राजनयिक मान्यता
राजनयिक मान्यता एक राजनैतिक क्रिया है, जिसके द्वारा एक राष्ट्र मान्यता देता है, एक दूसरे राष्ट्र की, या उसकी सरकार की किसी क्रिया की, या स्थिति की, जिसके द्वारा यथार्थता या सत्यता प्रमाणित होती है, एवं उसकी मंशा प्रकट होती है, उस मान्यता के घरेलू एवं अन्तर्राष्ट्रीय वैधानिक निष्कर्ष पर। मान्यता वास्तविक या विधितः, सामान्यतः मान्यता देने वाली सरकार के एक कथन द्वारा दी जा सकती है। राज्य कहे जाने से पूर्व
परिचय
किसी राज्य को मान्यता प्रदान करने से तात्पर्य उस कार्य से है जिसके द्वारा कोई राज्य यह स्वीकार करता है कि उसने जिस राज्य के राजनीतिक अस्तित्व को अपनी मान्यता प्रदान की है उसमें राजत्व के गुण विद्यमान हैं। इसमे अंतरराष्ट्रीय परिवार का कोई वर्तमान सदस्य किसी राज्य अथवा किसी राजनीतिक दल को विधिवत् अपनी स्वीकृति प्रदान करता है। इसका अर्थ यह है कि मान्यता प्रदान करनेवाले राज्य के मत से उक्त राज्य अंतरराष्ट्रीय अधिकारों और कर्तव्यों का सामान्य अधिकारी है और उसमें अंतरराष्ट्रीय विधान के अनुसार प्राप्त होनेवाले दायित्वों को वहन करने की सामर्थ्यं है।
मान्यता के परिकल्प या सिद्धांत
राज्य मान्यता के दो परिकल्प या सिद्धांत हैं-1. संघटना-निर्भर परिकल्प और 2. घोषणात्मक अथवा घोषणात्मक परिकल्प। संघटना-निर्भर परिकल्प के अनुसार कोई भी राज्य केवल मान्यता के द्वारा ही अंतरराष्ट्रीय राज्य बन जाता है। अर्थात् केवल मान्यता के कार्य द्वारा ही किसी राज्य को राज्यत्व मिल जाता है और वहाँ की नई सरकार को अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में अधिकार प्राप्त हो जाता है। हीगेल इस परिकल्प का सर्वप्रथम व्याख्याता था। तदनंतर हालैंड, ओपेनहाइम तथा अन्य लोगों ने उसका समर्थन किया।
दूसरे परिकल्प के अनुसार कोई भी राज्य अपने अधिकार की बिना पर अंतरराष्ट्रीय पद और राष्ट्रपरिवार की सदस्यता प्राप्त कर लेता है। राज्यमान्यता का कार्य इस स्थापित सत्य की पुष्टि की विधिवत् मान्यतामात्र है। हाल, फिशर, ब्रेयर्ली तथा अन्य लोग इस परिकल्प के व्याख्याता हैं।
इन दोनों मतों में से उचित मत यह प्रतीत होता है कि राज्यमान्यता संघटना-निर्भर भी है और घोषणात्मक भी। भिन्न भिन्न तथ्यसमूहों के अनुसार किसी पर पहला परिकल्प लागू हो सकता है, किसी पर दूसरा। किसी राजनीतिक समुदाय का अस्तित्व है, इस सामान्य तथ्य की घोषणा मात्र करना ही राज्यमान्यता है। राज्यत्व की ऐसी घोषणा होने से मान्यता के कारण कुछ वैधानिक स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। लेंटरपाश और स्टार्क जैसे आज के अधिकांश लेखक इस मत का प्रतिपादन करते हैं।
मान्यता देना या न देना राज्यों की इच्छा पर निर्भर करता है। पर यह इच्छा मनमानी नहीं होनी चाहिए। कानूनी सिद्धांतों के अनुसार ही राज्यमान्यता देनी या न देनी चाहिए। हाँ, यह अवश्य है कि राजनीतिक और कूटनीतिक विचारसरणी राज्यमान्यता की स्वीकृति या अस्वीकृति पर अपना प्रभाव डालती ही है।
स्पष्ट और अंतर्भूत मान्यता
मान्यता दो प्रकार की हो सकती है - या तो स्पष्ट होगी या संकेतित। स्पष्ट मान्यता उस समय होती है जब मान्यता का विचार प्रकट करने के लिए विधिवत् कोई विज्ञप्ति निकाली जाती है या घोषणा की जाती है। जैसे, उस राज्य को या उस सरकार को इस आशय का पत्र लिखना जिसने मान्यता के लिए प्रार्थना की हो। संकेतित मान्यता वह है जहाँ स्पष्ट रूप से तो मान्यता प्रकट नहीं की जाती, परंतु अपने कार्यों से यह बात प्रकट कर दी जाती है कि मान्यता की स्वीकृति असंदिग्ध है; जैसे, दो राज्यों के बीच व्यापारिक संधि हो जाना अथवा दोनों राज्यों के बीच विधिवत् दूतावासीय संबंध स्थापित कर लेना।
वास्तविक मान्यता और विधिक मान्यता
विधिक मान्यता का अर्थ यह है कि मान्यता देनेवाले राज्य के अनुसार जिस राज्य को अथवा जिस सरकार को मान्यता प्रदान की जा रही है वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय में सक्रिय भाग लेने के लिए अंतरराष्ट्रीय विधान में प्रतिपादित आवश्यकताओं की विधिवत् पूर्ति करता है। वास्तविक मान्यता का अर्थ यह है कि मान्यता देनेवाले राज्य के मतानुसार जिस राज्य को अथवा जिस सरकार को मान्यता प्रदान की गई है, वह अस्थायी रूप से अल्प काल के लिए उन आवश्यकताओं की वस्तुत: पूर्ति करता है, यद्यपि सारी आवश्यकताएँ उपस्थित नहीं है और उक्त राज्य अभी पर्याप्त दृढ़ता प्राप्त नहीं कर सका है। वास्तविक मान्यता अल्पकालीन होती है और वह उस समय लौटा ली जा सकती है, जब वे आवश्यकताएँ, जिनका मान्यता के लिए पूरा होना अनिवार्य है, बद में भी पूरी नहीं हो पातीं। विधिक मान्यता अंतिम एवं स्थायी होती है और एक बार दे देने के बाद वह लौटाई नहीं जा सकती। कई मामलों में यह बात स्वीकार कर ली गई है कि जहाँ तक इसके कानूनी परिणामों का संबंध है, वहाँ तक वास्तविक मान्यता और विधिक मान्यता में कोई अंतर नहीं है।
राज्यों के नए अध्यक्षों और नई सरकारों की मान्यता
जब अंतरराष्ट्रीय विशिष्टत्व प्राप्त किसी राज्य के अध्यक्ष पद में सामान्य और वैधानिक पद्धति से परिवर्तन होता है, तो अन्य राज्यों को इसकी सूचना दे दी जाती है। वे राज्य उक्त राज्य के नए अध्यक्ष को अपनी ओर से बधाई का संदेश भेजकर उसे अपनी मान्यता प्रदान करते हैं। इसमें कठिनाई तभी होती है जब क्रांति के द्वारा अध्यक्ष के पद में अथवा सरकार में परिवर्तन होता है। ऐसे मामलों में दो प्रकार के परीक्षण काम में लाए जाते हैं : पहला परीक्षण तो यह है कि क्या नई सरकार वास्तविक सरकार है वास्तविक सरकार है, जिसका राज्य पर प्रभावकारी नियंत्रण है और क्या वह उक्त प्रदेश के पर्याप्त क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित किए हुए है तथा उसका कोई प्रभावकारी विरोधी पक्ष नहीं है। यह बाह्य विषयक (आब्जेटिव) परीक्षण कहलाता है। दूसरा परीक्षण यह होता है कि क्या नई सरकार उन दायित्वों को पूरा करने में समर्थ है जो अंतरराष्ट्रीय विधान द्वारा तथा राष्ट्रसंघ के अधिकारपत्र द्वारा निर्धारित हैं? इसे आंतरिक या विषयगत परीक्षण कहते हैं। जिन राज्यों से नए राज्य अथवा सरकार को मान्यता प्रदान करने के लिए कहा जाता है, वे ऐसे मामलों में वहीं अपना निर्णय स्थगित रखते हैं जहाँ सरकार स्थायी नहीं होती अथवा जहाँ प्राय: ही क्रांतियाँ होती रहती हैं जिनके कारण सरकार बदलती रहती हैं। परंतु किसी सरकार को मान्यता देने अथवा न देने से स्वयं राज्य की मान्यता का कोई संबंध नहीं है। राज्य को तो अंतरराष्ट्रीय इकाई के रूप में मान्यता प्राप्त ही रहती है।
मान्यता का पूर्वकालिक प्रभाव (Retroactivity of recognition)
कई देशों में प्रचलित परिपाटी के अनुसार राज्यों को दी गई मान्यता पूर्वकालिक प्रभाव रखती है और न्यायालय नए राज्य या नई सरकार के उन सभी कार्यों का वैध स्वीकार रकते हैं जो नवमान्य सरकार द्वारा उसके हाथ में सत्ता आने के प्रारंभ से किए जाते हैं।
मान्यता के परिणाम - किसी नए राज्य अथवा नई सरकार को मान्यता मिलने से निम्नलिखित मुख्य परिणाम होते हैं :
(1) मान्यता प्राप्त करने के उपरांत - उक्त राज्य को अथवा सरकार को यह क्षमता मिल जाती है कि वह मान्यता प्रदान करनेवाले राज्यों के साथ कोई संधि कर सके अथवा कूटनीतिक संबंध स्थापित कर ले।
(2) मान्यताप्राप्त उक्त राज्य को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि यह मान्यता देनेवाले राज्यों के न्यायालयों में मुकदमा दायर कर सके।
(3) मान्यताप्राप्त राज्य को मान्यता प्रदान करनेवाले राज्यों के न्यायालयों के अधिकारक्षेत्र से अपने संबंध में तथा अपनी संपत्ति के संबंध में उन्मुक्ति या छूट प्राप्त हो जाती है।
(4) मान्यताप्राप्त राज्य को यह अधिकार भी प्राप्त हो जाता है कि मान्यता देनेवाले किसी राज्य के सीमाक्षेत्र में यदि उसकी पूर्ववर्ती सरकार की कोई संपत्ति रही हो तो वह उसकी माँग कर उसे अधिगृहीत कर सके।
युद्धस्थिति और राज्यद्रोह की मान्यता
यदि किसी देश में गृहयुद्ध छिड़ जाए तो कुद शर्तें पूरी होने पर विद्रोहियों को युद्धरत घोषित किया जा सकता है, जैसे-
(1) व्यापक शत्रुकार्य के साथ गृहयुद्ध।
(2) राजद्रोहियों द्वारा राष्ट्रीय सीमाक्षत्र के पर्याप्त क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित कर लेना और उसपर व्यवस्थित शासन प्रबंध चलाना।
(3) राज्यद्रोहियों द्वारा किसी उत्तरदायी सत्ता के अधीन युद्ध के नियमों का पालन करना।
(4) अन्य-तीसरे-राज्यों के लिए गृहयुद्ध के संबंध में अर्थात् अपने रुख की व्याख्या करने की व्यावहारिक आवश्यकता का उत्पन्न हो जाना।
यदि ऐसी स्थिति हो कि इनमें से केवल थोड़ी सी ही शर्तें पूरी होती हों तो अन्य राज्य विद्रोहियों को राज्यद्रोही की मान्यता प्रदान कर सकते हैं और उन्हें कानून-भंग-कर्ता न मानकर उस क्षेत्र का वास्तविक अधिकारी मान सकते हैं जहाँ उनका अधिकार स्थापित हो गया हो।
मान्यता का प्रत्याहार
यों समान्यत: कोई राज्य यदि किसी राज्य को मान्यता दे देता है तो वह किसी राजनीतिक उद्देश्य से उसकी मान्यता वापस नहीं ले सकता। परंतु कुछ विशेष परिस्थितियों में मान्यता वापस ली जा सकती है। उदाहरणार्थ, यदि कोई राज्य अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है, अथवा उसकी सरकार प्रभावशून्य हो जाती है, अथवा गृहयुद्ध में कोई युध्यमान पक्ष पराजित हो जाता है तो ऐसी स्थिति में राज्य की मान्यता वापस ली जा सकती है।