सम्भवनाथ
भगवान श्री सम्भवनाथ जी | |
---|---|
तीसरे जैन तीर्थंकर | |
सम्भवनाथ भगवान की प्रतिमा | |
विवरण | |
अन्य नाम | सम्भवनाथ जिन |
एतिहासिक काल | ६० लाख वर्ष पूर्व |
पूर्व तीर्थंकर | अजितनाथ |
अगले तीर्थंकर | अभिनंदननाथ |
गृहस्थ जीवन | |
वंश | इक्ष्वाकुवंशी काश्यप क्षत्रिय |
पिता | राजा जितारि |
माता | सेना रानी |
पंच कल्याणक | |
च्यवन स्थान | ७ वें अधोग्रैवेयक विमान से |
जन्म कल्याणक | कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा |
जन्म स्थान | श्रावस्ती |
दीक्षा कल्याणक | मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा |
दीक्षा स्थान | सहस्त्रार वन में श्रावस्ती नगरी |
केवल ज्ञान कल्याणक | कार्तिक कृष्णा पंचमी |
केवल ज्ञान स्थान | सहस्त्रार वन में श्रावस्ती नगरी |
मोक्ष | चैत्र शुक्ल पंचमी |
मोक्ष स्थान | सम्मेद शिखर |
लक्षण | |
रंग | स्वर्ण |
चिन्ह | घोड़ा |
ऊंचाई | ४०० धनुष (१२०० मीटर) |
आयु | ६०,००,००० पूर्व (४२३.३६० × १०१८ वर्ष) |
वृक्ष | शालवृक्ष |
शासक देव | |
यक्ष | त्रिमुख |
यक्षिणी | दुरितारी देवी |
गणधर | |
प्रथम गणधर | श्री चारूदत्त जी |
गणधरों की संख्य | १०२ |
जीवन परिचय
तीर्थंकर संभवनाथ प्रभु का जन्म श्रावस्ती नगरी में हुआ। इनके पिता राजा जितारी और माता सेना रानी थी। जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर के रूप मे इनको सम्मान प्राप्त है।
पूर्व भव
महाविदेह के ऐरावत क्षेत्र मे क्षेमपुरी देश का विपुलवाहन नाम का एक राजा था। विपुलवाहन राजा, न्याय एवं करुणा की साक्षात मूर्ति था। प्रजा को दुःख मे देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता था। एक बार राज्य में भीषण अकाल पड़ा। बूंद बूंद पानी के लिए जनता तरस रही थी। अन्न की सर्वत्र कमी थी। जनता की पीड़ा को देखकर, विपुल वाहन राजा द्रवित हो हो गया।[1] विपुलवाहन राजा ने अपने राज्य के धान्य भंडार प्रजा के लिए खोल दिए एवं अपने रसोइए को आदेश दिया कि मेरी रसोई में से कोई भी भूखा प्यासा व्यक्ति स्वधर्मी भाई और साधु महात्मा आवे तो पहले उन्हें आहार दान दिया जाय।[2] अगर कुछ बचेगा तो मैं अपनी क्षुधा मिटा लूंगा, अन्यथा उनकी सेवा के संतोष से ही मेरी आत्मा संतुष्ट होगी। पूरे दुष्काल के समय अनेक बार राजा भूखा रहा, और प्यासे कंठो से ही प्रभु की प्रार्थना करता था। इस प्रकार की उत्कृष्ट सेवा एवं दान भावना के कारण राजा विपुलवाहन ने तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन किया। कालांतर में वर्षा हुई। दुष्कल मिटा और राजा एवं प्रजा सुखी हो गए। किंतु प्रकृति की इस उपरोक्त क्रूर लीला को देखकर राजा के मन में संसार विरक्ति हुई। अपने पुत्र को राज्य सौंप कर मुनि दीक्षा अंगीकार की। यहां से समाधि मरण होकर मुनि विपुलवाहन का जीव स्वर्ग में गया।[1]
==च्वयन कल्याणक==
इस प्रकार सम्यकत्व प्राप्ति के 3 भव बाद , फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को मार्गसीर नक्षत्र में, मिथुन राशि के योग आने पर 7 वें ग्रवैयेक विमान से चव्य कर श्रावस्ती नगरी के राजा जितारी की रानी सेना के गर्भ में अवतरण हुआ। इस प्रकार रात्रि में माता सेना उत्तम 14 स्वपन देखती है। राजा से जितारी से उत्तम स्वप्न के चर्चा करने पर पुत्र रत्न के गर्भ होने की जानकारी प्राप्त होते ही परिवार जन मे आनंद का वातावरण हो जाता है।
सम्भवनाथ जिन वर्तमान अवसर्पिणी काल के तीसरे तीर्थंकर थे भगवान संभवनाथ जी ने सम्मेत शिखरजी मे अपने समस्त घनघाती कर्मो का क्षय कर निर्वाण प्राप्त किया और सिद्ध कहलाये । प्रभु का निर्वाण चैत्र सुदी 6 को हुआ था । भगवान संभवनाथ जी के प्रथम शिष्य का नाम चारूदत तथा प्रथम शिष्या का नाम श्यामा था । प्रभु के प्रथम गणधर चारूजी थे ।
।[3]
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ अ आ https://www.wisdomlib.org/jainism/book/trishashti-shalaka-purusha-caritra/d/doc212678.html
- ↑ अमर मुनि (जून, 1995). सचित्र तीर्थकर चरित्र. आगरा: दिवाकर प्रकाशन.
|date=
में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद) - ↑ "" संभवनाथ जी "", Jainism Knowledge