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रम्माण उत्सव

रम्माण उत्सव

रम्माण, उत्तराखंड के चमोली जिले के सलूड़ गांव में प्रतिवर्ष वैशाख (अप्रैल) में आयोजित होने वाला उत्सव है। यह उत्सव युनेस्को की विश्व धरोहर सूची में सम्मिलित है। [1] रामायण से जुड़े प्रसंगों के कारण इसे “रम्माण” उत्सव कहते हैं। रामायण को स्थानीय गढ़वाली भाषा मे 'रम्माण' भी बोला जाता है। राम से जुड़े प्रसंगों के कारण इसे लोक शैली में प्रस्तुतिकरण, लोकनाट्य, स्वांग, देवयात्रा, परमपरागत पूजा, अनुष्ठान, भूमियाल देवता की वार्षिक पूजा, गांव के देवताओं की वार्षिक भेट आदि आयोजन इस उत्सव में होते हैं। इसमें विभिन्न चरित्र लकड़ी के मुखौटे पहनते हैं जिन्हें 'पत्तर' कहते हैं। पत्तर शहतूत (केमू ) की लकड़ी पर कलात्मक तरीके से उत्कीर्ण किये होते हैं।

सलूड़ गाँव के अलावा डुंग्री, बरोशी, सेलंग गांवों में भी रम्माण का आयोजन किया जाता है। इसके अलावा नंदानगर के लांखी गांव में द्वारि माता का द्योरा में जो पात्र हैं हद तक इनसे मिलते जुलते है असल में लाँखी की द्वारि माता का असली स्थान नंदानगर के घूनी गांव में है यही से माता किन्ही कारणों से भाग कर लांखी गांव में गई है इसके पीछे बहुत बड़ी कहानी है , इन सब में सलूड़ गांव का रम्माण ज्यादा लोकप्रिय है। इसका आयोजन सलूड़-डुंग्रा की संयुक्त पंचायत करती है। रम्माण मेला कभी 11 दिन तो कभी 13 दिन तक भी मनाया जाता है। यह विविध कार्यक्रमों, पूजा और अनुष्ठानों की एक शृंखला है। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, गायन, मेला आदि विविध रंगी आयोजन होते हैं। इसमें परम्परागत पूजा-अनुष्ठान तथा मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित होते है। यह भूम्याल देवता के वार्षिक पूजा का अवसर भी होता है एवं परिवारों और ग्राम-क्षेत्र के देवताओं से भेंट करने का मौका भी होता है।

रम्माण, सलूड़ गांव की 500 वर्ष से भी ज्यादा पुरानी परम्परा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन यूनेस्को द्वारा साल 2009 में इस रम्माण को विश्व की सांस्कृतिक धरोहर का दर्जा दिया गया था। ७ जोड़े पारंपरिक ढोल-दमाऊं की थाप पर मोर-मोरनी नृत्य, बण्या-बाणियांण, ख्यालरी, माल नृत्य सबको रोमांचित करने वाला होता है और कुरजोगी सबका मनोरंजन करता है।

मान्यता है कि आदिगुरु शंकराचार्य जी ने सनातन धर्म में नई जान फूकने के लिए पूरे देश में चार मठों की स्थापना की। जोशीमठ के आस पास, शंकराचार्य के आदेश पर उनके कुछ शिष्यों ने गांव-गांव में जाकर पौराणिक मुखौटों से नृत्य करके लोगों में चेतना जगाने का प्रयास किया था जो धीरे-धीरे इन क्षेत्रों में इस समाज का अभिन्न अंग बन गया।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ