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शाह अकबर दानापूरी

शाह अकबर दानापुरी (1843-1909) एक महान सूफ़ी संत और शायर हुए जिन्होंने सूफ़ीवाद की इस नदी में अपनी शायरी के अनगिनत दिए बहाए जो घाट-घाट जगमग करते आज भी बह रहे हैं।

वंशावली

शाह अकबर दानापुरी की वंशावली बिहार के शुरूआती सूफ़ियों में से एक हज़रत इमाम मोहम्मद ताज फ़क़ीह से जा कर मिलती है। बिहार में सूफ़ीवाद के विकास में इस ख़ानदान की बड़ी अहम भूमिका है। इमाम ताज फ़क़ीह के पुत्र मख़्दूम अब्दुल अज़ीज़ हुए जिनके पुत्र हज़रत सुलैमान लंगर ज़मीन बड़े प्रसिद्ध सूफ़ी हुए और उनकी शादी बिहार की राबिया कही जाने वाली प्रसिद्ध महिला सूफ़ी मख़्दूमा बीबी कमाल से हुई। बीबी कमाल बिहार के प्रसिद्ध सुहरावर्दी सूफ़ी हज़रत शहाबुद्दीन पीर जगजोत की बेटी थीं। यह ख़ानदान पहले मनेर में बसता था पर अब काको नाम की बस्ती में आकर बस गया। सुलैमान लंगर ज़मीन के पुत्र हज़रत शाह अताउल्लाह हुए जो काको से कंजावा नामक गाँव में जा कर बस गए। कंजावा से यह ख़ानदान नवाबादा पहुंचा। नवाबादा से मोड़ा तालाब और मोड़ा तालाब से यह ख़ानदान शहटोली, दानापुर में आ कर बस गया।

यह ख़ानदान इल्म-ओ-आदाब के लिए पूरे बिहार में मशहूर था। शाह अकबर दानापुरी के चचा हज़रत शाह क़ासिम दानापुरी पहली बार घर से बाहर नौकरी करने निकले। वह कचहरी में पेशकार थे। सदर दीवानी जो पहले कलकत्ता में हुआ करती थी अब इलाहाबाद आ गई थी। कुछ ही दिनों में यह खबर फैली कि सदर दीवानी अब आगरा भी जाने वाली है। यह सुन कर शाह  क़ासिम दानापुरी की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। आगरे के प्रसिद्ध सूफ़ी हज़रत सय्यदना अमीर अबुल-उला में उनकी बड़ी श्रद्धा थी। वह सिर्फ़ 50 रूपये मासिक माहवारी पर आगरा आ गए और वहीं सय्यदना अमीर अबुल-उला की दरगाह पर रहने लगे। कुछ ही दिनों में उन्होंने अपने भाई मख़्दूम शाह सज्जाद पाक को भी वहीं बुला लिया। [1][2][3][2]

जन्म

आप 11 सितंबर1843 ई बुध के दिन सुबह नई बस्ती, आगरा में पैदा हुए। अकबराबाद में पैदाइश की वजह से आपका नाम मोहम्मद अकबर रखा गया।[1][4]

हज़रत शाह अकबर दानापूरी की ख़ानक़ाह

किताबें

आप की चंद किताबों के नाम ये है।

  • सुरमा-ए-बिनाई
  • शोर-ए-क़यामत
  • तोहफ़ा-ए-मक़बूल
  • आल-ओ-अस'हाब
  • मौलद-ए-ग़रीब
  • ख़ुदा की क़ुदरत
  • नज़्र-ए-महबूब
  • मौलाद-ए-फ़ातीमी
  • इदराक
  • सैर-ए-देहली
  • इरादा
  • दिल
  • ताजल्लियात-ए-इश्क़
  • तारीख़-ए-अरब
  • अहकाम-ए-नमाज़
  • रेसला ग़रीब नवाज़
  • मसनवी रूह
  • अशरफ़-उल-तवारीख़ (Part 1 to 3)
  • इल्तिमास
  • जज़्बात-ए-अकबर
  • नाद-ए-अली[2][4][5]

शायरी और दयालुपन

शाह अकबर दानापुरी बचपन से ही शायरी में रूचि रखते थे। वह वहीद इलाहाबादी से इस्लाह लिया करते थे। वहीद इलाहाबादी के पिता मौलाना अमरुल्लाह की शाह अकबर दानापुरी के पिता मख़्दूम सज्जाद पाक के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। वहीद के दो शिष्य बड़े मशहूर हुए - अकबर इलाहाबादी और शाह अकबर दानापुरी। अकबर इलाहाबादी और शाह अकबर दानापुरी दोनों महान सूफ़ी हज़रत शाह क़ासिम दानापुरी के मुरीद थे।

आगे चलकर शाह अकबर दानापुरी ख़ानक़ाह सज्जादिया अबुल-उलाईया के सज्जादा-नशीं बने और उन्होंने बिहार की सूफ़ी परंपरा को समृद्ध किया। आप का पूरा जीवन सादगी की एक मिसाल है। आप हमेशा एक ख़ालता-दार पायजामा, नीचा कुर्ता, कांधे पर एक बड़ा रुमाल, पल्ले की टोपी और अंगरखा पहनते थे।[3]

शाह अकबर दानापुरी लिखते हैं -

फ़क़ीर-ख़ाना के देखो तकल्लुफ़ात आ कर

कि फ़र्श-ए-ख़ाक है उस पे बोरिया भी है

एक सूफ़ी का जीवन विशाल वटवृक्ष की तरह होता है जिस की छाँव में सब को सुकून मिलता है। शाह अकबर दानापुरी का जीवन भी ऐसा ही था।[4]

क़व्वाली और संगीत

आप की ख़ानक़ाह के दरवाज़े सब के लिए खुले थे। यहाँ मह्फ़िल भी हुआ करती थी जिस में पटना और आगरा के प्रसिद्ध क़व्वाल कलाम पढ़ते थे। कलाम पढने वाले प्रमुख क़व्वालों में मदार बख़्श ख़ाँ, मोहम्मद याक़ूब ख़ाँ और मोहम्मद सिद्दीक़ ख़ाँ थे।

याक़ूब ख़ाँ फुलवारी शरीफ़ में रहा करते थे। दूर-दूर तक उनकी शोहरत थी। सितार ला-जवाब बजाते थे। जब क़व्वाली पढ़ना शुरू करते थे तो पहले सिर्फ़ सितार बजाते और ऐसा बोल काटते कि लोग अचंभित रह जाते थे। फिर वह कलाम पढ़ते थे। बदन पर शीरवानी, काँधे पर पटका और दो पल्ले की टोपी पहनते थे। बिहार की तक़रीबन तमाम ख़ानक़ाहों में कलाम पढ़ा करते थे। आज भी इनके वंश ने इस फ़न को जारी रखा है। याक़ूब ख़ाँ बीसवीं सदी में बिहार के प्रथम क़व्वालों में से एक हैं। इनके साथ अबदुर्रहीम ख़ाँ क़व्वाल भी गाया करते थे जो इनके छोटे भाई थे। इस तरह एक पूरी टीम आपके पास तय्यार रहती थी। मोहम्मद याक़ूब ख़ाँ क़व्वाली की शुरुआत ज़्यादा-तर शाह अकबर दानापुरी द्वारा लिखित इस हम्द से करते थे-[5]

ऐ बेनियाज़ मालिक मालिक है नाम तेरा

मुझको है नाज़ तुझ पर मैं हूँ ग़ुलाम तेरा

सिद्दीक़ ख़ाँ इस्लामपूर के रहने वाले थे। वह सितार ला-जवाब बजाते और बिला मिज़्राब बोल काटते और राग बजाते थे। ये पहले मुलाज़िम थे फिर शाह अकबर दानापूरी के मुरीद हो गए और क़व्वाली भी पढ़ने लगे। क़व्वाली में अक्सर अपने पीर के कलाम पढ़ते थे। धीरे-धीरे इनकी शौहरत में इज़ाफ़ा होता गया और लोग आपके इस अनोखे अंदाज़ की तारीफ़ करते गए। जब शोहरत ख़ासी बढ़ गई तो आगरा के फ़क़ीरों से दूर हैदराबाद के निज़ाम के जानिब माइल हुए। निज़ाम इनसे मुतास्सिर हुआ और अपने यहां रहने की दावत दी लिहाज़ा एक लंबे अर्से तक निज़ाम के पास रहे और ख़ूब माल कमाया। इस दौरान अपने पीर से बहुत दूर हो गए। जब ज़िंदगी ढलने लगी तो आवाज़ भी वक़्त के साथ तबदील होने लगी इस तरह आप आगरा अपने पीर की बारगाह में हाज़िर हुए। शाह अकबर दानापूरी ने आप को देखते ही आगरे की नरम ज़बान में फ़रमाया -अरे मियाँ सिद्दीक़ कहाँ थे? सुनो ! ये ताज़ा ग़ज़ल लिखी है ज़रा इस पर धुन तो बिठाओ! एक लम्बे वक़्त बाद हाज़िर होने पर भी पीर के लहजे में ज़रा भी दबदबा नहीं था। अपनी धुन में हज़रत की यह ग़ज़ल पढ़ने लगे-[5]

तालिब-ए-वस्ल ना हो आप को बेदार ना कर

हौसला हद से ज़्यादा दिल-ए-नाशाद ना कर

ख़ाक जल कर हो पर उफ़ ए दिल-ए-नाशाद ना कर

दम भी घुट कर जो निकल जाए तो फ़र्याद ना कर

जब इस शे’र पर सिद्दीक़ ख़ाँ पहुंचे तो रोते हुए अपने पीर के क़दमों को थाम लिया-

आके तुर्बत पे मेरी ग़ैर को याद ना कर

ख़ाक होने पे तो मिट्टी मेरी बर्बाद ना कर

उस के बाद इन्होने अपने पीर के क़दमों में ही अपना पूरा जीवन गुज़ार दिया।[5]

आगरे की मशहूर गायिका ज़ोहरा बाई आगरेवाली भी शाह अकबर दानापुरी की मुरीदा थी। ज़ोहरा बाई पटना में बस गयी थी और अपनी एकलौती बेटी के देहांत के पश्चात उनका रुझान आध्यात्म की ओर हो गया था। वह पहले शाह अकबर दानापुरी से शायरी की इस्लाह लेती थी मगर बाद में वह आपकी की मुरीद हो गई। ज़ोहरा बाई ने हज़रत का कलाम अपनी आवाज़ में पढ़ा है -[5]

  • जो बने आईना वो तेरा तमाशा देखे

कहते हैं कि ज़ोहरा बाई ने इन अशआर पर शाह अकबर दानापुरी से इस्लाह ली थी -

पी के हम तुम जो चले झूमते मयखाने से

झुक के कुछ बात कही शीशे ने पैमाने से

हम ने देखी किसी शोख़ की मय-गूं आँखें

मिलती जुलती हैं छलकते हुए पैमाने से[5]

शिष्य

शाह अकबर दानापूरी के शिष्यों का दायरा बहोत फैला हुआ था। उसी शौहरत को सुनते हुए बेदम वारसी आगरा आए और शाह अकबर दानापूरी की शागिर्दी लि। जब कुछ महीने गुज़रे तो बेदम वारसी को अपने शिष्य निसार अकबराबादी के सपुर्द कर दिया। आपके शिष्यों का दायरा बिहार, उत्तर प्रदेश, राजिस्थान और हैदराबाद के इलावा कई देश-विदेश में फैला हुआ है। मशहूर शिष्यों में आपके बेटे शाह मोहसिन दानापूरी के इलावा निसार अकबराबादी, हकीम सय्यद ग़ुलाम शरफ़उद्दीन शिफ़ा, रफ़ीक़ दानापूरी, नय्यर दानापूरी, नूर अज़ीमाबादी, अख़तर दानापूरी, हमद काकवी, मोबारक अज़ीमाबादी, मिर्ज़ा अलताफ़ अली सरोश, इर्फ़ान दानापूरी, क़ाज़ी मज़ाहिर इमाम, फ़िज़ा अजमेरी, शौक़ अजमेरी, सैफ़ फ़र्ख़आबादी, नस्र दानापूरी, इलहाम दानापूरी, यूसुफ़ दानापूरी, बेताब करापी, बदर अज़ीमाबादी, लुतफ़ दानापूरी, रहमत दानापूरी, क़मर दानापूरी, कौसर दानापूरी, यहया दानापूरी, आरिफ़ दानापूरी, जोहर बरेलवी, नाज़िश अज़ीमाबादी, शैदा बिहारी, इलम गयावी, क़ैस गयावी, मस्त गयावी, सहबा गयावी, रौनक़ गयावी, हिंदू गयावी, माह दानापूरी, क़मर जहानाबादी, काविश गयावी शामिल हैं।[5][3]

मृत्यु

शाह अकबर दानापुरी का ज़्यादातर समय आगरे में बीता। जब आपकी उम्र 62 साल की हुई तब तबीयत धीरे-धीरे बिगड़ने लगी। इलाज होता रहा मगर बीमारी भी बढ़ती रही। आख़िर-कार 1909 ई. में इस जगती के पालने से कूच कर गए। आपकी दरगाह दानापुर में है। मृत्यु के बाद आपके तकिये के नीचे से एक पर्ची मिली जिस पर यह अश'आर लिखे थे -[2]

ख़ुदा की हुज़ूरी में दिल जा रहा है

ये मरना है इस का मज़ा आ रहा है

तड़पने लगीं आशिक़ों की जो रूहें

ये क्या रूहुल-क़ुदुस गा रहा है

अ’दम का मुसाफ़िर बताता नही कुछ

कहाँ से ये आया कहाँ जा रहा है[3]

काव्यात्मक कार्य

  1. اکبرآبادی, نثار. دل.
  2. سجاد ابوالعُلائی, شاہ ظفر. تذکرۃ الابرار.
  3. اکبرآبادی, انجم. بزم ابوالعُلا.
  4. سجاد, ظفر (2014). تذکرۃ الابرار. خانقاہ سجادیہ ابوالعلائیہ، داناپور.
  5. ابوالعلائی, ریان (2021). انوار اکبری. خانقاہ سجادیہ ابوالعلائیہ، داناپور.