सार
दर्शन में, सार एक गुण या गुणों का समुच्चय होता हैं जो किसी सत्त्व या पदार्थ को मौलिकता देता हैं, और जो अनिवार्यता से उसके पास होता ही हैं, और जिसके अभाव में वह अपनी पहचान खो देता हैं।
सत्तामीमांसक अवस्था
अस्तित्ववाद
तत्त्वमीमांसा में
सार, तत्त्वमीमांसा में, अधिकतर बार आत्मा का समानार्थी माना जाता है, और कुछ अस्तित्ववादी ये वाद करते हैं कि व्यक्ति अस्तित्व में आने के बाद आत्माएँ और स्पिरिट्स प्राप्त करते हैं, कि वे अपने जीवनकाल में अपनी आत्माओं और स्पिरिट्स को विकसित करते हैं। Kierkegaard के लिए, हालांकि, सार का केन्द्र "प्रकृति" पर था। उनके लिए, "मानवी प्रकृति" जैसा कुछ है ही नहीं, जो यह निर्धारित करेगा कि कोई मानव कैसे बर्ताव करेगा या मानव क्या होगा। प्रथम, वह अस्तित्व में आता हैं, और फिर गुण आते हैं।
किसी भी तत्त्वमीमांसक सार, जैसे आत्मा, को साफ़ तौर पर नकारकर, ज्यां-पाल सार्त्र के अधिक भौतिकवादी और संशयी अस्तित्ववाद ने इस अस्तित्ववादी विचार को और बढ़ाया, वरन् यह वाद करके कि सार के रूप में गुणों के साथ, सिर्फ़ अस्तित्व ही है।
अतः, अस्तित्ववादी प्रवचन में, सार का सन्दर्भ, भौतिक पहलू से हो सकता है, या किसी व्यक्ति के जारी जीव के गुण से हो सकता है (चरित्र या आन्तरिक रूप से निर्धारित लक्ष्य), या यह अस्तित्ववादी प्रवचन के प्रकार पर निर्भर करता हैं कि उसका सन्दर्भ मानव के अन्दरूनी अनन्त से हो सकता है (जो समापिका के साथ खो सकता हैं, या क्षीण हो सकता है या समान भाग में विकसित हो सकता है)।
मार्क्सवाद का अस्तित्ववाद
धर्म
जैन धर्म
बुद्ध धर्म
महायान बुद्ध धर्म के मध्यमक विचार के भीतर, चन्द्रकीर्ति निम्न प्रकार से स्व का प्रतिपादन करते है :
चीज़ों का वह सार जो अन्य पर निर्भर नहीं; वह एक अन्तर्निहित प्रकृति है। उसका अनास्तित्व निःस्वार्थता है।— बोधिसत्त्वयोगाचार्याचतुःशतकटिका, 256.1.7[1]
नागार्जुन की मूलमध्यमककारिका पर टिपण्णी करते हुएँ, बुद्धपालिता जोड़ते हैं कि,
चीज़ों का जैसे का तैसा यथार्थ क्या हैं? वह हैं सार का अभाव। अप्रशिक्षित लोग, जिनकी बुद्धि की आँख भ्रम के अँधेरे से बाधित है, चीज़ों के सार की परिकल्पना करते हैं, और फिर उनके प्रति आसक्ति या द्वेष निर्माण करते हैं।—बुद्धपालिता-मूल-मध्यमकावृत्ति, P5242, 73.5.6-74.1.2[1]
नागार्जुन के मूलमध्यमककारिका में, 15वां अध्याय सार का ही परिक्षण करता हैं।
हिन्दू धर्म
किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझने में, उसके स्वधर्म (सार) और स्वभाव (अहं व्यक्तित्व की मानसिक आदतें और अनुकूलन) के बीच अन्तर किया जाता हैं। स्वभाव एक शख्स की प्रकृति हैं, जो उसके संस्कारों (बाह्य जगत से किसी की पारस्परिक संक्रिया से मन में निर्मित छाप) का परिणाम हैं। ये संस्कार आदतों और मानसिक मॉडलों को निर्माण करते हैं और वे अपनी प्रकृति बन जाते हैं। हालांकि एक अन्य प्रकार का स्वभाव भी होता हैं जो एक शुद्ध आन्तरिक गुण हैं — स्मरण — हमारा यहाँ सिर्फ़ संस्कारों द्वारा निर्मित स्वभाव पर ध्यान केन्द्रित हैं (क्योंकि उस शुद्ध आन्तरिक स्वभाव और स्मरण की ख़ोज करने हेतु, व्यक्ति को अपने संस्कारों से परिचित होकर उनका नियन्त्रण करना चाहिए)।
धर्म धृ (धारण करना) धातु से आता है। यह वह है जो सत्त्व को धारित किए रहता हैं। अर्थात्, धर्म वह है जो सत्त्व को अखण्डता प्रदान करता है और उस सत्ता के मूल गुण और पहचान (सार), रूप और कार्य धारण करता है। धर्म नीतिपरायणता और कर्तव्य के रूप में भी परिभाषित होता है। धर्म करना करना, अर्थात् नेक रहना; धर्म करना, अर्थात् कर्तव्य पालन करना (अपना सार व्यक्त करना)।[2]
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ अ आ Translations from "The Great Treatise on the Stages of the Path of Enlightenment", Vol. 3 by Tsong-Kha-Pa, Snow Lion Publications ISBN 1-55939-166-9
- ↑ "Prasadkaipa.com". मूल से 3 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 20 नवंबर 2016.