सुपद्मव्याकरण
सुपद्मव्याकरण, आचार्य पद्मनाभदत्त द्वारा रचित एक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ है। पाणिनि के उत्तरवर्ती वैयाकरणों में आचार्य पद्मनाभदत्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है।सुपद्मव्याकरण पाणिनीय अष्टाध्यायी के अनुकरण पर रचित एक लक्षण ग्रन्थ है। यह व्याकरण बंगाली वर्णमाला के अक्षरों में, विशेषकर बंगाल निवासियों के भाषाषाज्ञान के लिए लिखा है। पद्मनाभदत्त ने बंग प्रान्तीयों के लिए संस्कृत व्याकरण की जटिलता को दूर करके, सुगम्य बनाने के लिए बंगाली लिपि में सुपद्मव्याकरण की रचना की। उनका प्रमुख उद्देश्य संस्कृत व्याकरण का स्पष्ट तथा सरलतम ढंग से ज्ञान कराना तथा भाषा के विकास में आए नए-नए शब्दों का संस्कृतिकरण करना था, जो आज भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उन्होने सुपद्मव्याकरण के अलावा प्रयोगदीपिका, उणादिवृत्ति, धातुकौमुदी, यङलुगादिवृत्ति, परिभाषावृत्ति आदि अन्य व्याकरणिक ग्रन्थ भी रचे।[1]
सुपद्मव्याकरण
सुपद्मव्याकरण संस्कृत व्याकरण पाणिनीयेतर परम्परा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। पद्मनाभदत्त ने सुपद्म नामक एक संक्षिप्त व्याकरण लिखा था। इसकी उणादिवृत्ति में सुपद्मनाभ नाम मिलता है-
‘‘सुपद्मनाभेन सुपद्म सम्मतं, विधिः समग्रः सुगमं समस्यते।’’
उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार उन्हों ने इस पाणिनीयेतर व्याकरण को बंगाल प्रान्त में बंगाली वर्णमाला के अक्षरों में और विशेषकर बंगप्रान्तीय निवासियों के लाभ के लिए लिखा। सुपद्मव्याकरण में 2800 सूत्र मिलते हैं। पद्मनाभदत्त ने वैदिक संस्कृत से सम्बन्धित सूत्रों का उल्लेख अपने व्याकरण में नहीं किया है। सुपद्मव्याकरण में प्रकरणानुसार सूत्रों को अध्यायों एवं पादों में नियोजित किया गया है। इसके पाँच अध्यायों में कुल 2800 सूत्र हैं जो प्रत्येक अध्याय में चार पाद की व्यवस्था से बीस पादों में विभक्त है।
सुपद्मव्याकरण में कहीं-कहीं पर महाभाष्य अथवा काशिकावृत्ति में पठित वार्तिकों को सूत्ररूप में पढ़ा गया है। सुपद्मव्याकरण में स्वर और वैदिक प्रकरणों का अभाव है। किसी-किसी स्थल में पाणिनीय सूत्र तथा उस पर रचित वार्तिक को मिलाकर एक नए सूत्र का रूप दे दिया गया है, जैसे- पाणिनि ने ‘दुन्योरनुपसर्गे’ व ‘विभाषाग्रहः’ सूत्रों तथा ‘भवतेश्च वक्तव्यम्’ वार्तिक के समानान्तर पद्मनाभदत्त ने ‘दुन्नी-ग्रह-भुवोवानुपसर्गे’ एक ही सूत्रा की रचना कर दी। दक्षिण भारत का निवासी होने के कारण पद्मनाभदत्त के सुपद्मव्याकरण ग्रन्थ में द्वित्व की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती हैं, पूर्व में यह व्याकरण देवनागरी लिपि में प्राप्त नहीं होता था। परन्तु 1989 में पहली बार डॉ॰ आर.एस. सैनी के सम्पादन से यह व्याकरण वर्तमान में देवनागरी लिपि में उपलब्ध होता है।
सुपद्मव्याकरण के टीकाकार
सुपद्मव्याकरण की सरलता और महत्ता के कारण इस पर लगभग नौ टीकाएँ लिखी गई थी। पद्मनाभदत्त ने अपने व्याकरण पर स्वयं ‘पंजिका’ नाम्नी टीका लिखी है। इनके अतिरिक्त सुपद्मव्याकरण पर विष्णुमिश्र, रामचन्द्र, श्रीधरचक्रवर्ती और काशीश्वर ने टीकाएँ लिखी हैं। इनमें विष्णु मिश्र की ‘सुपद्मकरन्द टीका’ सर्वश्रेष्ठ है। डॉ॰ वेल्वाल्कर का मत है कि सौपद्मसम्प्रदाय के गणपाठ का निर्धारण काशीश्वर नाम के विद्वान् ने किया था और रमाकान्त नामक वैयाकरण ने इस गणपाठ पर वृत्ति लिखी थी। पद्मनाभदत्त ने ‘पृषोदरादिवृत्ति’ नामक एक विशिष्ट ग्रन्थ सं. 1427 वि. में लिखा। पद्मनाभ विरचित ‘परिभाषावृत्ति’ पर रामनाथ सिद्धान्त रचित टीका है। धर्मसूरिकृत ‘परिभाषार्थप्रकाशिका’ टीका का एक हस्तलेख अडियार के ग्रन्थ संग्रह में विद्यमान है।
पाणिनीय कालोत्तर संस्कृत वैयाकरण तथा सुपद्मव्याकरण
पाणिनि रचित अष्टाध्यायी संस्कृत वाङ्मय का एक अमूल्य ग्रन्थ है। पाणिनि के परवर्ती काल में व्याकरण के अनेक सम्प्रदाय प्रचलित हुए। शिष्ट समाज में ‘त्रिमुनि व्याकरणम्’ के तन्त्र में अप्रमाणित कोई भी नूतन शब्द अपशब्द की श्रेणी में रखा जाता था, सामाजिक एवं सांस्कृतिक तन्त्र के विकसित होने के कारण नित नये शब्दों का प्रयोग बढ़ रहा था। इन नूतन शब्दों को लोक प्रयोग में लाने के लिए पाणिनीयेतर व्याकरणों की रचना हुई। कुछ व्याकरण ग्रन्थों का प्रणयन संस्कृत व्याकरण को सरलतम ढ़ंग से शिक्षार्थियों को सिखाने के लिए हुआ और कुछ ग्रन्थ बहुत विशालकाय बने, जिनमें पाणिनि से लेकर उस समय तक भाषा की प्रगति में आए शब्दों का विवरण था।
उत्तरकाल में यद्यपि रचनाकारों ने अपने ग्रन्थों में पूर्णता लाने के लिए यथाशक्ति पूर्ण प्रयत्न किये तथा प्रणयनकालीन परिस्थितियों में शास्त्र की उपयोगिता को दृष्टिगत कर अपने-अपने शास्त्रों का प्रणयन किया, तथापि कोई भी व्याकरणशास्त्र पाणिनीय अष्टाध्यायी को अतिक्रान्त न कर सका।
पाणिनीयेतर व्याकरणों का एकमात्र उद्देश्य था सरल शैली में व्याकरण की क्लिष्टता तथा जटिलता को दूर करना। ऐसे में बंगाल, मालवा और गुजरात प्रदेश में व्याकरण ग्रन्थ रचे गये। इनमें जैन तथा बौद्ध सम्प्रदायों के कतिपय आचार्यों ने अपने-अपने सम्प्रदायों के अनुयायियों की दृष्टि से व्याकरण ग्रन्थों की रचना की। अष्टाध्यायी के उपरान्त लगभग 16 मुख्य व्याकरणों की रचना हुई, यथा-
रचना | रचयिता | रचना | रचयिता |
---|---|---|---|
कातन्त्र व्याकरण (विवादास्पद) | शर्ववर्मा | चान्द्र व्याकरण | चन्द्राचार्य |
जैनेन्द्र व्याकरण | देवनन्दी | शाकटायन व्याकरण | पाल्यकीर्ति |
भोजीय व्याकरण (सरस्वतीकण्ठाभरण) | भोज | सिद्धहैमशब्दानुशासन | हेमचन्द्र सूरि |
शब्दानुशासन | मलयगिरि | मुग्धबोध शब्दानुशासन | वोपदेव |
सारस्वत प्रक्रिया | नरेन्द्र | सारस्वत व्याकरण | अनुभूति स्वरूप |
सौपद्म व्याकरण (सुपप्रव्याकरण) | पद्मनाभदत्त | जौमर व्याकरण | जुमरनन्दी |
हरिनामामृत व्याकरण | रूपगोपस्वामी (जीवगोस्वामी) | प्रबोध प्रकाश व्याकरण | बलराम पंचानन |
प्रयोगरत्नमाला पुरुषोत्तम | विद्यावागीश | संक्षिप्तसार व्याकरण | क्रमदीश्वर |
सन्दर्भ
- ↑ "Supadmavyākaraṇa". free journal. मूल से 10 June 2021 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 31July 2021.
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