेस्ट कर्मचारी की हत्या कर पुलिस की अंतहीन यंत्रणा सहने के लिये समर्पण करने वाले आदिवासी का स्याह काला रंग और अपमान की यंत्रणा से विकृत मुंह पर तपती गर्म आंखें मेरा पीछा अब भी कर रही हैं।' सूरज पालीवाल की तीन दौरों की कहानियां इस समग्र में शामिल हैं-पहली, गांव की कहानियां, दूसरी, शहर की होकर भी अजनबीपन की कहानियां, तीसरी, आरोपित कृत्रिमता से मुक्त होने और अपनी जड़ों की ओर लौटने का अभिक्रम करती कहानियां। अंतिम दौर तक आते-आते उत्तर आधुनिकतावाद, अस्तित्ववाद और दूसरे पश्चिमी कथा आंदोलनों की प्रभाव छायाएं भी दिखने लगती हैं। बलाइजेशन तब तक आया न था मगर उसके शिकारी कदमों की आहट तो इन कहानियों में सुनी जा सकती हैं। संख्या के लिहाज से बहुत कम कहानियां हैं 'जंगल तथा अन्य कहानियां' समग्र में। कुल जमा अट्ठाइस। सूरज पालीवाल के कथा समग्र से गुजरने के बाद एक ही सवाल उभरता है- इतने संभावनाशील कथाकार ने कहानी लिखना बंद क्यों कर दिया?[4]
सन्दर्भ
- ↑ "प्रो॰पालीवाल को वर्ष 2009 का डॉ॰ राम विलास शर्मा आलोचना सम्मान" (PDF). मूल (PDF) से 22 सितंबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 मई 2014.
- ↑ विशिष्ट साहित्यकार सम्मान के लिए चुने गए प्रो॰ सूरज पालीवाल[मृत कड़ियाँ]
- ↑ लोकशक्ति का कविः नागार्जुन, 'वचन', अंक 13-14, अक्टूबर,2013, ISSN: 0976-8297
- ↑ संजीव जंगल तथा अन्य कहानियाँ भूमिका, पृष्ठर 9 से 12