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राजस्व मंडल, राजस्थान

Baratu.baysaku

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भूमि संबंधी विवाद अत्‍यन्‍त जटिल होते हैं। भूमि संबंधी तथ्यों को क्षेत्र में जा कर उपलब्‍ध तथ्‍यों के ठोस आधार पर अनुभवी अधिकारियों द्वारा ही ठीक तरह समझा जा सकता है। किन्तु चूंकि भूमि संबंधी मामले राज्‍य की अधिकांश कृषि आश्रित आम जनता से सीधा संबंध रखते हैं, उनसे राज्‍य की, विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रों की, शान्ति एवं व्‍यवस्‍था के प्रश्न भी जुड़े हैं। भूमि सम्बन्धी विवादों में फंसे गरीब और अशिक्षित किसानों को, अनावश्‍यक कानूनी औपचारिकताओं में उलझाए बिना, सस्‍ता, शीघ्र और सुलभ न्‍याय मिले, इन सभी आशाओं और विश्‍वासों को पूरा करने के लिए राजस्थान सरकार द्वारा राजस्‍व मंडल, अजमेर को एक अधिष्‍ठान-न्यायालय बनाया गया है।[1]

राजस्व मुकद्दमों के निपटारे के लिए यह राजस्थान का सर्वोच्च अपील न्यायालय है जिसके निर्णय को केवल उच्च न्यायालय जोधपुर/जयपुर या उच्चतम न्यायालय दिल्ली में ही चुनौती दी जा सकती है। इसके अध्यक्ष और सदस्य मिल कर भूमि से सम्बंधित सभी विवादों का निपटारा राजस्व रिकॉर्ड आदि का अध्ययन कर करते हैं।

राजस्व विभाग के प्रथम अध्यक्ष ब्रजचंद्र शर्मा थे।

राजस्व मुकद्दमों के निपटारे की प्रक्रिया

अजमेर में राजस्थान राजस्व मंडल का मुख्यालय है, जयपुर में इसकी सर्किट बेंच है। राजस्व मंडल के सदस्य अपना चल-न्यायालय राज्य के संभागीय मुख्यालयों पर भी नियमित रूप से लगाते हैं ताकि ग्रामीण परिवादियों को अजमेर या जयपुर न आना पड़े और उनके निकटतम स्थान पर ही उनके मुकद्दमे की सुनवाई हो जाए|

राजस्थान में १९४७ में भूमि सम्बन्धी वास्तविकताएं

भारत-संघ में शामिल होते समय राजस्‍थान की जनसंख्‍या 201.5 लाख थी, जिसमें 1951 में 8.95 लाख शिक्षित नागरिक थे। उसके समूचे भू क्षेत्र 3.40 लाख वर्ग कि॰मी॰ में से मात्र 0.01 लाख वर्ग किमी ही शहरी क्षेत्र था। तब 32,240 गांवों में राजस्‍थान की 83.7 प्रतिशत आबादी रहती थी। इनमें से भी 76.7 प्रतिशत आबादी केवल कृषिकार्य में लगी हुई थी। उसके समस्‍त गांवों में से 67 प्रतिशत गांव 500 से भी कम आबादी वाले थे। राजस्‍थान की भूमि का 56.8 प्रतिशत भाग एकदम सूखा रेगिस्तानी क्षेत्र था। राजस्‍थान वस्‍तुतः हजारों छोटी छोटी ढाणियों, गुवाडों, गांवों तथा बिखरी हुई आबादी-बस्तियों का प्रदेश था। राजस्‍थान के बहुत बड़े भाग में सर्वेक्षण-कार्य और भूमि-बन्‍दोबस्‍त नहीं हुआ था। जब भू अभिलेख निदेशालय की स्‍थापना की गई थी, उस समय 3,387,94 वर्ग किमी में से केवल 2,136,42 वर्ग किमी क्षेत्र ही ‘बन्‍दोबस्‍त’ के अन्‍तर्गत आ पाया था। यहां तक कि पटवार-संस्‍था केवल 1,736,02 वर्ग किमी क्षेत्र में ही उपलब्‍ध थी।[2]

राजस्थान में ज़मींदारी प्रथा और किसान-का शोषण

स्वाधीनता से पूर्व राजा या शासक ही अन्तिम अपील का न्‍यायालय था। वही स्‍वेच्‍छा से न्‍यायाधीशों को नियुक्‍त करता एवं हटाता था। समस्‍त भूमि का 60.7 प्रतिशत भाग जागीरदारों के तथा शेष 39.3 प्रतिशत भाग खालसा अर्थात् शासक के पास था। जागीरदार असल में समस्‍त कृषक से सम्बद्ध समस्‍याओं का स्रोत थे। अन्‍य बिचौलिये- ज़मींदार एवं बिस्‍वेदार भी उनके शोषण के ही माध्यम थे। अन्‍यायपूर्ण राजस्‍व दरों, तरह तरह के करों तथा फिरौतियों आदि के लिए आम किसान पर निर्बाध अत्‍याचार किये जाते थे।

नये राज्‍य का 207920 वर्ग किमी भाग विविध प्रकार के जागीरदारों के अधिकार में था। जोधपुर और जयपुर में तों क्रमशः उन रियासतों का 82 तथा 65 प्रतिशत भाग इन बिचौलियों के पास था। भारत संघ में विलीन होने वाली अधिकांश राजपूताना रियासतों में किसी न किसी प्रकार के राजस्‍व-कानून थे, किन्‍तु ये शोषणकारी नीतियों-रीतियों को ही कानूनी जामा पहनाने की व्यवस्था थी।

काश्‍तकार खातेदारी अधिकारों की सुरक्षा, लगान की स्थिरता और उपयुक्‍तता का ‘क ख ग’भी नहीं जानता था। सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को भूमि खेती के लिए दे दी जाती थी, जिसका परिणाम होता था- अनुचित प्रतियोगिता, अधिकतम लगान वसूली और भूमि गुणवत्‍ता में गिरावट. विभिन्‍न्‍ा देशी रियासतों में अलग अलग कानून थे।

कुछ राज्‍यो में तो मिश्रित दीवानी एवं राजस्‍व कार्यालयों को ही बोली लगाकर वर्ष भर के लिए पट्टे पर उठा दिया जाता था। पट्टे या ठेके को लेने वाला पट्टेदार कृषक से मनमानी वसूली करता था। जब उसके कुकृत्‍यों के विरूद्व जन आक्रोश व्‍यापक हो जाता, तो शासक उस पट्टेदार को उगाही हुई रकम लौटाने तक बंदी बना लेता. उसे भारी जुर्माना, जिसे उसने पहले से ही गरीब काश्‍तकारों से वसूला था, देने पर ही छोड़ा जाता. प्रायः उसे या उसके वारिस को पुनः नियुक्‍त कर दिया जाता था। शासक वस्‍तुतः काश्‍तकारों के शोषण में स्वयं भागीदार था।[2]

राजस्थान में १९४७ के बाद भूमि सम्बन्धी अव्यवस्थाएं

स्‍वाधीनता प्राप्ति तथा देशी रियासतों के भारत संघ में विलयन के सन्‍दर्भ में, कानूनी अधिकार मिलते देख कर बिचौलियों ने खातेदार-किसानों को क्रूरता एवं स्‍वेच्‍छाचारी तरीकों से बेदखल करना शुरू कर दिया। लड़ाई-झगडे, संघर्ष और विवाद बढ़ने लगे तथा कानून और व्‍यवस्‍था की स्थिति बिगड़ने लगी।

किसानों को भारी तादाद में बेदखल होते देख कर, राजस्‍थान सरकार ने उसकी रक्षार्थ अनेक अध्‍यादेश और अधिनियम जारी किये। किन्‍तु समस्‍त राजस्‍थान के लिए एक समान कानूनी संस्‍था के अभाव में किसान एवं आम जनता सन्‍देह, विभ्रम तथा अस्‍पष्‍टता से ग्रस्त हो गई। स्‍वयं अधिकारीगण भी उनके अर्थ और व्‍याख्‍या के विषय में सुनिश्चित नहीं थे। भूलेखों में समानता तथा एक कार्यान्‍वयनकारी प्रभावी प्रशासनिक संस्‍था का अभाव था।

देशी रियासतों का भारत-संघ में एकीकरण स्‍वयं में चुनौतीपूर्ण काम था।

कर्मचारियों की सेवा शर्तों, वेतनों, कार्यों की प्रकृति आदि में समरूपता का अभाव था। वित्‍तीय मामलों में भी अराजकता थी। राजस्‍थान की राजधानी भी एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान पर बदली जाती रही। यद्यपि एकीकरण का मुख्‍य स्रोत भारत सरकार थी, किन्‍तु देशभक्ति का शंख फूंकने वाले शक्तिशाली राजनैतिक संगठनों के अभाव में नई राजस्‍थान सरकार, आन्‍तरिक दृष्टि से दुर्बल थी। प्रजामंडल भी आम जनता के जीवन में गहरी जड़ें नहीं जमा पाये थे। वे गुटों में बंटे हुए थे तथा सामन्‍तशाही, ईर्ष्‍या और विद्वेष से सराबोर थी। वास्‍तव में देखा जाये तो भारत की स्‍वाधीनता के प्रारम्भिक बरसों में काश्‍तकारों पर जागीरदारों और जमींदारों के अत्‍याचार चरम सीमा पर पहुँच गये थे।[2]

आन्‍तरिक संवैधानिक व्‍यवस्‍था

राजप्रमुख की व्यवस्था और भूमि सम्बन्धी उत्तरदायित्व

विलीनीकरण-प्रपत्रों में एक उपधारा यह जोड़ी गई थी कि “राजप्रमुख तथा मंञिमंडल समय समय पर दिए जाने वाले भारत सरकार के निर्देशों एवं नियन्‍त्रण के अधीन कार्य करेंगे ”. इसके अनुसार कार्यकुशलता से राजस्‍थान के एकीकरण तथा लोकतन्‍त्रीकरण की प्रक्रिया को पूरा करना शुरू कर दिया गया।

उक्‍त उपधारा ने, जो तत्‍कालीन लोकप्रिय नेताओं की सहमति से प्रवर्तित की गई थी, केन्‍द्रीय सरकार को अन्‍तरिम काल में राजस्‍थान के एकीकरण, सुदृढीकरण तथा सुशासन स्‍थापना करने का अवसर प्रदान किया। यह व्‍यवस्‍था की गयी कि सभी विधियों, बजट, उच्‍च न्‍यायालय के मुख्‍य न्यायाधीश, राजस्‍व मंडल के सदस्‍यों, लोक सेवा आयोग के सदस्‍यों आदि की नियुक्ति में भारत सरकार की स्‍वीकृति ली जायेगी.

इस उत्‍तरदायित्‍व का निर्वहन करने के लिए केन्‍द्र सरकार ने कानून एवं व्‍यवस्‍था, एकीकरण, वित्‍त राजस्‍व आदि विभागों में परामर्शदाता (Advisors) नियुक्‍त किये। ये उत्‍तर प्रदेश तथा पड़ौसी प्रान्‍तों से लाये गये थे। अखिल भारतीय महत्‍व के मामलों में इन विभागों में निर्णय उन्हीं के माध्‍यम से लिया जाता था। ये मंञिमंडल की बैठकों में भी भाग लेते थे तथा महत्‍वपूर्ण मामलों में अपनी राय भी व्‍यक्‍त करते थे। उन्‍हे मत (Vote) देने का अधिकार नहीं था।

धीरे धीरे देशी रियासतें राजस्‍थान के रूप में भारत संघ की, अन्‍य प्रान्‍तो के समान, अंगात इकाई बन गईं। भारत के नये संविधान को स्‍वीकार करने का अधिकार राजप्रमुख को दिया गया। 23 नवम्‍बर 1949 को राजप्रमुख ने उदघोषणा जारी की कि अब से संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान ही राजस्‍थान कि लिए संविधान होगा तथा उसके प्रावधान ही सर्वोपरि होंगें.[2]

राजस्थान में नई प्रशासनिक-व्यवस्था

वृहत्‍तर राजस्‍थान की इकाई (संघ) ने 7 अप्रैल 1949 से भारत सरकार के निर्देशन में कार्य करना शुरू किया था। अन्तिम संविदे (Covenant) के अन्‍तर्गत महामहिम राजप्रमुख ही राजस्‍थान की एकमात्र विधि निर्मात्री तथा कार्यकारिणी सत्‍ता था। भारत के संविधान के प्रवर्तित होने तक यही व्‍यवस्‍था लागू रही।

प्रथम लोकप्रिय मंञिमंडल ने, प्रमुख निर्वाचन के पश्‍चात 3 मार्च 1952 को कार्यभार ग्रहण किया था। अनुच्‍छेद 3 के अधीन रहते हुए नये भारतीय संविधान ने प्रान्‍तों (एवं देशी रियासतों की इकाईयों) को राज्‍यों के समस्‍त अधिकार (राज्‍य सूची) सौंप दिये। राज्‍य सूची के विषयों में, अन्‍य के अलावा, उल्‍लेखनीय हैं- न्‍याय, सर्वोच्‍च न्‍यायालय एवं उच्‍च न्‍यायालय के गठन को छोड़ कर समस्‍त न्‍यायालय, राजस्‍व न्‍यायालय, राजस्‍व, भूमि अधिकार, भू-स्‍वामियों एवं खातेदारों के मध्‍य सम्‍बन्‍ध, कृषि भूमि हस्‍तान्‍तरण, बंटवारा आदि, भूमि पर ऋण, कूंत, वसूली आदि, भू अभिलेख, सर्वेक्षण, बन्‍दोबस्‍त आदि। [3]

संभाग, जिले और उपखंड

तदनुसार राजस्‍थान को पांच संभागों (Divisions) तथा 24 जिलों (Districts) में विभाजित किया गया, जिलों में विभिन्न उपखंडों (Sub Divisions) और उनके नीचे तहसीलों का गठन भी किया गया। राज्‍य की मूल एवं प्रमुख समस्‍या कृषि एवं भूमि सुधारों से संबंधित थी। उस समय समरूप खातेदारी विधियां और समरूप क़ानून राजस्‍थान के प्रशासनिक जीवन की प्रमुख आवश्‍यकता थी, इसलिए राज्य के भूमि-प्रशासन को तुरन्‍त पुनर्गठित किया जाना था। इस दिशा में राजस्‍व मंडल का पुनर्गठन किया गया। समस्‍त राजस्‍थान अर्थात् राजपूताने की सभी एकीकृत रियासतों के लिए एक राजस्‍व मंडल की स्‍थापना की गई।[2]

राजस्‍व मंडल की स्‍थापना

पूर्व समस्‍याओं को हल करने के लिये राजस्‍थान में शामिल होने वाली रियासतों के उच्‍च बन्‍दोबस्‍त और भू-अभिलेख विभाग का पुनर्गठन एवं एकीकरण किया। उस समय इस विभाग का एक ही अधिकारी था जो कई रूपों में कार्य करता था, यथा, बन्‍दोबस्‍त आयुक्‍त, भू-अभिलेख निदेशक, राजस्‍थान का पंजीयन महानिरीक्षक एवं मुद्रांक अधीक्षक आदि। एक वर्ष बाद, मार्च 1950 में भू-अभिलेख, पंजीयन एवं मंद्रा विभागों को बन्‍दोबस्‍त विभाग से पृथक कर दिया गया। भू अभिलेख विभाग के निदेशक को ही पदेन मुद्रा एवं पंजीयन महानिरीक्षक बना दिया गया। भू-अभिलेख निदेशक की सहायता के लिये तीन सहायक भू अभिलेख निदेशक नियुक्‍त किये गये। इन सभी निकाय गठित किया गया। इसे राजस्‍व मंडल कहा गया। इसका कार्य राजस्‍व वादों का भय एवं पक्षपात रहित होकर उच्‍चतम स्‍तर पर निर्णय करना था।[2]

स्थापना तिथि

संयुक्‍त राजस्‍थान राज्‍य के निर्माण के पश्‍चात महामहिम राजप्रमुख ने 7 अप्रैल 1949 को अध्‍यादेश की उद्घोषणा द्वारा राजस्‍थान के राजस्‍व मंडल की स्‍थापना की.[2] तथा प्रथम अध्यक्ष श्री बृजचंद शर्मा बने |

कार्यक्षेत्र

यह अध्‍यादेश 1 नवम्‍बर 1956 को प्रवर्तित हुआ था उसने बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, मत्‍स्‍य तथा पूर्व राजस्‍थान के राजस्‍व मंडलों का स्‍थान ले लिया। ये राजस्‍व मंडल विविध विधियों के अधीन रियासतों में कार्य कर रहे थे। सम्‍पूर्ण राजस्‍थान के लिए एकीकृत विधियां बनने तक ये कार्य करते रहे। 1 नवम्‍बर, 1949 से इन राजस्व मंडलों ने कार्य करना बन्‍द कर दिया। इनके पास बकाया वादों को संभाग के अतिरिक्‍त आयुक्‍तों को स्‍थानान्‍तरित कर दिया गया। इन वादों में जो अपील, पुर्नव्‍याख्‍या (रिवीजन) आदि से संबंधित विवाद थे, उन्हें नये राजस्‍व मंडल, राजस्‍थान को पुनः स्‍थानान्‍तरित कर दिया गया। इस प्रकार राजस्‍व मंडल, राजस्‍थान, राजस्‍व मामलों में अपील रिवीजन (पुर्नव्‍याख्‍या) तथा सन्‍दर्भ (रेफेरेन्‍स) का उच्‍चतम न्‍यायालय बन गया। साथ ही उसे भू-अभिलेख प्रशासन तथा अन्‍य विधियों का प्रशासन भी सौंपा गया।[2]

उद्देश्य

अधिकांश राजस्‍व अधिकारी, कार्यपालिका अधिकारी तथा न्‍यायालय होने के नाते 'द्विपक्षीय' कार्य करते हैं। इसलिये यह आवश्‍यक है कि उनके व्‍यक्तिगत निर्णयों को किसी बहुल निकाय के विचार-विमर्श से निर्णयों का सहारा दिया जाए. राजस्‍व मंडल को डांवाडोल राजनीति के पक्षपात से मुक्‍त, प्रशासनिक अनुभव का अत्‍यन्‍त समृद्ध न्‍यायिक निकाय बनाया गया है। ऐसा गरीब, अनपढ, अबोध तथा दूरस्‍थ काश्‍तकारों के हितों की रक्षा के लिए किया गया।

उनके लिये न्‍यायपालिका और कार्यपालिका को पृथक रखने का सुप्रसिद्ध 'शक्ति-पृथक्‍करण' का सिद्धांत भी एक तरफ कर दिया गया।

दीवानी न्‍यायालयों की न्‍यायिक प्रक्रिया प्रायः धीमी, खर्चीली तथा जटिलताओं से परिपूर्ण होती है। उस कारण सामान्‍य किसान को उसके कष्‍टों एवं समस्‍याओं से वांछनीय छुटकारा नहीं दिला सकती. अतएव राजस्‍व मंडल को एक अधिकरण (ऑथोरिटी) के रूप में अलग रखा गया है। गरीब काश्तकार को भूमि सम्बन्धी विवाद में शीघ्र और सस्ता न्याय दिलाना ही इसका एकमात्र उद्देश्य और लक्ष्य है। [1]

सन्दर्भ-ग्रन्थ

'The Board of Revenue for Rajasthan: An organizational and Administrative Study' : S L Verma: S. Chand & company, Ram Nagar, New Delhi- 110055 : First Edition: 1974

सन्दर्भ

  1. The Board of Revenue for Rajasthan: An organizational and Administrative Study : S L Verma: S. Chand & company, Ram Nagar, New Delhi- 110055 : First Edition: 1974
  2. वही
  3. वही/

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