मोमिन ख़ान मोमिन
हकीम हकीम मोमिन ख़ाँ मोमिन | |
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स्थानीय नाम | مومِن خاں مومِن |
जन्म | मोहम्मद मोमिन 1801 कूचा चेलान, दिल्ली |
मौत | 14 मई 1852 दिल्ली |
कब्र | मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज की पार्किंग |
दूसरे नाम | मोमिन |
पेशा | शायर, हकीम |
काल | मुग़ल काल |
विधाs | दर्शन, अध्यात्मवाद |
उल्लेखनीय काम | कुल्लियाते-मोमिन |
रिश्तेदार | सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम |
मोमिन ख़ाँ मोमिन (उर्दू: مومِن خاں مومِن) भारत के एक मशहूर उर्दू कवि थे। ये हकीम, ज्योतिषी और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। कहा जाता है मिर्ज़ा ग़ालिब ने इनके शेर 'तुम मेरे पास होते हो गोया जब कोई दूसरा नही होता' पर अपना पूरा दीवान देने की बात कही थी।
जीवन
हकीम मोमिन ख़ाँ मोमिन का ताल्लुक़ एक कश्मीरी घराने से था। इनका असल नाम मोहम्मद मोमिन था। इनके दादा हकीम मदार ख़ाँ शाह आलम के ज़माने में दिल्ली आए और शाही हकीमों में शामिल हो गए। मोमिन दिल्ली के कूचा चेलान में 1801 ई॰ में पैदा हुए। इनके दादा को बादशाह की तरफ़ से एक जागीर मिली थी जो नवाब फ़ैज़ ख़ान ने ज़ब्त करके एक हज़ार रुपये सालाना पेंशन मुक़र्रर कर दी थी। ये पेंशन इनके ख़ानदान में जारी रही। मोमिन ख़ान का घराना बहुत मज़हबी था।
इन्होंने अरबी की शिक्षा शाह अबदुल क़ादिर देहलवी से हासिल की। फ़ारसी में भी इनको महारत थी। धार्मिक ज्ञान की शिक्षा इन्होंने मकतब में हासिल की। सामान्य ज्ञान के इलावा इनको चिकित्सा, ज्योतिष, गणित, शतरंज और संगीत से भी दिलचस्पी थी। जवानी में क़दम रखते ही इन्होंने शायरी शुरू कर दी थी और शाह नसीर से संशोधन कराने लगे थे लेकिन जल्द ही इन्होंने अपने अभ्यास और भावनाओं की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति के द्वारा दिल्ली के शायरों में अपनी ख़ास जगह बना ली। आर्थिक रूप से इनका सम्बंध मध्यम वर्ग से था। ख़ानदानी पेंशन एक हज़ार रुपये सालाना ज़रूर थी लेकिन वो पूरी नहीं मिलती थी जिसका शिकवा इनके फ़ारसी पत्रों में मिलता है।
मोमिन ख़ाँ की ज़िंदगी और शायरी पर दो चीज़ों ने बहुत गहरा असर डाला। एक इनकी रंगीन मिज़ाजी और दूसरी इनकी धार्मिकता। लेकिन इनकी ज़िंदगी का सबसे दिलचस्प हिस्सा इनके प्रेम प्रसंगों से ही है। मुहब्बत ज़िंदगी का तक़ाज़ा बन कर बार-बार इनके दिलोदिमाग़ पर छाती रही। इनकी शायरी पढ़ कर महसूस होता है कि शायर किसी ख़्याली नहीं बल्कि एक जीती-जागती महबूबा के इश्क़ में गिरफ़्तार है। इनके कुल्लियात (समग्र) में छः मसनवीयाँ मिलती हैं और हर मसनवी किसी प्रेम प्रसंग का वर्णन है। मोमिन की महबूबाओं में से सिर्फ़ एक का नाम मालूम हो सका। ये थीं उम्मत-उल-फ़ातिमा जिनका तख़ल्लुस “साहिब जी” था। मौसूफ़ा पूरब की पेशेवर तवाएफ़ थीं जो ईलाज के लिए दिल्ली आई थीं। मोमिन हकीम थे लेकिन उनकी नब्ज़ देखते ही ख़ुद उनके बीमार हो गए। कई प्रेम प्रसंग मोमिन के अस्थिर स्वभाव का भी पता देते हैं।
मोमिन के यहाँ एक ख़ास क़िस्म की बेपरवाही की शान थी। धन-दौलत की तलब में इन्होंने किसी का क़सीदा नहीं लिखा। इनके नौ क़सीदों में से सात मज़हबी नौईयत के हैं। एक क़सीदा इन्होंने राजा पटियाला की शान में लिखा। इसका क़िस्सा यूँ है कि राजा साहिब को इनसे मिलने की जिज्ञासा थी। एक रोज़ जब मोमिन उनके आवास के सामने से गुज़र रहे थे, उन्होंने आदमी भेज कर इन्हें बुला लिया, बड़ी इज़्ज़त से बिठाया और बातें कीं और चलते वक़्त इनको एक हथिनी पर सवार कर के विदा किया और वो हथिनी इन्हीं को दे दी। मोमिन ने क़सीदे के ज़रिये उनका शुक्रिया अदा किया। दूसरा क़सीदा नवाब टोंक की ख़िदमत में न पहुँच पाने का मुआफ़ीनामा (क्षमापत्र) है। कई रियासतों के नवाबीन इनको अपने यहाँ बुलाना चाहते थे लेकिन ये कहीं नहीं गए। दिल्ली कॉलेज की प्रोफ़ेसरी भी क़ुबूल नहीं की।
ये बेपरवाही शायद उस मज़हबी माहौल का असर हो जिसमें इनकी परवरिश हुई थी। शाह अब्दुल अज़ीज़ के ख़ानदान से इनके ख़ानदान के गहरे सम्बंध थे। मोमिन एक कट्टर मुसलमान थे। 1818 ई॰ में इन्होंने सय्यद अहमद बरेलवी के हाथ पर बैअत की लेकिन उनकी जिहाद की तहरीक में ख़ुद शरीक नहीं हुए। अलबत्ता जिहाद की हिमायत में इनके कुछ शेर मिलते हैं। मोमिन ने दो शादियाँ कीं, पहली बीवी से इनकी नहीं बनी फिर दूसरी शादी ख़्वाजा मीर दर्द के ख़ानदान में ख़्वाजा मुहम्मद नसीर की बेटी से हुई। मौत से कुछ अर्सा पहले ये आशिक़ी से अलग हो गए थे। 1851 ई॰ में ये कोठे से गिर कर बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए थे और पाँच माह बाद इनका स्वर्गवास हो गया।
शायरी
मोमिन उर्दू के उन चंद बाकमाल शायरों में से एक हैं जिनकी बदौलत उर्दू ग़ज़ल की प्रसिद्धि और लोकप्रियता को चार चांद लगे। मोमिन ने इस विधा को ऐसे शिखर पर पहुँचाया और ऐसे उस्तादाना जौहर दिखाए कि ग़ालिब जैसा ख़ुद-नगर शायर इनके एक शेर पर अपना दीवान क़ुर्बान करने को तैयार हो गया। मोमिन ग़ज़ल की विधा के प्रथम पंक्ति के शायर हैं। इन्होंने उर्दू शायरी की दूसरी विधाओं, क़सीदे और मसनवी में भी अभ्यास किया लेकिन इनका असल मैदान ग़ज़ल है जिसमें ये अपनी तर्ज़ के अकेले ग़ज़लगो (ग़ज़ल लिखने वाला) हैं। मोमिन का कारनामा ये है कि इन्होंने ग़ज़ल को उसके वास्तविक अर्थ में बरता और बाहरी की अभिव्यक्ति आंतरिक के साथ करते हुए एक नए रंग की ग़ज़ल पेश की। उस रंग में ये जिस बुलंदी पर पहुंचे वहाँ इनका कोई प्रतियोगी नज़र नहीं आता।
मोमिन के शायराना श्रेणी के बारे में अक्सर आलोचक सहमत हैं कि इन्हें क़सीदा, मसनवी और ग़ज़ल पर एक समान दक्षता प्राप्त थी। क़सीदे में ये सौदा और ज़ौक़ की श्रेणी तक तो नहीं पहुंचते लेकिन इसमें शक नहीं कि ये उर्दू के चंद अच्छे क़सीदा कहनेवाले शायरों में शामिल हैं। मसनवी में ये दया शंकर नसीम और मिर्ज़ा शौक़ के तुल्य हैं लेकिन मोमिन की शायराना महानता की निर्भरता इनकी ग़ज़ल पर है। एक ग़ज़ल कहनेवाले की हैसियत से मोमिन ने उर्दू ग़ज़ल को उन विशेषताओं का वाहक बनाया जो ग़ज़ल और दूसरी विधाओं के बीच भेद पैदा करती हैं। मोमिन की ग़ज़लें ग़ज़ल के रंग की चंचलता, उत्साह, व्यंग्य और प्रतीकात्मकता की सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कही जा सकती हैं। इनकी मुहब्बत यौन प्रेम है जिस पर ये पर्दा नहीं डालते। पर्दे में तो इनकी महबूबा है। इश्क़ की वादी में मोमिन जिन जिन परिस्थितियों व दशाओं से गुज़रे उनको ईमानदारी व सच्चाई के साथ शेरों में बयान कर दिया।सुंदरता और प्रेम के गाल व तिल में इन्होंने कल्पना के जो रंग भरे वो इनकी अपनी बौद्धिक उपज है। इनकी अछूती कल्पना और निराले अंदाज़-ए-बयान ने पुराने और घिसे हुए विषयों को नए सिरे से ज़िंदा और प्रफुल्लित बनाया। मोमिन अपने इश्क़ के बयान में साधारणता नहीं पैदा होने देते। इन्होंने लखनवी शायरी का रंग इख़्तियार करते हुए दिखा दिया कि ख़ारिजी विषय भी तहज़ीब और संजीदगी के साथ बयान किए जा सकते हैं और यही वो विशेषता है जो इनको दूसरे ग़ज़ल कहने वाले शायरों से उत्कृष्ट करती है।