षड्दर्शनसमुच्चय
षड्दर्शनसमुच्चय भारतीय दर्शन का एक संग्राहक ग्रन्थ है जिसके रचयिता आचार्य हरिभद्र सूरि हैं। सामान्य रूप से षड्दर्शनों में छः वैदिक दर्शन ही गिने जाते हैं किन्तु आचार्य हरिभद्र ने षड्दर्शनसमुच्चय में जिन छः दर्शनों का विवेचन किया है वे ये हैं- (१) बौद्ध (२) नैयायिक (३) सांख्य (४) जैन (५) वैशेषिक, और (६) जैमिनीय। उन्होंने ये भी कहा है कि ये ही दर्शन हैं और इन्ही छः में सब दर्शनों का संग्रह हो जाता है। उन्होंने इन छः दर्शनों को आस्तिकवाद की संज्ञा दी है। इसमें उन्होंने लोकायत दर्शन का भी निरूपण किया है।[1]
सामान्यतया भारत में धार्मिक दार्शनिकों ने अपने दर्शन के अतिरिक्त अन्य सिद्धान्तों का अध्ययन, सत्य की खोज के सन्दर्भ में तुलनात्मक अध्ययन के लिए उन्हें समझने की अपेक्षा उनकी आलोचना या खण्डन के लिए अधिक किया । सम्भवतया हरिभद्र एक गणनीय अपवाद हैं। उनका षड्दर्शनसमुच्चय छह दर्शनों - बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक तथा जैमिनीय दर्शन का आधिकारिक विवरण देने वाला प्राचीनतम ज्ञात संग्रह हैं। उनकी परिगणना रुढिवादियों से भिन्न हैं और यह वास्तव में सम्पूर्ण भारतीय धर्म-दर्शन के विवेचन की दृष्टि से विस्तृत है।
हरिभद्र के षड्दर्शनसमुचय को गुणरत्नसूरि एक सुयोग्य टीकाकार प्राप्त हुए और उनकी टीका 'तर्करहस्यदीपिका' पर्याप्त विस्तृत है। उनकी व्याख्या में हमें प्राप्य कतिपय विवरणों की अपनी विशेषताएँ हैं । वे सन् १६४३ से १४१८ के बीच में हुए ।
षड्दर्शनसमुच्चय और शास्त्रवार्तासमुच्चय
ये दो ग्रन्थ आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित हैं। लेकिन इन दोनों ग्रन्थों में उनकी रचना की दृष्टि भित्र-भित्र रही है। षड्दर्शनसमुच्चय में तो छहों दर्शनों का सामान्य परिचय करा देना ही उद्दिष्ट है। इसके विपरीत शास्त्रवार्तासमुच्चय में जैनदृष्टि से विविध दर्शनों का निराकरण करके जैनदर्शन और अन्य दर्शनों में भेद मिटाना हो तो उस दर्शन में किस प्रकार का संशोधन होना जरूरी है, यह निर्दिष्ट किया है। अर्थात् जैन दर्शन के साथ अन्य अन्य दर्शनों का समन्वय उन दर्शनों में कुछ संशोधन किया जाय तो हो सकता है - इस ओर इशारा आचार्य हरिभद्र ने किया है। नयचक्र की पद्धति और शास्त्रवार्तासमुच्चय की पद्धति में यह भेद है कि नयचक्र में प्रथम एक दर्शन की स्थापना होने के बाद उसके विरोध में अन्य दर्शन खड़ा होता है और उसके भी विरोध में क्रमशः अन्य दर्शन - इस प्रकार उस काल के विविध दर्शनों का बलाबल देखकर मल्लवादी ने एक दर्शन के विरोध में अन्य दर्शन खड़ा किया है और दर्शनचक्र की रचना की है। कोई दर्शन सर्वथा प्रबल नहीं और कोई दर्शन सर्वथा निर्बल नहीं। यह चित्र नयचक्र में है । तब शास्त्रवार्तासमुच्चय में अन्य सभी दर्शन निर्बल ही हैं और केवल जैनदर्शन ही सयुक्तिक है - यही स्थापना है। दोनों ग्रन्थों में समग्र भाव से भारतीय दर्शन का संग्रह है । नयचक्र में गौण मुख्य सभी सिद्धान्तों का और शास्त्रवार्तासमुच्चय में मुख्य-मुख्य दर्शनों का और उनमें भी उनके मुख्य सिद्धान्तों का ही संग्रह है।
हरिभद्र ने षड्दर्शनसमुच्चय में वेदान्त दर्शन या उत्तर मीमांसा को स्थान नहीं दिया। इसका कारण यह हो सकता है कि उस काल में अन्य दर्शनों के समान वेदान्त ने पृथक् दर्शन के रूपमें स्थान पाया नहीं था। वेदान्तदर्शन का दर्शनों में स्थान आचार्य शंकर के भाष्य और उसकी टीका भामती के बाद जिस प्रकार प्रतिष्ठित हुआ सम्भवतः उसके पूर्व उतनी प्रतिष्ठा उसकी न रही हो। यह भी कारण हो सकता है कि गुजरात राजस्थान में उस काल तक वेदान्त की उतनी प्रतिष्ठा न भी हो।
शास्त्रवार्तासमुच्चय की रचना 'तत्त्वसंग्रह' को समक्ष रखकर हुई है। दोनों में अपनी-अपनी दृष्टिसे ज्ञान-दर्शनों का निराकरण मुख्य है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में जिन दर्शनों का निराकरण है उनका दर्शनविभाग क्रम से नहीं किन्तु विषय विभाग को लेकर है। प्रसिद्ध दर्शनों में चार्वाकों के भौतिकवाद का सर्वप्रथम निराकरण किया गया है तदनन्तर स्वभाववाद आदि का जिनकी नयचक्र में प्रारम्भ में स्थापना और निराकरण है। तदनन्तर ईश्वरवाद जो न्याय-वैशेषिक संमत है, प्रकृतिपुरुषवाद ( सांख्यमत ), क्षणिकवाद (बौद्ध), विज्ञानाद्वैत ( योगाचार बौद्ध), पुनः क्षणिकवाद ( बौद्ध ), और शून्यवाद ( बौद्ध ) का निराकरण किया गया है । तदनन्तर नित्यानित्यवाद (जैन ) की स्थापना करके अद्वैतवाद ( वेदान्त ) का निराकरण किया है । तदनन्तर जैनों के मुक्तिवाद की स्थापना और सर्वज्ञताप्रतिषेधवाद ( मीमांसक ) और शब्दार्थसम्बन्धप्रतिषेधवाद का निराकरण है। इससे स्पष्ट है कि षड्दर्शनसमुच्चय में जिस वेदान्त को स्थान नहीं मिला था उसे शास्त्रवार्तासमुच्चय में स्थान मिला है। इसका कारण सम्भवतः यह हैं कि आचार्य हरिभद्र ने शान्तरक्षित का तत्वसंग्रह देखा और उसमें से प्रस्तुत वाद के विषय में उन्होंने जाना तब उस विषय की उनकी जिज्ञासा बलवती हुई और अन्य सामग्री को भी उपलब्ध किया । तत्त्वसंग्रह की टीका में उन्हें औपनिषदिक अद्वैतावलम्बी कहा गया है। यह भी ध्यान देनेकी बात है कि तत्त्वसंग्रह में भी आत्मपरीक्षा प्रकरण में औपनिषदात्मपरीक्षा - यह एक अवान्तर प्रकरण है । वेदान्त के विषय में उसमें कोई स्वतन्त्र 'परीक्षा' नहीं है। तत्वसंग्रह के पूर्व भी समन्तभद्राचार्य को आप्तमीमांसा में अद्वैतवाद का निराकरण था ही। वह भी आचार्य हृदिभद्र में षड्दर्शनसमुच्चय की रचना के पूर्व न देखा हो, यह सम्भव नहीं लगता। अतएव षड्दर्शन में वेदान्त को स्वतन्त्र दर्शन का स्थान न देने में यही कारण हो सकता है कि उस दर्शन को प्रमुख दर्शन के रूप में प्रतिष्ठा जन्म पायी न थी।[2]