विधिसंहिता का इतिहास
संहिता का शाब्दिक अर्थ है संग्रह। अत: विधिनियमों का लिपिबद्ध रूप ही, सामान्य अर्थों में, विधिसंहिता कहलाता है। विधिनियमों के विकासक्रम में यह अत्यंत उच्च स्तर माना गया है क्योंकि विधि का लिपिबद्ध संग्रह तभी संभव है जब उन नियमों का रूप स्थिर हो चुका हो और वे सर्वमान्य हो चुके हों। सामाजिक विकासक्रम में सामाजिक संबंधों का नियमन क्रमश: दैवी आदेश, लोकरीति (जिसे अंग्रेजी में जुडीशल प्रीसीडेट कहते हैं) द्वारा होना माना गया है। अत: स्पष्ट है कि विधिनियमों का संहिताकरण होने के पूर्व यह तीनों स्तर पार किए जा चुके होंगे।
विधिनियमों को लिपिबद्ध करने की आवश्यकता
विधिनियमों को लिपिबद्ध करने की आवश्यकता कदाचित् तब पड़ी होगी जब एक व्यापक क्षेत्र की स्थानीय लोकरीतियों में एकरूपता लाना जरूरी हो गया होगा। सब को कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान उपलब्ध हो सके, यह इच्छा भी संहिताकरण की प्रेरक रही होगी। संहिताकरण का उद्देश्य रूढ़ि के स्थान पर लिपिबद्ध विधि नियम को ही लोकव्यवहार का आधार बनाना होता है। किंतु प्रारंभिक विधिसंहिताएँ जिस रूप में हमें उपलब्ध हैं उनसे यह स्पष्ट है कि वे संहिताएँ तत्कालीन लोकरीतियों के ही संग्रह हैं। और यह भी कि विधिनियमों को लिपिबद्ध करने के बाद भी लोकरीतियों से पूर्ण मुक्ति उपलब्ध नहीं हो सकी, क्योंकि उन संगृहीत विधिनियमों को व्यवहार में लोकरीति के ही अनुसार लाया जा सकता है।
विधिसंहिताओं का इतिहास
विधिसंहिताओं का इतिहास हमें ईसा से दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व से उपलब्ध है। उन सभी विधि-संहिताओं का संक्षिप्त परिचय देने के पूर्व कदाचित् उचित यही होगा कि हम विधि-संहिता का आधुनिक अर्थ भी समझ लें ताकि विधि-संहिता का आधुनिक अर्थ भी समझ लें ताकि विधि-संहिता तथा विधान मंडलों द्वारा विभिन्न विषयों पर पारित "स्टैटूट्स" का अंतर भी स्पष्ट हो जाए।
आधुनिक अर्थ में विधिसंहिता की संज्ञा उसी विधिसंग्रह को दी जा सकती है जिसमें संपूर्ण अधिनियमों (ऐक्ट्स) का समावेश हो और उन अधिनियमों का व्यवहृत करने के लिए किसी अन्य आधार (लोकरीति की जानकारी) की आवश्यकता न पड़े। सामान्य संविधि (स्टैटूट्स) और विधिसंहिता में अंतर के तीन आधार है।
(1) सामान्य अधिनियम किसी विषय के संपूर्ण रूप से संबंधित हो सकता है जब कि विधिसंहिता में तद्विषयक संपूर्ण चालू विधिनिय एक ही स्थान पर संगृहीत रहते हैं।
(2) विधिसंहिता में नियमों का संग्रह सुबोधता का ध्यान रखते हुए, वर्गीकृत के आधार पर किया जाता है।
(3) विधि संग्रह में भाषा की सरलता के साथ साथ स्पष्टता का भी ध्यान रखा जाता है ताकि नियमों का रूप विस्तारदोष से मुक्त संक्षिप्त होते हुए भी बहुअर्थ दोष उसमें न आ सके।
आधुनिक अर्थों में विधिसंहिता के विकास और राष्ट्रीय भावना का अन्योन्याश्रित संबंध रहा है : उदाहरण के लिए फ्रांस में कोड नेपोलियन की रचना के पीछे फ्रांसीसी क्रांति से उत्पन्न राष्ट्रीय भावना प्रेरक शक्ति थी। जर्मन कोड लगभग अपने पूर्ण रूप में यद्यपि विदेशी रोमन विधि पर ही आधारित था, तथापि सैविनी ने वोल्क-जीस्ट (जनचेतना) का ही संबल लिया था। दूसरी ओर विधिसंहिता की रचना के बाद उस समाज में राष्ट्रीय भावना के विकसित एवं व्याप्त होने में वही विधिसंहिता (सभी समान रूप से एक ही विधि के संरक्षण में होने के कारण) सहायक होती है जैसा इटली के इतिहास से सिद्ध है।
यूरोप
पश्चिम के इतिहास में सबसे प्राचीन और विस्तृत विधिसंहिता हमुराबी की संहिता मानी जाती है। ई. पू. 2100 में बेबीलोन के राजा हुमुराबी के नाम से प्रसिद्ध इस संहिता में प्रक्रिया संपत्ति तथा व्यक्ति विषयक विधिनियमों का उल्लेख है। इसके लगभग 14 शताब्दियों बाद हिब्रू भाषा में "बुक ऑव कावेनेंट" (बाइबिल के 20वें और 23वें अध्याय -"एक्सोडस") के रूप में विधिसंहिता मिलती है। इसी के एक शती बाद "बुक ऑव ला" (डेंट्रोनोमी अर्थात् द्वितीय विधि) उपलब्ध है। इन विधिसंग्रहों से इसराइल के रीतिविधि के क्रमिक विकास का परिचय मिलता है।
विधिसंहिता के इतिहास में "रोमन ट्वेल्व टेबिल्स" का महत्व अक्षुण्ण है। प्रथम तो इसलिए कि विधिसंहिता के शास्त्रीय रूप का यह उदाहरण है और दूसरे इसलिए कि इसी का विकसित रूप यूरोप के प्राय: सभी राष्ट्रों में तद्देशीय संहिताओं के रूप में प्रसारित है।
रोमन ट्वेल्व टेबिल्स की रचना के लगभग डेढ़ सौ वर्ष बाद इसमें क्षतिपूर्ति निर्धारित करने के सिद्धांत का अंश जो "लैक्स ए किला" के नाम से प्रसिद्ध है, जोड़ा गया। तदुपरांत इसमें जोड़े जानेवाले अंश "प्रिटोरियन एडिक्टा" तथा "रिसपोंसा" के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार क्रमश: जुड़नेवाले अंशों के कारण कहीं कहीं परस्पर विरोधी नियम भी सम्मिलित हो गए तथा विषय विभाजन भी अस्तव्यस्त सा हो गया। यह दोष जस्टीनियन द्वारा दूर किया गया और पूरी संहिता क्रमश: चार भागों-इंस्टीचूट्स डाइजेस्ट, कोडेक्स तथा नोवेल्स में वैज्ञानिक रूप से विभाजित कर दी गई। रोमन विधिसंहिता का यही रूप यूरोप के विभिन्न देश की संहिताओं का जनक कहा जा सकता है। उदाहरणार्थ 13 सदी में स्पेन के अलफांसों कोड के नाम से प्रसिद्ध स्पैनिश भाषा में इसी का उल्था मात्र था। सरविया नरेश स्टीफेन दुशन की विधिसंहिता (14वीं शताब्दी), बोहेमिया में कोड ऑव फर्डिनेंड (17वीं शताब्दी), रूस के जार एलेक्सिस का "डलोजेनिक" (17वीं शताब्दी), डेनमार्क नरेश क्रिश्चियन पंचम का "डेस्के लोव" (17वीं शताब्दी), स्वीडेन का "कोड फ्रेडरिक" (18वीं शताब्दी) तथा प्रशा का "गेसेटज वुश" एव "लैडरेच" (18वीं शताब्दी) इसी रोमन विधिसंहिता के आधार पर निर्मित हुए। 19वीं शताब्दी के आरंभ में फ्रांस में "कोड सिविल" तथा दंड, अपराध, व्यापार आदि विषयक अन्य संहिताओं की रचना के बाद ये नई संहिताएँ ही अन्य भावी विधिसंहिताओं की पथनिर्देशक बन गई, क्योंकि फ्रांसीसी संहिताओं का रूप अधिक विकसित विधिनियम आधुनिक परिस्थितियों के अधिक अनुकूल तथा उनका विषयविभाजन एवं भाषा अधिक सरल तथा बोधगम्य थी। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जापान, स्विटजलैंड तथा तुर्की ने अपनी विधिसंहिताओं की प्रेरणा फ्रांस से न लेकर जर्मनी की विधिसंहिता "गसेट्ज वुश" से ली।
इंगलैंड
इंगलैंड की विधिव्यवस्था रोमन विधि से भिन्न "सामान्य विधि" (कॉमन लॉ) व्यवस्था कहलाती है अर्थात् न्यायाधीशों के निर्णयों में निहित सिद्धांत ही विधिनियम हैं। कतिपय नियमों के लिपिबद्ध संग्रहों का उल्लेख इंगलैंड पर नार्मन विजय के पहले यद्यपि मिलता है जिन्हें "डूम्स" कहा जाता था, तथापि विधिसंहिता अथवा उससे मिलती जुलती भी किसी रचना के अस्तित्व का इंगलैंड में अभाव ही रहा। 19वीं शताब्दी में जेरेमी बेंथम ने विधि के संहिताकरण की आवश्यकता पर अत्यधिक बल दिया। उस आंदोलन का फल स्वयं अपने देश में प्रकट होने के पहले भारत में प्रकट हुआ और उसकी सफलता स्पष्ट होने के बाद इंगलैंड में भी वह प्रयास आरंभ हुआ। यद्यपि अब भी वहाँ कोई विधिसंहिता तो नहीं है और अब भी कुछ क्षेत्रों में सामान्य विधि ही लागू है तथापि काफी व्यापक क्षेत्र में विधि पार्लमेंट द्वारा पारित लिपिबद्ध रूप में अब उपलब्ध है।
अमरीका
अमरीका में भी सामान्य विधिव्यवस्था है। 19वीं शताब्दी में वहाँ भी एडवर्ड लिविंगस्टन तथा डेविड डडले फील्ड ने विधि के संहिताकरण की आवश्यकता पर बल दिया था। राज्य के विधिनिर्माता अंग के पूर्ण विकसित होने के बाद भावी विधिरचना तो स्पष्टतया लिपिबद्ध ही होती है किंतु सामान्य विधिनियमों को भी व्यवस्थित रूप में लिपिबद्ध करने का प्रयास 1923 में अमरीकन ला इंस्टीचूट" की स्थापना कर प्रारंभ किया गया।
चीन
चीन में भी प्राय: प्रारंभ से ही विधिनियम लिपिबद्ध रूप में प्रचलित रहे। कुछ विद्वानों का मत है कि चीनी विधिसंहिता हमुराबी से भी पूर्व की है। जो हो, अब उपलब्ध संहिता-"कोड ऑव टिंग"-600 ई. की मानी जाती है। प्राय: वही संहिता "मांचू कोड" के नाम से 17वीं शताब्दी में प्रचलित थी। यह अंग्रेजी में अनुवादित भी की जा चुकी है। वर्तमान चीन की विधिव्यवस्था का पूर्ण परिचय अभी नहीं मिल सका है।
भारत
संहिता शब्द से उसमें संगृहीत विधिनियमों के स्रोत का कोई आभास नहीं मिलता। भारत में विधिनियमों के ऐसे संग्रह को संहिता के अतिरिक्त "स्मृति" के नाम से संबोधित किया जाता है। इस "स्मृति" शब्द से विधिनियमों के स्रोत का भी स्पष्टीकरण हो जाता है। भारतीय शास्त्रकारों के मत से अन्य सभी प्रकार के ज्ञान की भाँति मनुष्य के कर्तव्याकर्तव्य के विधान का भी स्रोत चूँकि श्रुति ही हैं अत: विधिसंहिताओं का आधार उन संहिताकारों की स्मरणशक्ति ही है। इसी आधार पर मनुसंहिता का नाम मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यसंहिता का नाम याज्ञवल्क्य स्मृति, आदि है।
इन्हें भी देखें
- विधिशास्त्र (Jurisprudence)