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वैश्विक प्रणाली

20वी सदी के अंत की विश्व व्यापार व्यवस्था: केंद्र (नीला), अर्ध-परिधि (बैंगनी) और परिधि (लाल) देश. Dunn, Kawana, Brewer (2000) की सूची के अनुसार.


वैश्विक प्रणाली सिद्धान्त (World-systems theory) विश्व इतिहास एवं सामाजिक परिवर्तन को समझने का एक तंत्र सिद्धांत (systems theory) है। इसका मानना है कि सामाजिक अध्ययन के लिए पूरे विश्व को मूल ईकाई माना जाना चाहिए न कि देशों या राज्यों को।

परिचय

विश्व राष्ट्र-राज्यों में बँटा हुआ है, पर उसे एक वैश्विक प्रणाली के रूप में देखने का आग्रह करने वाले विद्वान इस विभाजन को एकता के संदर्भ में समझने का प्रयास करते हैं। उनकी मान्यता है कि सामाजिक सीमाओं और सामाजिक निर्णय-प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए राष्ट्र-राज्यों को एक इकाई के रूप में ग्रहण करने के बजाय वैश्विक प्रणाली को विश्लेषण का आधार बनाया जाना चाहिए। इस बौद्धिक परियोजना के आधार पर किये गये सूत्रीकरण को ‘वैश्विक प्रणाली-सिद्धांत’ के रूप में जाना जाता है। इसका विकास पचास के दशक में प्रतिपादित निर्भरता-सिद्धांत की रैडिकल प्रस्थापनाओं और इतिहास-लेखन के फ़्रांसीसी अनाल स्कूल से प्रभावित है। वर्ल्ड-सिस्टम थियरी के मुख्य जनक इमैनुएल वालर्स्टीन हैं। वालर्स्टीन और वैश्विक प्रणाली के अन्य सिद्धांतकार मानते हैं कि विश्व की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था चार बुनियादी अंतर्विरोधों से ग्रस्त है जिनके कारण उसका अंत अवश्वयम्भावी है, भले ही शीत-युद्ध के ख़ात्मे और सोवियत संघ केपराभव के कारण फ़िलहाल सारी दुनिया में उसका बोलबाला हो गया हो। इनमें पहला अंतर्विरोध है आपूर्ति और माँग के बीच का लगातार जारी असंतुलन। यह असंतुलन तब तक जारी रहेगा जब तक उत्पादन संबंधी निर्णय फ़र्म के स्तर पर लिए जाते रहेंगे। दूसरा है उपभोग से पैदा हुए अधिशेष मूल्य के एक हिस्से को अपने मुनाफ़े के तौर पर देखने की पूँजीपतियों की प्रवृत्ति। अधिशेष को और बड़े पैमाने पर पैदा करने के लिए आगे चल कर मौजूदा अधिशेष का पुनर्वितरण करना होगा। तीसरा अंतर्विरोध राज्य की क्षमताओं से ताल्लुक रखता है कि आख़िर कब तक राज्य की संस्था पूँजीवाद की वैधता कायम रखने के लिए मज़दूरों का समर्थन हासिल करने में कामयाब होती रहेगी। चौथा अंतर्विरोध एक वैश्विक प्रणाली और अनगिनत राज्यों के बीच है। इन दोनों के सह-अस्तित्व से प्रणाली का विस्तार तो हुआ है, पर साथ ही प्रणालीगत संकटों से निबटने के लिए ज़रूरी बेहतर आपसी सहयोग की सम्भावनाएँ भी कम हुई हैं।

विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखने वाले ये विद्वान इस प्रणाली को एक ऐतिहासिक व्यवस्था के तौर पर देखते हैं जिसकी संरचनाएँ उसके भीतर मौजूद किसी भी राजनीतिक इकाई के मुकाबले भिन्न स्तर पर काम करती हैं। वालर्स्टीन ने समकालीन वैश्विक प्रणाली का उद्गम 1450 से 1670 के बीच माना है। इस अवधि को वे ‘दि लोंग सिक्सटींथ सेंचुरी’ की संज्ञा देते हैं। इससे पहले पश्चिमी युरोप सामंती दौर में था और आर्थिक उत्पादन तकरीबन पूरी तरह खेतिहर पैदावार पर निर्भर था। वालर्स्टीन के मुताबिक 1300 के बाद एक तरफ़ तो खेतिहर उत्पादन में तेज़ गिरावट हुई और दूसरी ओर युरोपीय जलवायु के कारण किसान आबादी के बीच पहले से कहीं ज़्यादा महामारियाँ फैलने लगीं। सोलहवीं सदी में ही युरोप पूँजीवादी विश्व-अर्थव्यवस्था की स्थापना की तरफ़ बढ़ा। सामंतवाद के तहत उत्पादन उत्पादकों के अपने उपभोग के लिए होता था, पर नयी प्रणाली में उत्पादन का मकसद बाज़ार में विनिमय हो गया। बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था के कारण उत्पादकों की आमदनी अपने उत्पादन के मूल्य से कम हो गयी और भौतिक वस्तुओं का अनंत संचय ही पूँजीवाद की चालक शक्ति बन गया।

नये युग में आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया बाज़ार के दायरे को भौगोलिक विस्तार की तरफ़ ले गयी, श्रम पर नियंत्रण के विभिन्न रूप विकसित हुए और युरोप में ताकतवर राज्यों का उदय हुआ। जो नयी अर्थव्यवस्था बनी वह दो मायनों में पहले से चली आ रही व्यवस्था से भिन्न थी। वह साम्राज्यों की सीमा से परे जाते हुए एक से अधिक राजनीतिक प्रभुत्व-केंद्रों के साथ बनी रह सकती थी और उसका प्रमुख लक्षण था केंद्र और परिधि के बीच श्रम का एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय विभाजन।

वैश्विक प्रणाली के सिद्धांतकार मानते हैं कि इस परिवर्तन से सर्वाधिक फ़ायदा जिन देशों को हुआ, उन्हीं ने इसके केंद्र की रचना की। शुरू में उत्तर-पश्चिमी युरोप के फ़्रांस, इंग्लैण्ड और हालैण्ड जैसे देशों ने यह भूमिका निभायी। इस क्षेत्र की विशेषता थी मज़बूत केंद्र वाली सरकारें और उनके नियंत्रण में तैनात रहने वाली भाड़े पर काम करने वाली बड़ी-बड़ी फ़ौजें। केंद्रीय सत्ता से सम्पन्न इन सरकारों की मदद से पूँजीपति वर्ग को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के सूत्र अपने हाथ में लेने का मौका मिला और वह इससे आर्थिक अधिशेष खींचने लगा। शहरों में होने वाले कारख़ाना आधारित निर्माण में जैसे-जैसे बढ़ोतरी हुई, वैसे-वैसे बहुत बड़ी संख्या में भूमिहीन किसान शहरों की तरफ़ जाने लगे। दूसरी तरफ़ कृषि संबंधी प्रौद्योगिकी में हुए विकास के कारण खेती की पैदावार भी बढ़ती गयी। वैश्विक प्रणाली के केंद्र में जो क्षेत्र था, उसमें पूँजी का संकेद्रण होता चला गया। बैंकों, विभिन्न व्यवसायों, व्यापार और कारख़ाना आधारित कुशल उत्पादन के विस्तार ने मज़दूरी आधारित श्रम पर आधारित अर्थव्यवस्था के जारी रहने की परिस्थितियाँ पैदा कीं।

दूसरी तरफ़ परिधि के क्षेत्र थे जिनके बारे में वैश्विक प्रणाली के सिद्धांतकारों की मान्यता थी कि उनमें स्थित राज्यों में मज़बूत केंद्र वाली सरकारें नहीं थीं और वे मज़दूरी आधारित श्रम पर निर्भर होने के बजाय बाध्यकारी श्रम के आधार पर अपना उत्पादन संयोजित करते थे। परिधि में स्थित ये क्षेत्र केंद्र स्थित राज्यों को कच्चा माल सप्लाई करके अपनी अर्थव्यवस्थाएँ चलाते थे। सोलहवीं सदी में परिधि के मुख्य क्षेत्र लातीनी अमेरिका और पूर्वी युरोप में माने गये। लातीनी अमेरिका में स्पेनी और पुर्तगीज़ शासन के कारण स्थानीय नेतृत्व नष्ट हो गया था और उनकी जगह कमज़ोर नौकरशाहियाँ युरोपीय नियंत्रण के तहत काम कर रही थीं। देशी आबादी पूरी तरह ग़ुलामी के बंधन में थी। अफ़्रीका से ग़ुलामों का आयात करके खेती और ख़नन का काम करवाया जाता था। स्थानीय कुलीनतंत्र विदेशी मालिकानों के साथ साठ-गाँठ किये हुए था। युरोपीय ताकतों का मकसद ऐसे माल का उत्पादन करना था जिसका उपभोग उनके गृह-राज्यों में हो सके।

वैश्विक प्रणाली के सिद्धांतकारों ने अर्ध-परिधि के तीसरे क्षेत्र की शिनाख्त भी की जो केंद्र और परिधि के बीच बफ़र की भूमिका निभा रहा था। अर्ध-परिधि के क्षेत्र केंद्र वाले इलाकों में भी हो सकते थे और उनका ताल्लुक अतीत की समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं से भी हो सकता था। लेकिन सोलहवीं सदी के दौरान वे अपेक्षाकृत गिरावट के दौर से गुज़र रहे थे। केंद्रस्थ राज्य उनका शोषण करते थे और उनके द्वारा बदले में परिधि वाले क्षेत्रों का दोहन किया जा रहा था। वालर्स्टीन और उनके अनुयायी सोहलवीं से इक्कीसवीं सदी तक वैश्विक प्रणाली के विकास को दो चरणों में व्याख्यायित करते हैं : पहला चरण अट्ठारहवीं सदी तक चला। इस दौरान युरोपियन राज्य और ताकतवर हुए। एशिया और अमेरिका से हुए व्यापार के कारण मज़दूरी पर काम करने वाले श्रमिकों की कीमत पर अमीर और प्रभावशाली व्यापारियों का एक छोटा सा हिस्सा मालामाल हो गया। राजशाहियों की ताकत बढ़ी और सर्वसत्तावादी राज्य ने अपना झंडा गाड़ दिया। अल्पसंख्यकों के निष्कासन, ख़ासकर यहूदियों को जलावतन कर दिये जाने के बाद युरोप की आबादी समरूपीकरण की तरफ़ बढ़ी।

दूसरे चरण के तहत अट्ठारहवीं सदी में उद्योगीकरण ने खेतिहर उत्पादन की जगह लेनी शुरू की।  युरोपीय राज्य नये-नये बाज़ारों की खोज में लग गये। अगले दो सौ साल तक आधुनिक विश्व-प्रणाली में एशिया और अफ़्रीका जैसे नये-नये क्षेत्रों को शामिल करने की प्रक्रिया जारी रही। परिणाम स्वरूप आर्थिक अधिशेष बढ़ता गया। बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में इस वैश्विक प्रणाली का चरित्र वास्तव में भूमण्डलीय बना।

सन्दर्भ

1. इमैनुएल वालर्स्टीन (1974-1989), द मॉडर्न वर्ल्ड सिस्टम, तीन खण्ड, एकेडेमिक प्रेस, न्यूयॉर्क.

2. ए. ज़ोलबर्ग (1981), ‘ओरिजिंस ऑफ़ मॉडर्न वर्ल्ड सिस्टम’, वर्ल्ड पॉलिटिक्स, अंक 33.

3. आर. डेनमार्क (1999), ‘वर्ल्ड सिस्टम हिस्ट्री : फ़्रॉम ट्रेडिशनल इंटरनैशनल पॉलिटिक्स टु द स्टडी ऑफ़ ग्लोबल रिलेशंस’, इंटरनैशनल स्टडीज़ रिव्यू, अंक 1.

4. ए. फ़्रैंक और बी. जिल्स (सम्पा.) (1993), द वर्ल्ड सिस्टम : फ़ाइव हंडे्रड इयर्स ऑर फ़ाइव थाउज़ेंड इयर्स?, रॉटलेज, लंदन.

5. टी. होपकिंस (1982), वर्ल्ड सिस्टम्स एनालैसिस : थियरी ऐंड मैथडॉलॅजी, सेज, बेवर्ली हिल्स, सीए.