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सन्धि (समझौता)

पांच भाषाओं - जर्मन, हंग्री की भाषा, बुल्गेरियायी भाषा, तुर्की भाषा एवं रूसी भाषा में ब्रेस्ट-लिटोव्स्क संधि के प्रथम दो पृष्ट

अन्तरराष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत दो या अधिक देशों या अन्य अन्तरराषट्रीय संगठनों के बीच हुए करार (agreement) या समझौते को सन्धि (treaty) कहते हैं। जिनका स्वरूप अनुबंध के समान होता है तथा जिनके अनुसार संबंधित पक्षों के प्रति कुछ में परस्पर विधिवत् अधिकारकर्तव्य के दायित्व की सृष्टि होती है। अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में संधियों का वह स्थान है जो देशीय क्षेत्र में विधिनियमों का होता है। यह वह साधन है जिनके द्वारा विभिन्न राज्य अपने अंतरराष्ट्रीय जीवन का व्यवहार संतुलित करते हैं।

नाना प्रकार की संधियाँ

संधियाँ नाना प्रकार की होती हैं। अंतरराष्ट्रीय भाषा में संधि के अनेक पर्यायवाची हैं; इन्हें ट्रीटी, (अन्तरराष्ट्रीय) समझौता, प्रोटोकोल, कान्वेन्सन, एकॉर्ड तथा मेमोरैण्डम ऑफ् अन्डर्स्टैण्डिंग आदि नामों से भी जाना जाता है। इन अलग-अलग नामों के बावजूद अन्तरराष्ट्रीय विधि के अनुसार सभी सन्धि ही हैं। सन्धियों को मोटा-मोटी संविदा जैसा माना जा सकता है।

कुछ उदाहरण

संयुक्त राष्ट्रसंघ अधिकारपत्र रचना जिसके द्वारा अनेक देशों ने मिलकर अंतरराष्र्टीय व्यवहार के मूल नियम नियोजित तथा घोषित किए; या किसी भू प्रदेश का एक देश द्वारा दूसरे देश को स्थानांतरण, जैसे अक्टूबर, 1954 ई. में फ्रांस एव भारत के मध्य "समर्पण" संधि द्वारा हुआ अथवा कोई सामरिक संबध स्थापना, जैसा "उत्तरी अटलांटिक संधि" द्वारा हुआ या किसी देश विशेष के तटस्थ रूप की घोषणा, जैसे लंदन संधि 1831 द्वारा वेल्जियम के संबंध में हुई।

उद्देश्य

संधि के नियमों के अनुसार संबंधित पक्ष आबद्ध हो जाते हैं। यह दायित्व-आबद्धता ही संधि का उद्देश्य होता है।

कोई देश जब एक बार संधि में सम्मिलित हो जाता है तो वह उसके दायित्व बंधन से तब तक मुक्त नहीं हो सकता जब तक संधि करनेवाले अन्य पक्षों से अनुमति न प्राप्त कर ले। संधि अनुबंधनों की अपेक्षा किए बिना अंतरराष्र्टीय जीवन नितांत अव्यवस्थित तथा विधिविहीन हो जाएगा। किंतु दुर्भाग्यवश बहुधा राज्य संधिनियमों का उल्लंघन करते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि यह राज्य संधि उल्लंघन का अरोप कभी स्वीकार नहीं करते। कभी वे कहते हैं कि उनके कार्य से संधिनियमों का हनन ही नहीं हुआ, कभी यह स्पष्ट करने की चेष्टा करते हैं कि वह संधि उनपर लागू ही नहीं होती थी, कभी यह स्वीकार कर लेते हैं कि आपत्काल में उन्होंने उल्लंघन किया। किसी भी प्रकार कोई अंतरराष्ट्रीय, संस्था या समुदाय स्पष्टतया संधि की उपेक्षा स्वीकार नहीं करता, अतएव सिद्धांत रूप में संधिमान्यता सर्वथा स्वीकृत है।

संधि की प्रक्रिया

संधि संबंध स्थापित करने के हेतु सर्वप्रथम एक प्रतिनिधि निश्चित करना आवश्यक होता है। इस प्रतिनिधि को जो राज्य नियुक्त करता है, वह उसे लिखित रूप में एक प्रतिनिधित्व "अधिकारपत्र" प्रदान करता है जिसके अनुसार वह देश की ओर से संधि वार्ता करने का अधिकारी हो जाता है। इस अधिकारपत्र को अंतरराष्ट्रीय भाषा में "संपूर्ण अधिकार" कहते हैं। अंतरदेशीय संधिवार्ता संबंधी अधिवेशन में सर्वप्रथम एक "संपूर्ण अधिकार समिति" बनाई जाती है जो सम्मेलन में आए सब प्रतिनिधियों के "संपूर्ण अधिकार" (प्रतिनिधित्व अधिकारपत्र) की जाँच करती है। तत्पश्चात् गोपनीय रूप से संधिवार्ता की शर्तों की चर्चा की जाती है। गोपनीयता सर्वथा वांछनीय है, जिससे संधि की अपरिपक्ववस्था का वादविवाद बाह्य जगत् में प्रचारित होकर संधिस्थापन में हानिकर न हो। सब प्रतिनिधि इस संधिवार्ता की प्रत्येक अवस्था पर अपने राज्यों को सूचित करते रहते हैं तथा उनका परामर्श लेते रहते हैं। प्रतिनिधियों के हस्ताक्षरों द्वारा संधिवार्ता का रूप पूर्ण हो जाता है। तत्पश्चात् प्रत्येक संबंधित राज्य के पौर विधान के अनुसार यदि आवश्यक हो तो यह संधिपत्र उस देश के राजकीय पुष्टीकरण के लिए भेज दिया जाता है। सिद्धांतत: राज्य के प्रधानाध्यक्ष अथवा सरकार द्वारा प्रतिनिधि के हस्ताक्षर का समर्थन ही पुष्टीकरण माना जाता है किंतु आधुनिक व्यवहारप्रणाली के अनुसार यह पुष्टीकरण बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।

पुष्टीकरण की व्यवस्था इस कारण लाभकारी है कि इससे संबंधित पक्षों की सरकारों को संधिप्रस्ताव पर अंतिम पुनर्विचार का अवकाश तथा जनमत टटोलने का अवसर मिल जाता है। विश्व में जब राजतंत्रवाद की मान्यता थी, तब संधिप्रस्तावों का अनुमोदन स्वभावतया राजा द्वारा होता था। वर्तमान युग में भी इंग्लैंड तथा इटली में राजा, जापान में सम्राट्, फ्रांस, जर्मनी तथा संयुक्त राष्ट्र अमरीका में राष्ट्रपति के नाम पर संधिप्रस्ताव निर्मित एवं उनके द्वारा अनुमोदित होते हैं। पाश्चात्य जनतंत्रवादी संविधानों के अनुसार संधि पुष्टीकरण के लिए यह अनिवार्य है कि कार्यकारिणी के प्रधान की स्वीकृति के अतिरिक्त किसी रूप में विधायिनी सहमति भी प्राप्त की जाए। उदाहरणार्थ संयुक्त राष्ट्र अमरीका में संधि की पुष्टि तब होती है जब राष्ट्रपति की स्वीकृति तथा 2/3 उपस्थित सेनेटरों की सहमति प्राप्त हो जाए। फ्रांस में सब संधिप्रस्तावों के विषय में नहीं किंतु कुछ विशेष महत्वपूर्ण संधियों की पुष्टि के लिए नियम है कि "सेनेटरों एवं डेपुटीज" का बहुमत प्राप्त हो। ब्रिटेन में सिद्धांत रूप से सम्राट् को संधि-पुष्टीकरण में पार्लिमेंट की स्वीकृति प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है, किंतु व्यवहार में कुछ दूसरी ही प्रथा है। सारे महत्वपूर्ण संधिप्रस्ताव अनुमोदन के पूर्व "हाउस ऑव कामंज" के समक्ष सहमति प्राप्त करने के लिए रख दिए जाते हैं। स्विटजरलैंड में कुछ विशेष संधिप्रस्ताव, पुष्टीकरण के पूर्व "जनमत ग्रहण" के लिए सर्वसाधारण जनता के सम्मुख भी रखे जा सकते हैं। भारत की संवैधानिक प्रणाली के अनुसार संधिप्रस्ताव संसद् में केवल सूचनार्थ रख दिए जाते हैं, अन्य कोई क्रिया आवश्यक नहीं होती। एकशास्तृत्व के अंतर्गत पुष्टीकरण एकांगी रूप से कार्यकारिणी द्वारा संपन्न होता है।

पुष्टीकरण के पूर्व किसी भी संबंधित राज्य की कार्यपालिका या विधानमंडल कुछ संशोधन या संरक्षण उपांग प्रस्ताव में रख सकते हैं किंतु इनकी बाध्यता तब तक मान्य नहीं होती जब तक अन्य सबंधित पक्ष उन्हें स्वीकार न कर लें। इन संरक्षण उपांगों द्वारा पक्षविशेष प्रस्ताव के कुछ नियमों से अपने को मुक्त रख सकते हैं, अथवा किसी नियमविशेष को संशोधित रूप में या किसी विशेष अर्थ में मानकर भी संधि को स्वीकार कर सकते हैं।

पुष्टीकरण पूर्ण हो चुकने पर पक्षों में पुष्टीकरणपत्रों का परस्पर विनिमय होता है। जब संधि बहुपक्षीय होती है तो सब पुष्टीकरणपत्र उस देश के वैदेशिक विभाग में रख दिए जाते हैं जहाँ संधि अधिवेशन की बैठक हुई हो। यदि संधि अंतर्राष्ट्रीय संघ के तत्वावधान में हुई हो तो सब पुष्टीकरणपत्र संघ के सचिवालय में रखे जाते हैं। संघ के घोषणापत्र के अनुसार यह अनिवार्य है कि संघ का कोई भी सदस्य जब कोई संधि करे तो संघ सचिवालय द्वारा उसका पंजीयन तथा प्रकाशन करवाए। इसका उद्देश्य केवल यही है कि राज्यों में परस्पर गुप्त समझौते न होने पाएँ। पुष्टीकरण विनिमय के उपरांत संधि पूर्णरूपेण प्रभावशील हो जाती है। साधारणतया जब तक कोई अन्य तिथि निश्चित न की गई हो, हस्ताक्षर तिथि से ही संधि लागू की जाती है। तदुपरांत अन्य राज्य भी संधि अंगीकार कर सकते हैं किंतु इसके लिए मूल संधिकारों की सहमति आवश्यक होती है।

अंतिम सीढ़ी है संधि का वस्तुत: कार्यान्वित न होना, जो विभिन्न राज्यों के पौर विधान (सिविल ला) से नियंत्रित होता है। इस विषय में संयुक्त राष्ट्र अमरीका में राष्ट्रपति की ओर से औपचारिक उद्घोषणा पर्याप्त होती है। इंग्लैंड तथा भारत में संसद् द्वारा संधियों का विधिवत् समाविष्ट होना अनिवार्य है।

सन्धि का संशोधन एवं समापन

संधि का समापन कई प्रकार से हो सकता है। प्राय: यह संधि के स्वरूप पर निर्भर करता है। निश्चित अवधि समाप्त हो जाने के कारण, संधि के नियमों की पूर्ति हो जाने पर, अथवा मूल पक्षों में से एक देश की विनष्टि के कारण, या किसी नवीन संधियोजना द्वारा जो पूर्वस्थित संधि को स्पष्ट रूप से अवक्रमित करती हो, - इन सभी अवस्थाओं में स्वभावत: संधि का समापन हो जाता है। वस्तुस्थिति में प्राणभूत परिवर्तन होना भी संधि की अमान्यता उत्पन्न कर सकता है, किंतु यह स्पष्ट नहीं कि इस प्रकार की अमान्यता केवल एक पक्ष के मत से सिद्ध हो सकती है अथवा नहीं। युद्ध की घोषणा होते ही स्वभावत: युध्यमान देशों की पारस्परिक समस्त राजनीतिक संधियों का समापन हो जाता है, अन्य सब प्रकार की संधियों की क्रियात्मकता युद्धकाल के लिए स्थगित कर दी जाती है तथा वे समझौते मान्य रह जाते हैं जो विशेषतया युद्धकालीन व्यवहार से संबंधित हों। इसके अतिरिक्त सधिकारों की पारस्परिक सहमति से भी किसी संधि का समापन हो सकता है। कोई एक पक्ष भी अन्य पक्षों को सूचित कर संधि अनुबंधन से विलग हो सकता है, इस स्थिति में केवल उस पक्ष की ओर से संधि समापन होता है, किंतु इस प्रकार का समापन तुरंत ही कार्यान्वित नहीं हो जाता। अन्य पक्षों को सामयिक सूचना के उपरांत कुछ निश्चित अवधि मिलती है जिसमें वह विभक्त पक्ष से व्यवहारसंतुलन व्यवस्थित कर सके, अन्यथा ऐसा आकस्मिक परिवर्तन समस्त संबंधित पक्षों के पूर्वनियोजित व्यवहारों को अवश्य ही अव्यवस्थित और असंतुलित कर दे।

यह स्पष्ट है कि वर्तमान अंतरराष्ट्रीय समाज इतना गतिमान है कि उसमें राजनीतिक संधियाँ कभी सततमान्य या अपरिवर्तनशील नहीं हो सकतीं। विश्वकुंटुंब में राज्यरूपी इकाइयों का ऐसा स्वरूप है कि नित्य उनकी दलगत स्थितियाँ पारस्परिक लाभ हानि के दृष्टिकोण को लेकर बदलती रहती हैं। ऐसे परिवर्तनशील समाज में सततमान्य समझौते कैसे संभव हो सकते हैं? इसकी चेष्टा मात्र राजनीतिक वस्तुस्थिति तथा संधिनियमों में सदा संघर्ष उत्पन्न करेगी। अतएव समस्त संधियोजनाओं का सामयिक संशोधन नितांत आवश्यक है जिससे परिवर्तित राजनीतिक दशाओं और संधिनियमों में सदा संघर्ष उत्पन्न करेगी। अतएव समस्त संधियोजनाओं का सामयिक संशोधन नितांत आवश्यक है जिससे परिवर्तित राजनीतिक दशाओं और संधिनियमों में संतुलन बना रहे ओर कोई पक्ष अवैध रूप से इनका समापन अथवा उल्लंघन न करे। इस दृष्टिकोण को लक्ष्य कर बहुधा संधियोजनाओं में संशोधन करने की अनुमति तथा प्रणाली भी दी जाती है। अधिकतर समस्त संधिकारों की सहमति से संशोधन किए जाने की प्रथा है, किंतु 1945 ई. से एक नवीन प्रणाली आरंभ हुई है जिसे अनुसार यदि संशोधन अंतरराष्ट्रीय समाज के हित में हो तो सर्वसम्मति नहीं, केवल पक्षों के बहुमत से भी संशोधन क्रियात्मक हो सकता है।

सन्धि का महत्व

यह कहना अत्युक्ति नहीं कि वर्तमान संधियोजनाओं ने अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र की अनेक विरोधात्मक अभिरुचियों में शांतिपूर्ण संतुलन प्रस्तुत कर एक प्रकार का वैधानिक अनुशासन उत्पन्न कर दिया है। संधिनियमों द्वारा अनेक अंतरराष्ट्रीय विवादों का स्पष्टीकरण और समाधान हुआ है, तथा विश्व के समस्त राज्यों की सुरक्षा कुछ सीमा तक सुरक्षित हो गई है। जब तक अंतरराष्ट्रीय विधान परिषद् का स्वप्न विश्वसमाज में साकार नहीं हो जाता उस समय तक अंतरराष्ट्रीय संबंधों की सुव्यवस्था संधि द्वारा होना अनिवार्य एवं निश्चित है।

संस्कृत साहित्य में सन्धि

कौटिल्य ने पड़ोसी राजाओं के साथ व्यवहार के लिये 6 लक्षणों वाली नीति (षाड्गुण्य) अपनाने पर बल दिया। प्राचीन भारतीय चिन्तन में भी इसके लक्षण मिलते है। मनु के विचारों में तथा महाभारत में भी इसका उल्लेख मिलता है। ये ६ गुण हैं- दो राजाओं का मेल हो जाना (संधि), शत्रु का अपकार करना (विग्रह) , उपेक्षा करना (आसन), हमला करना (यान), आत्मसर्मपण करना (संश्रय), दोनों से काम लेना (द्वैधीभाव)।

संधि कौटिल्य के षड़गुण्य नीति का पहला एंव महत्वपूर्ण तत्व है। कौटिल्य का मत है कि यह दो राजाओं के मध्य हुआ समझौता है। यह राजा के द्वारा किया गया उपक्रम है जिसका उद्देश्य अपने को बलशाली बनाना तथा शत्रु को कमजोर करना है। कौटिल्य ने संधि के लिये निम्न आवश्यक परिस्थितियां बतायी है:-

1. यदि राजा समझता है कि इससे उसके हित सिद्ध होंगे तथा शत्रु को हानि होगी।

2. शत्रु पक्ष के लोगों को कृपा दिखाकर अपने में शामिल करना।

3. शत्रु के साथ संधि कर उसका विश्वास हो जाये तो गुप्तचरों और विष प्रयोग से शत्रु का नाश करना।

4. उत्तम कार्यों के साथ शत्रु के उत्तम कार्यों से लाभ प्राप्त करना।

प्रायः १६ सन्धियाँ बतायी गयीं हैं- कपालम् , उपहारः , सन्तानम् , संगतम् , उपन्यासः , प्रतीकारः , संयोगः , पुरुषान्तरम् , अदृष्टनरः , आदिष्टम् , आत्ममिषः , उपग्रहः , परिक्रयः , उच्छिन्नम् , परिदूषणाम् , स्कन्धोपनेयम् ।

कौटिल्य के अनुसार संधि के प्रकार

कौटिल्य ने अनेक प्रकार की संधियों का उल्लेख किया है। इसमें से कुछ प्रमुख संधि इस प्रकार है:-

हीन संधि

हीन संधि एक विशेष प्रकार की संधि है जो बलवान राजा के साथ एक कमजोर राजा अपनी सुरक्षा और हित सवंर्धन के लिये करता है।

दंडोपनत संधि- कौटिल्य ने इसके तीन प्रकार बताये है- अमिष संधि, पुरूषांतर संधि और अदृश्य पुरूष संधि । जब पराजित राजा विजयी राजा के समक्ष अपनी सेना, धन के साथ सर्मपण कर दे तो उस संधि का अमिष संधि कहते है। अपने सेनापति तथा राजकुमार को विजयी राजा को सौंपकर जो संधि की जाती है। उसे पुरूषंकर संधि कहते है। अदृश्य पुरूष संधि एक विशेष संधि होती है जिसमें यह निश्चित होता है कि विजयी राजा के हित के लिये पराजित सेना या राजा उपक्रम करेगा।

देशोपनत संधि - देशोपनत संधि के निम्न प्रकार होते है- परिक्रय संधि, उपग्रह संधि और सुवर्ण संधि। परिक्रय सन्धि वह संधि होती है जिसमें बलवान राजा द्वारा युद्ध में गिरफ्तार किये गये महत्वपूर्ण व्यक्तियों को धन देकर छोड़ा जाता है। उपग्रह सन्धि वह संधि है जिसमें धनराशि निश्चित हो जाती है। यह किस्तवार धन अदा करन बल देती है। सुविधानुसार निश्चित समय पर नियमित धनराशि देने की संधि सुवर्ण संधि कहलाती है।

कपाल संधि

यह वह संधि हैं जिसमें संपूर्ण धनराशि तत्काल अदा करने की शर्त होती है ।

रिपणित देश संधि

यह एक प्रकार की रणनीतिक संधि दो राज्यों के बीच होती है। इसमें दो राज्य रणनीति के तहत अलग-अलग दो राज्यों पर हमला करते है।

परिपणित काल संधि

यह समय (काल) को आधार पर की गई संधि होती है। इसमें दो राज्य एक निश्चित समय पर कार्य करने पर सहमत होते है।

परिपणित कार्य संधि

यह दो राज्यों के बीच एक निश्चित कार्य को करने का समझौता होता है। इसमें अपने-अपने हिस्से का कार्य तय हो जाता है।

मित्र संधि

यह एक अलग प्रकार की संधि है जो दो मित्र राजाओं के बीच परस्पर हित पूर्ति के लिये की जाती है।

विषम संधि

यह दो राज्यों के बीच दो अलग-अलग कार्यों को करने का समझौता है। इसमें एक राज्य हिरण्य का तथा दूसरा भूमि का कार्य करता है।

अति संधि

यह विशेष संधि है जो उम्मीद से अधिक लाभ प्राप्त होने का प्रतीक है ।

भूमि संधि

यह दो राज्यों के बीच भूमि प्राप्त करने हेतु किया गया समझौता है। इसे भूमि संधि कहते है।

हिरण्य संधि

यह हिरण्य लाभ के लिये की गई संधि है। यही कारण है कि इसे हिरण्य संधि कहते है। विग्रह या युद्धः- यह राजा की महत्वपूर्ण नीति है। राजा को युद्ध का सहारा तभी लेना चाहिए जब उसे लगे कि शत्रु कमजोर हो गया है। कौटिल्य ने आगे स्पष्ट किया है कि यदि विजीगीषु राजा को यह लगे कि संधि और विग्रह दोनों से ही समान लाभ प्राप्त हो रहा है तो उसे विग्रह के स्थान पर संधि का सहारा लेना चाहिए।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ