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महा उपनिषद

महा उपनिषद
महोपनिषद नारायण (विष्णु) के उल्लेख से आरम्भ होता है।
IASTMahā
Title meansमहान्[1]
Typeवैष्णव[1]
Linked Vedaसामवेद[2]
Chapters6
Verses549[3]
Philosophyवैष्णव धर्म

महोपनिषद ( = महा + उपनिषद् ) सामवेदीय शाखा के अन्तर्गत एक लघु उपनिषद है। [4][5] यह वैष्णव उपनिषद की श्रेणी में आता है।[6] महत् स्वरूप वाला यह उपनिषद् श्री शुकदेव जी एवं महाराज जनक तथा ऋभु एवं निदाघ के प्रश्नोत्तर के रूप में है। भारतीय संस्कृति का मूलमन्त्र, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' इसी उपनिषद में है।

अयं बन्धुरयं नेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥६-७१॥
(यह बन्धु है, यह बन्धु नहीं है - ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है। उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है।)

केवल पहिला, छोटा सा भूमिकामय अध्याय छोड़कर सारा महोपनिषद् योगवासिष्ठ के ही (५१० के लगभग ) श्लोकों से बना है।

संरचना

क्र.सं.अध्यायअध्याय का सार
प्रथम अध्यायसृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन
द्वितीय अध्यायजीवन मुक्ति और देहमुक्ति का स्वरूप
तृतीय अध्यायवैराग्य-वर्णन
चतुर्थ अध्यायआत्मज्ञान का उपदेश
पञ्चम अध्यायअज्ञान और ज्ञान सम्बन्धी सप्तभूमिकाओं की चर्चा
षष्ठ अध्यायशून्य की प्रकृति, माया, ब्रह्म, शिव, पुरुष, ईशान और नित्य आत्मा नाम के विषय में उपदेश

इसमें कुल छः अध्याय हैं। इसके परथम अध्याय में सर्वप्रथम नारायण की अद्वितीयता एवं ईशत्व का विवेचन है। उसके बाद यज्ञीय स्तोम की उत्पत्ति, चौदह पुरुष एवं एक कन्या की उत्पत्ति, पच्चीस तत्त्वात्मक पुरुष की उत्पत्ति, रुद्र की उत्पत्ति, चतुर्मुख ब्रह्मा की उत्पत्ति, व्याहृति, छन्द, वेद और देवताओं की उत्पत्ति, नारायण की विराट् रूपता तथा नारायण की उपलब्धि का स्थान हृदय बताया गया है।

इसके द्वितीय अध्याय में शुकदेव के स्वयं उद्भूत पारमार्थिक ज्ञान-तत्वज्ञान के होते हुए भी शुकदेव की अविश्रान्ति, व्यास जी के उपदेश के प्रति शुकदेव का अनादर, शुकदेव का जनक के पास जाना, जनक द्वारा शुक की परीक्षा, शुक-जनक संवाद, बन्धन-मोक्ष का विवेक, जीवन्मुक्त स्थिति, विदेहमुक्त स्थिति, शुकदेव के भ्रम का निवारण तथा शुकदेव को विश्रान्ति की प्राप्ति आदि विषयों का विवेचन प्राप्त होता है।

तृतीय अध्याय का आरम्भ 'निदाघ' के विचार के साथ हुआ है। तदुपरान्त जगत् का अनित्यत्व, अहंकार, तृष्णा आदि की अनर्थकता, देह तथा उसकी अवस्था की निन्दा, संसार की दुःखमयता, स्त्री निन्दा, दिशाओं आदि की क्षणभंगुरता तथा वैराग्य से तत्त्व जिज्ञासा आदि विषयों का विवेचन है।

चतुर्थ अध्याय में मोक्ष के चार उपाय, शास्त्रादि द्वारा आत्मावलोकन विधि, समाधि का स्वरूप, जीवन्मुक्त स्थिति, दृश्य जगत् का मिथ्यात्व, आसक्ति तथा अनासक्ति से बन्धन और मोक्ष की स्थिति, संसार की मनोमयता, जगत् का मिथ्यात्व, शान्त मनःस्थिति से ब्रह्म प्राप्ति, निर्विशेष ब्रह्मज्ञान की महिमा, वासना के परिहार से मोक्ष की प्राप्ति, बन्ध-मोक्ष का मूल संकल्प तथा अनात्माभिमान के त्याग की विधि इत्यादि विषयों का विशद विवेचन किया गया है।

पाँचवें अध्याय में अज्ञान एवं ज्ञान की भूमिका, 'स्वरूप' में स्थिति, मोक्ष और 'स्वरूप' से नष्ट होना, बन्धन, ज्ञान एवं अज्ञान की सात भूमिकाएँ, जीवन्मुक्त का आचरण, ज्ञान भूमिका का अधिकारी, ब्रह्म की अनुभूति ही ब्रह्म प्राप्ति का उपाय, मनोलय होने पर चैतन्य की अनुभूति, जगत् के भ्रामक ज्ञान को शान्त करने का उपाय, विषयों से उपरामता, तृष्णा को नष्ट करने का उपाय अहंभाव का त्याग, मन के अभ्युदय एवं नाश से बन्धन मुक्ति, चित् (चैतन्य) विद्या का अधिकारी, माया से बचकर ही ब्रह्म प्राप्ति सम्भव, ब्रह्म की सृष्टि माया के अधीन तथा संकल्प (आकांक्षा) के नष्ट होने से संसार का मूलोच्छेदन सम्भव जैसे विषयों का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है।

महोपनिषद् के छठे अध्याय में समाधि के अभ्यास से परमेश्वरत्व की प्राप्ति, ज्ञानियों की उपासना पद्धति, अज्ञानियों की दुःखद स्थिति, मनोनाश का उपाय, वासना त्याग का उपाय, जीवन्मुक्त की महिमा, तृष्णा की त्याग विधि, चार प्रकार के निश्चय, अद्वैतनिष्ठ व्यक्ति के लिए संसार का अभाव, मुमुक्षु की ब्रह्मनिष्ठता और अन्त में इस उपनिषद् शास्त्र के पठन-पाठन का प्रतिफल वर्णित है। महोपनिषद् का परिचय इस प्रकार से प्राप्त होता है।

सन्दर्भ

  1. Deussen 1997, पृ॰ 799.
  2. Tinoco 1996, पृ॰ 89.
  3. AG Krishna Warrier (1953), Maha Upanishad, Theosophical Society, Madras, Online
  4. Deussen 1997, पृ॰प॰ 557, 561–567.
  5. Tinoco 1996, पृ॰प॰ 87–89.
  6. Deussen 1997, पृ॰ 657.

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