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मसीहशास्त्र

पाओलो वेरोनीज़, यीशु मसीह का पुनरुत्थान (1560 ईस्वी )

ईसाई धर्म में, मसीहशास्त्र (अंग्रेज़ी - Christology ग्रीक प्राचीन यूनानी : Χριστός, Khristós से तथा प्राचीन यूनानी : -λογία, -logia ) या ईसाई विद्या, ग्रीक से 'मसीह का अध्ययन' के रूप में अनुवादित, धर्ममीमांसा की एक शाखा है जो यीशु से संबंधित है। अलग-अलग संप्रदायों में इस सवाल पर अलग-अलग राय है कि क्या यीशु मानव, दिव्य, या दोनों थे, और एक मसीहा के रूप में यहूदी लोगों को विदेशी शासकों से मुक्त करने या भविष्यवाणी किए गए ईश्वर के राज्य में और पाप के अन्यथा परिणाम से उद्धार में उनकी भूमिका क्या होगी? [1] [2] [3] [4] [5]

आरंभिक ईसाई लेखन में यीशु को कई उपाधियाँ दी गईं, जैसे मनुष्य का पुत्र, ईश्वर का पुत्र, मसीहा, त्राणाभिषिक्त और किरियोस्, जो सभी हिब्रू धर्मग्रंथों से ली गई थीं। [web 1] ये शब्द दो विरोधी विषयों पर केंद्रित थे, अर्थात् "यीशु एक पूर्व विद्यमान सत् के रूप में जो मानव बन जाता है और फिर इश्वर के पास लौट जाता है ", बनाम दत्तक ग्रहणवाद - कि यीशु मानव था जिसे परमेश्वर ने उसके बपतिस्मा, क्रूस पर चढ़ने या पुनरुत्थान के समय "अपनाया" या "गोद लिया" था। [web 1]

दूसरी से पांचवीं शताब्दी तक, ईसा मसीह के मानवीय और दिव्य स्वभाव का संबंध प्रारंभिक चर्च और पहली सात अखिल-कलीसियाई परिषदों में बहस का एक प्रमुख केंद्र था। 451 में चाल्सीडॉन की परिषद ने मसीह के दो स्वभावों, एक मानव और एक दिव्य, के अभिभावित संयोग का एक सूत्रीकरण जारी किया, "न तो भ्रम और न ही विभाजन के साथ एकजुट"। [6] पश्चिमी ईसाई धर्म और पूर्वी रूढ़िवादी की अधिकांश प्रमुख शाखाएँ इस सूत्रीकरण से सहमत हैं, [6] [7] जबकि प्राच्य रूढ़िवादी चर्चों की कई शाखाएँ इसे अस्वीकार करती हैं, [8] [9] [10] बल्कि मिआफिज़िकवाद से सहमत हैं।

  1. Ehrman 2014, पृ॰ 171.
  2. O'Collins 2009, पृ॰प॰ 1–3.
  3. Ramm 1993, पृ॰ 15.
  4. Bird, Evans & Gathercole 2014, पृ॰ 134, n. 5.
  5. Ehrman 2014, पृ॰ ch. 6–9.
  6. Davis 1990, पृ॰ 342.
  7. Olson, Roger E. (1999). The Story of Christian Theology: Twenty Centuries of Tradition Reform (English में). InterVarsity Press. पृ॰ 158. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-8308-1505-0.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  8. Armentrout & Boak Slocum 2005, पृ॰ 81.
  9. Espín & Nickoloff 2007, पृ॰ 217.
  10. Beversluis 2000, पृ॰प॰ 21–22.


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