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शोथ

त्वचा पर एक फोड़ा, जिसके पास सूजन एवं लाली है। मवाद के केन्द्रीय क्षेत्र को घेरे हुए नेक्रोटिक ऊतक के काले घेरे हैं।
पैर के नाखून के पास सूजन

प्रदाह (लैटिन, inflammare, अंग्रेज़ी:इन्फ़्लेमेशन) शरीर में रक्तवाहिकाओं का हानिकारक कारणों, जैसे पैथोजन, क्षतिग्रस्त कोशिका या उत्तेजकों आदि के कारण शरीर की प्रतिक्रिया होती है।[1] प्रदाह प्राणियों द्वारा खतरनाक या हानिकारक स्टिमुलाई को हटाने व कोशिका या ऊतकों के पुनरोद्धार की प्रक्रिया आरंभ करने का प्रयास होते हैं। सूजन संक्रमण का पर्याय नहीं है।

परिचय

प्रदाह (Inflammation) शरीर में किसी भी उत्तेजक वस्तु से उत्पन्न स्थानीय प्रतिक्रिया का स्वरूप है। किसी भी स्थान पर सूजन, ललाई, ताप एवं पीड़ा तथा अकार्यक्षम (loss of functionality) प्रदाह के मुख्य लक्षण हैं। ये सभी लक्षण प्रदाह में होनेवाली प्रतिक्रिया द्वारा उत्पन्न होते हैं। प्रदाह का एकमात्र उद्देश्य उत्तेजक वस्तु से शरीर को मुक्ति दिलाना तथा उससे हुई क्षति को पूर्ण करना होती है। प्रदाह शरीर के किसी भी भाग में हो सकता है। फोड़े फुंसी, घाव, न्यमोनिया, सूजन का होना, जुकाम, आँख दुखना, कान बहना, क्षय रोग आदि सब प्रदाह के ही विभिन्न रूप हैं। उत्तेजना पैदा करनेवाली वस्तुएँ सजीव एवं निर्जीव पदार्थ, दो भागों में विभाजित की जा सकती हैं। सजीव, जैसे रोग के सूक्ष्म जीवाणु, परजीवी आदि हैं तथा निर्जीव, भौतिक कारण जैसे गर्मी, सर्दी, विद्युत, अज्ञात रश्मियाँ, विजातीय पदार्थ, चोट लगना आदि तथा रासायनिक पदार्थ, जैसे क्षार, अम्ल, का अनेकों विष आदि, प्रदाह के भिन्न भिन्न कारक हैं। प्रदाह के प्रधानतया उग्र (acute) तथा दीर्घकालिक (chronic) दो रूप हैं। उत्तेजक वस्तु की मात्रा, शरीर के ऊपर उत्तेजक वस्तु का प्रभाव (कितनी देर, किस प्रकार से रहता है) और शरीर की प्रतिरोध शक्ति के ऊपर प्रदाह निर्भर करता है। दोनों ही सजीव तथा निर्जीव पदार्थ उग्र एवं दीघकालिक दोनों ही प्रकार के प्रदाह उत्पन्न कर सकते हैं।

कारण

  • जले में
  • रासायनिक जलन
  • फ्रॉस्टबाइट
  • विषैले रसायन
  • पैथोजन द्वारा संक्रमण
  • शारीरिक चोट, या कुछ चुभना आदि
  • हाईपरसेंस्टिविटी के कारण प्रतिरक्षा अभिक्रियाएं
  • आयोनाइज़िंग विकिरण
  • गंदगी, बाहरी कारक आदि

प्रकार

विकट एवं चिरकालिक सूजन की तुलना:
विकटचिरकालिक
कारकपैथोजन, क्षतिग्रस्त ऊतकPersistent acute inflammation due to non-degradable pathogens, persistent foreign bodies, or autoimmune reactions
प्रभावित प्रमुख कोशिका न्यूट्रोफिल, मोनोन्यूक्लियर कोशिकाएं (मोनोसाइट, मैकरोफेजेस)Mononuclear cells (monocytes, macrophages, lymphocytes, plasma cells), fibroblasts
प्राथमिक मध्यस्थVasoactive amines, eicosanoidsIFN-γ and other cytokines, growth factors, reactive oxygen species, hydrolytic enzymes
आरंभImmediateDelayed
अंतरालFew daysUp to many months, or years
परिणामResolution, abscess formation, chronic inflammationTissue destruction, fibrosis

प्रतिक्रियाएँ

प्रदाह में तीन प्रकार की प्रतिक्रियाएँ होती हैं :

१. परगिलन (necrosis),
२. नि:स्रवण (exudation) तथा
३. प्रचुरोद्भवन (proliferation)।

परगिलन या ऊतकक्षय एवं नि:स्रवण प्रतिक्रियाएँ उग्र प्रदाह में तथा ऊतकक्षय और प्रचुरोद्भवन दीर्घकालिक प्रदाह में प्रधानतया होते हैं। इन सभी प्रतिक्रियाओं में रुधिर एवं लसीका (lymph), तथा संयोजक और इंद्रिय ऊतक के विविध अवयव भाग लेते हैं। रोग के सूक्ष्म जीवाणु शरीर में प्रवेश कर श्लेष्माकला (mucus membrane) पर अथवा रक्त एवं लसीका की नलिकाओं से होकर, संयोजक और इंद्रिय ऊतकों में प्रदाह की प्रतिक्रिया प्रारंभ कर देते हैं। यदि रोगाणु अधिक मात्रा में हुए, या उनकी विषैली शक्ति अधिक हुई, अथवा शरीर की प्रतिरोध शक्ति कम हुई, तो प्रदाह उग्र रूप ले लेता है। ये प्रतिक्रियाएँ निम्नलिखित रूप से संपन्न होती है: प्रथम रक्त की सूक्ष्म धमनिकाएँ (arterioles) क्षणिक समय के वास्ते सिकुड़ती हैं। इससे रुधिर का बहाव उन धमनिकाओं के अंदर तीव्र हो जाता है, तत्पश्चात्‌ ये धमनिकाएँ चौड़ी हो जाती हैं और रुधिर का प्रवाह उनके अंदर मंद हो जाता है। इससे सूक्ष्म कोशकाओं (capilaries) तथा लसीका की नलिकाओं का प्रसार बढ़ जाता है, जिससे प्रदाह के ऊपर की त्वचा या श्लेष्माकला, लाल तथा गरम हो जाती है। इन सूक्ष्म केशिकाओं की भित्ति की कोशिकाएँ अपनी संख्या में प्रचुरोद्भवन द्वारा वृद्धि कर (अंडाकार या गोल) अमीबा की भाँति का आकार धारण कर लेती हैं, जिससे कोशिकाओं की भित्ति खुरदरी हो जाती है। हड्डियों की मज्जा में बहुखंडीय श्वेत कोशिकाएँ अपनी कूपपादीय गति से बाहर प्रदाह के स्थापन पर आ जाती हैं। इनके साथ साथ रक्त के लाल कण भी प्रदाह स्थान पर निकल आते हैं। इस प्रकार शरीर की रक्षा के प्रहरी के रूप में बहुखंडीय श्वेत कोशिकाएँ, प्रथम पंक्ति में आकर शत्रु से मुठभेड़ करती हैं। ये श्वेत कोशिकाएँ शरीर के पर्यावरण में किसी विशेष पदार्थ के सांकेतिक प्रतिवचन द्वारा उत्तेजित स्थान पर एकत्रित होती हैं। इस क्रिया को रसायन अनुचलन (Chemotaxis) कहते हैं। रक्त का तरल पदार्थ (प्लैज्मा) उस प्रदाह स्थान पर, विशेषतया सूक्ष्म कोशिकाओं की भित्ति पर, रोगाणुओं के विष द्वारा उत्पन्न उत्तेजित शक्ति पर निर्भर करते है। रोगाणुओं का विष ऊतकक्षय मिलकर सूत्रमय प्रोटीन बना लेते हैं, जो बहुखंडीय श्वेत कोशिकाओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर विविध रक्त कण, तरल पदार्थ तथा ऊतकक्षय सब मिलकर सूजन का रूप ले लेते हैं। ऊतकों में इस सूजन के दबाव से तंत्रिका पर तनाव, पड़ने लगता है, जिससे पीड़ा होने लगती है। विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ जो प्रदाह में भाग लेती हैं, उनमें से रक्त की बहुखंडीय एवं अखंडीय श्वेतकोशिकाएँ तथा ऊतक की अखंडीय कोशिकाएँ जीवाणुभक्षण क्रिया से रोगाणुओं को निगलकर, उनकी शक्ति क्षीण करने में भाग लेती हैं। उग्र प्रदाह के प्रारंभ में बहुखंडीय श्वेत कोशिकाएँ ही प्रधान रूप से जीवाणुभक्षण क्रिया संपन्न करती हैं। पाप उत्पन्नकारी रोगाणु इन कोशिकाओं को अपनी ओर अधिक मात्रा में आकर्षित करते हैं, इसलिये इस प्रकार के प्रदाहों में बहुखंडीय कोशिकाएँ ही अधिक मात्रा में आकर्षित करते हैं, इसलिये इस प्रकार के प्रदाहों में बहुखंडीय कोशिकाएँ ही अधिक मात्रा में मिलती हैं। रक्त का ठोस तथा तरल पदार्थ और ऊतक के विविध अवयव रोगाणुओं द्वारा उत्पन्न विष की मात्रा को हलका करके शरीर को उसके आघात से बचाते हैं। दोनों ही क्रियाएँ¾ प्रथम, जीवाणुभक्षण तथा द्वितीय, प्लैज्मा का रक्तनलिकाओं द्वारा बाहर आना ¾ शरीर को रोगाणुओं से उत्पन्न विष की मात्रा को हलका करके शरीर को उसके आघात से बचाते हैं। दोनों ही क्रियाएँ¾ प्रथम, जीवाणुभक्षण तथा द्वितीय, प्लैज्मा का रक्तनलिकाओं द्वारा बाहर आना ¾ शरीर को रोगाणुओं से उत्पन्न क्षति से मुक्ति दिलाने की ओर अग्रसर करती हैं। ये सब विविध क्रियाएँ रासायनिक पदार्थो एवं तंत्रिकाओं के प्रोत्साहन द्वारा संपन्न होती हैं। यदि रोगाणुओं की संख्या तथा उत्तेजक शक्ति अधिक न हुई और शरीर की प्रतिरोध शक्ति प्रचुर मात्रा में हुई, तो बहुखंडीय श्वेत कोशिकाएँ इन जीवाणुओं पर विजय की घोषणा कर उनको जीवाणुभक्षण क्रिया द्वारा निगलकर तहस नहस कर देती हैं। इस क्रिया में कुछ बहुखंडीय कोशिकाएँ भी धराशायी हो जाती हैं। इन धाराशायी कोशिकाओं से एक प्रकार की प्रोटीन विलायक वस्तु उत्पन्न होती है, जो मृत ऊतकों आदि को घुलाकर प्रदाह के तरल पदार्थ तथा धाराशायी श्वेत कोशिकाओं और रोगाणुओं को लसीका की नलिकाओं द्वारा प्रदाह स्थान से दूर ले जाती है। यदि रोगाणु अपने विष द्वारा विजयी होते हैं, तो प्रदाह स्थान में बहुखंडीय कोशिकाएँ बहुत अधिक मात्रा में धराशायी हो जाती हैं और वे पीप का रूप ले लेती हैं। प्रदाह लाल रंग से परिवर्तित होकर पीला रंग धारण कर लेता हैं। इसी को पका फोड़ा कहते हैं। जब फोड़े का उपचार औषधियों द्वारा करते हैं, तब रोगाणु नष्ट हो जाते हैं और उस स्थान पर प्रदाह के अंत में रक्त की तथा ऊतकों की अखंडीय कोशिकाएँ एकत्रित होकर, तीव्र गति से जीवाणु-भक्षण-क्रिया द्वारा रोगाणुओं को निगलकर नष्ट कर देती हैं। साथ ही साथ ये अखंडीय कोशिकाएँ उन धराशायी बहुखंडीय कोशिकाओं को भी निगल जाती हैं जो रोगाणुओं द्वारा मार डाली गई हैं और इस प्रकार प्रदाह के स्थान के स्वस्थ अवस्था में लाने का प्रयत्न निरंतर क्रियाशील रहता है। ऊतक कोशिकाएँ अपनी संख्या मे प्रचुरोद्भवन द्वारा वृद्धि कर, स्थान पर संयोजक ऊतक की सहायता से नवीन रचना करती हैं और वह स्थान फिर से स्वस्थ हो जाता है।

रोगाणु यदि शरीर पर मध्यम शक्ति से तथा कम मात्रा में बार बार आक्रमण करते हैं, या शरीर की प्रतिरोध शक्ति कुछ कम होती है, तो शरीर इन रोगाणुओं के आक्रमण का दूसरी प्रकार से प्रतिकार करता है। इन रोगाणुओं से उत्पन्न उत्तेजक शक्ति का प्रभाव शरीर पर शनै: शनै: पड़कर दीर्घ स्थायी प्रदाह का रूप ले लेता है। इस प्रवाह में नि:स्रवण क्रिया बहुत कम मात्रा में होती है, इसलिये इसमें बहुखंडीय कोशिकाएँ भी विशेष भाग नहीं लेतीं। इनके स्थान पर लसीकाणु, प्लैज्मा कोशिकाएँ (plasma cells) और ऊतकों की अखंडीय कोशिकाएँ प्रचुरोद्भवन क्रिया द्वारा संख्या में वृद्धि कर प्रदाह स्थान पर एकत्रित होती हैं। इनके साथ साथ उस स्थान पर नई नई सूक्ष्म वाहिनियाँ तथा कोशिकाएँ बन जाती हैं और वह स्थान जीर्ण कणिकायन ऊतक (chronic granulation tissue) का रूप ले लेता है। इसी को घाव कहते हैं। घाव रूपी प्रदाह से हुई क्षति के स्थान को संयोजी ऊतक प्रचुरोद्भवन द्वारा वृद्धि कर स्वस्थ बनाता है। यहाँ पर घाव भरने में मुख्यत: संयोजी ऊतक ही भाग लेता है, इसलिये मुलायम तथा चमकीला स्थान दीर्घ प्रदाह से अच्छा होने के बाद कड़ा तथा ऊतकमय हो जाता है।

सन्दर्भ

  1. Ferrero-Miliani L, Nielsen OH, Andersen PS, Girardin SE (2007). "Chronic inflammation: importance of NOD2 and NALP3 in interleukin-1beta generation". Clin. Exp. Immunol. 147 (2): 227–35. PMID 17223962. डीओआइ:10.1111/j.1365-2249.2006.03261.x. पी॰एम॰सी॰ 1810472. नामालूम प्राचल |month= की उपेक्षा की गयी (मदद)सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)

बाहरी कड़ियाँ