सतत फलन
कलन |
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गणित में किसी चर राशि x पर परिभाषित फलन f(x) सतत फलन (अंग्रेज़ी: Continuous function) कहलाता है यदि x में अल्प परिवर्तन करने पर f(x) के मान में भी केवल अल्प परिवर्तन हो अन्यथा यह असतत फलन कहलाता है। एक सतत फलन के प्रतिलोम फलन का सतत होना आवश्यक नहीं।
वास्तविक मान सतत फलन
परिभाषा
वास्तविक संख्याओं के एक समुच्चय से वास्तविक संख्याओं पर परिभाषित फलन को कार्तीय समतल में एक ग्राफ से निरुपित किया जा सकता है; मोटे तौर पर कह सकते हैं कि फलन सतत होगा यदि ग्राफ पर कोई भी बिन्दु ऐसा नहीं हो जहाँ कोई कोटर व उछाल ना हो, कहने का मतलब यह है कि ग्राफ कहीं से टुटा हुआ ना हो।
इसे गणितीय रूप में लिखने के विभिन्न तरीके हैं। फलन को सतत परिभाषित करने के लिए प्रचलित परिभाषा निम्न है:
वास्तविक संख्याओं के समुच्चय R के उपसमुच्चय I पर परिभाषित फलन है। उपसमुच्चय I को फलन f का क्षेत्र कहा जाता है। यहाँ सम्भावित विकल्प के रूप में I=R, पूर्ण संख्याओं का समुच्चय, बन्द अन्तराल
अथवा खुला अन्तराल
शामिल है। यहाँ a और b वास्तविक संख्याएं हैं।
सीमा के साथ सतत फलन की परिभाषा
अपने क्षेत्र में बिन्दु c पर फलन f सतत कहलाता है यदि फलन f(x) की सीमा जब x, c की ओर अग्रसर होने पर f का मान वास्तविक हो तथा वह f(c) की ओर अग्रसर हो।[1] गणितीय रूप में लिखने पर :
यहाँ निम्न तीन शर्तें आवश्यक दृष्टान्त होती हैं :
- (1) f बिन्दु c पर परिभाषित होना चाहिए।
- (2) वाम हस्त दिशा में प्रदर्शित सीमा परिभाषित होनी चाहिए।
- (3) सीमान्त मान f(c) के बराबर होना चाहिए।
फलन f को सतत कहा जाता है यदि यदि यह क्षेत्र के प्रत्येक बिन्दु पर सतत है।
उदाहरण
सभी बहुपद फलन, जैसे
(चित्रित) सतत हैं।
असतत फलन
असतत फलन का एक उदाहरण एक फलन है जिसे निम्न प्रकार परिभाषित किया जाता है f(x) = 1 यदि x>0, f(x) = 0 यदि x ≤ 0, इसे सिद्ध करने के लिए ε = 1⁄2 लेते हैं। यहाँ पर x=0 के लगभग कोई δ-परिवेश नहीं है जो की f(x) के मान को f(0) के निकट ε की ओर अग्रसर करे। परिणामस्वरूप इस तरह की असतता को आक्समिक उछाल कहेंगे। इसी तरह चिह्न फलन
x=0 पर असतत है अन्यथा सतत है।
अन्य उदाहरण : फलन
x = 0 के अलावा सतत है।
सन्दर्भ
- ↑ लैंग, सेर्गे (1997), (स्नातक विश्लेषण) अंडरग्रॅजुयेट अनॅलिसिस, गणित में स्नातक विषय (अंडरग्रॅजुयेट टेक्स्ट्स इन मैथेमेटिक्स) (2nd संस्करण), बर्लिन, न्युयार्क: Springer-Verlag, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-387-94841-6, अनुच्छेद II.4