भोजशाला
भोजशाला (या "भोज का कमरा") मध्य प्रदेश के धार शहर में स्थित एक ऐतिहासिक इमारत के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला नाम है। इस शब्द की व्युत्पत्ति मध्यकालीन मालवा के परमार वंशीय राजा भोज से की गई है। ये राजा शिक्षा और कला के संरक्षक थे, और उनको काव्य, योग और वास्तुकला पर प्रमुख संस्कृत कृतियों का श्रेय दिया जाता है।[1] 20वीं शताब्दी के आरम्भिक दिनो से भोजशाला शब्द उस इमारत से जोड़ा गया है। इमारत की संरचना 14वीं शताब्दी में की गई है, लेकिन इसमें उपयुक्त स्थापत्य खण्ड मुख्य रूप से 11वीं–12वीं शताब्दी के हैं, और इसके आसपास इस्लामी कब्रें 14वीं-15वीं शताब्दी के बीच की हैं।[1]
वर्तमान में यह स्थल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के संरक्षण में एक पुरातात्विक क्षेत्र है | लेकिन पिछली शताब्दी में यह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विवादित जगह बन गई है। 19वीं शताब्दी के बाद से इस स्थान के अन्वेशण में मध्यकालीन धर्मों के बारे में बहुत जानकारी प्राप्त हुई है। भोजशाला की सीमा में सूफ़ी सन्तों से जुडे चार गुम्बज़दार मकबरे भी हैं,[2] जिन में मूल मौलाना कमालुद्दीन चिश्ती धारवी (1238–1330) की दरगाह सबसे पुरानी है।[3] मुसलमान शुक्रवार की नमाज़ और इस्लामी त्योहारों के लिए इमारत का उपयोग करते हैं, जबकि हिंदू मंगलवार को प्रार्थना करते हैं। हिंदू भी वसंत पंचमी त्योहार पर स्थल पर देवी सरस्वती से प्रार्थना करते हैं, और यह हिंदू-मुस्लिम तनाव का एक स्रोत रहा है जब वसंत पंचमी शुक्रवार को पड़ती है।[4][5][6]
राजा भोज
राजा भोज का शासन मध्य भारत में लगभग 1000 और 1055 के बीच चला।[7] वह भारतीय परंपरा में सबसे महान राजाओं में से एक माना जाता है।[1] वह कला के एक प्रसिद्ध संरक्षक थे, और उनके प्रति श्रद्धा के कारण, हिंदू विद्वानों ने पारंपरिक रूप से उन्हें दर्शन, खगोल, विज्ञान, व्याकरण, चिकित्सा, योग, वास्तुकला और अन्य विषयों पर बड़ी संख्या में संस्कृत कृतियों का श्रेय दिया। इनमें से, काव्य के क्षेत्र में एक अच्छी तरह से अध्ययन और प्रभावशाली कृति शृङ्गारप्रकाश है।[8] कार्य का मूल आधार यह है कि शृङ्गार ब्रह्मांड में मौलिक और प्रेरक आवेग है।
अपने साहित्यिक और कला समर्थन के साथ, भोज ने भोजपुर में एक विशाल शिव मंदिर का निर्माण शुरू किया। यदि यह पूरा हो गया होता जिस हद तक उसने योजना बनाई थी, तो मंदिर खजुराहो समूह के स्मारकों में हिंदू मंदिरों के आकार से दोगुना होता। मंदिर काफी हद तक पूरा हो गया था, और अभिलेखीय साक्ष्य पुष्टि करते हैं कि भोज ने हिंदू मंदिरों की स्थापना और निर्माण किया था।[9]
भोज के उत्तराधिकारियों में से एक राजा अर्जुनवर्मन (लगभग 1210–15) थे। वह और कई अन्य हिंदू और जैन परंपराओं के शासक राजा भोज को इतने उच्च सम्मान में रखते थे कि उन्होंने "भोज के पुनर्जन्म" या "भोज जैसे शासक" होने का दावा कर खुद को सम्मानित किया।[10] मृत्यु के सदियों बाद भी भोज एक श्रद्धेय व्यक्ति बने रहे, जैसा कि 14वीं शताब्दी में गुजरात के जैनाचार्य मेरुतुंग की प्रबंधचिंतामणी,[11] और 17वीं शताब्दी वाराणसी में रचित बल्लाल के भोजप्रबंध में दर्शाया गया है।[12] यह परंपरा जारी रही, और 20वीं शताब्दी में, हिंदू विद्वानों ने भोज को अपनी ऐतिहासिक संस्कृति के गौरवशाली अतीत और हिंदू पहचान के एक हिस्से के रूप में वर्णित किया।[13] भारतीय राज्य मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल का नाम उनके नाम पर रखा गया है, यानी भोज-पाल, लेकिन कुछ लोग इसका नाम भूपाल से जोड़ते हैं, जो एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है राजा, शाब्दिक रूप से, 'पृथ्वी का रक्षक'।[14]
धार और भोजशाला में शिलालेख
धार के पुरातात्विक स्थलों, और विशेष रूप से शिलालेखों, की तरफ ध्यान ब्रिटिश राज से जुडे विद्वानों द्वारा आकर्षित किया गया। 1822 में जॉन मैल्कम ने धार का उल्लेख किया, जिसमें राजा भोज से जुडी बांध जैसी परियोजनाओं के निर्माण का ज़िक्र मिलता है।[15] 19वीं सदी के अंत में भोजशाला के शिलालेखों पर विद्वतापूर्ण अध्ययन जारी रहा जब 1871 में बंबई से भाऊ दाजी ने अपने सहायकों को यहां भेजा।[1] 1903 में एक नया अध्याय चालू हुआ, जब धार रियासत में शिक्षा अधीक्षक के.के. लेले ने कमाल मौला मस्जिद में दीवारों और फर्श पर कई संस्कृत और प्राकृत शिलालेखों की सूचना दी।[1] शिलालेखों का अध्ययन विभिन्न विद्वानों ने वर्तमान तक जारी रखा है। जगह पर उत्कीर्ण शिलाओं की विविधता और आकार, और उनमें से दो सर्पबन्ध लेख जिन में संस्कृत भाषा के व्याकरणिक नियम दर्शाए हैं, यह बात स्पष्ट करते हैं कि सामग्री एक जगह से नहीं बल्कि विस्तृत क्षेत्र में कई विभिन्न इमारतों से इकट्ठी की गई थी।
रोड़ का राउल वेल
जॉन मैल्कम ने उल्लेख किया कि उन्होंने कमाल मौलाना मस्जिद से एक बना हुआ पैनल हटाया था।[15] यह कवि रोड़ का राउल वेल प्रतीत होता है, जो हिंदी के प्रारंभिक रूपों में एक अद्वितीय काव्य कृति है। यह शिलालेख पहले मुंबई की एशियाटिक सोसाइटी में रखा गया था और बाद में इसे मुंबई में छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय में स्थानांतरित कर दिया गया है।
कूर्मशतक
के.के. लेले द्वारा पाए गए शिलालेखों में से एक पैनल था जिसमें प्राकृत में छंदों की एक श्रृंखला थी। इसमें भगवान विष्णु के कूर्म या कछुआ अवतार की प्रशंसा की गई थी। कूर्मशतक का श्रेय स्वयं राजा भोज को दिया जाता है, लेकिन अभिलेख के पुरालेख से पता चलता है कि यह प्रति बारहवीं या तेरहवीं शताब्दी में उकेरी गई थी। यह पाठ रिचर्ड पिशल द्वारा 1905-06 में प्रकाशित किया गया था, जिसका एक नया संस्करण और अनुवाद 2003 में वी.एम. कुल्कर्णी द्वारा निकाला जा चुका है।[16] यह शिलालेख वर्तमान में मस्जिद की रीवाक में प्रदर्शित है।
वियजश्रीनाटिका
के.के. लेले द्वारा पाया गया एक अन्य शिलालेख था जिसमें राजगुरु मदन द्वारा रचित विजयश्रीनाटिका नामक कृति का हिस्सा है।[10] राजा अर्जुनवर्मन के उपदेशक मदन ने "बालसरस्वती" की उपाधि धारण की थी। शिलालेख से पता चलता है कि शिलालेख पर उत्कीर्ण नाटिका का प्रदर्शन राजा अर्जुनवर्मन के सामने एक सरस्वती मंदिर में किया गया था। इससे पता चलता है कि यह शिलालेख किसी सरस्वती मंदिर के स्थल से लाया गया होगा। शिलालेख वर्तमान में मस्जिद की रीवाक में प्रदर्शित है।
वर्णनागकृपाणिका
इमारत में दो सर्पबन्ध शिलालेख भी हैं जो सर्प के रूप में व्याकरणिक नियम दर्शाते हैं। श्री के.के. लेले, जो खुद धार रियासत के शिक्षा अधीक्षक थे, इन अभिलेखों से प्रेरित हो कर मस्जिद को भोजशाला के रूप में वर्णित करने लगे। क्योंकि राजा भोज कविताओं और व्याकरण पर कई कार्यों के लेखक थे, जैसे की सरस्वतीकण्ठाभरण (या "सरस्वती का हार")।[17][18] भोजशाला शब्द को कप्तान लुआर्ड ने लिया और 1908 के अपने गजेटियर में प्रकाशित किया, हालांकि लुआर्ड ने यह स्पष्ट रूप से कहा था कि यह एक मिथ्या है।[19] यह कि भोजशाला शब्द श्री लेले की वजह से प्रचलित है, विलियम किनकैड के लेखन द्वारा स्पष्ट होता है, जो कि 1888 में इन्डियन एन्टिक्वैरी में प्रकाशित किया गया था। 1888 के इस लेख में भोजशाला शब्द का कोई उल्लेख नहीं कीया गया है, केवल कमाल मौला की दर्गाह में स्थित "अकल का कुआं" का ज़िक्र है। किनकैड के पाठ में भोजशाला शब्द की अनुपस्थिति यह इंगित करती है कि "19वीं शताब्दी के मध्य दशकों में भोजशाला के बारे में कोई जीवित परंपरा नहीं थी" जिन लोगों के साथ किनकैड ने बातचीत की थी।[1]
सरस्वती
श्री के.के. लेले और कप्तान लुआर्ड द्वारा भोजशाला की कमाल मौला मस्जिद के साथ पहचान बनाने के बाद, इतिहासकार ओ.सी. गांगुली और के.एन. दीक्षित ने ब्रिटिश संग्रहालय में रखी एक मूर्ति के बारे में लेख प्रकाशित किया जिसमें घोषणा की गई कि यह धार से राजा भोज की सरस्वती है।[20] इस विश्लेषण को व्यापक रूप से स्वीकार किया गया और इसका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। इसके बाद के वर्षों में ब्रिटिश संग्रहालय में प्रतिमा की पहचान अक्सर भोज की सरस्वती के रूप में की गई।[1]
मूर्ति पर एक शिलालेख है जिसमें राजा भोज के साथ वाग्देवी का उल्लेख है, जो सरस्वती का दूसरा नाम है।[1] वाग्देवी शब्द का शाब्दिक अर्थ है वाणी, उच्चारण और विद्या की देवी। हालांकि, बाद में संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के भारतीय विद्वानों द्वारा शिलालेख के अध्ययन, विशेष रूप से हरिवल्लभ भयानी,[21] ने यह स्पष्ट किया कि शिलालेख तीन जैन तीर्थंकरों और वाग्देवी के निर्माण के बाद अंबिका की एक मूर्ति के निर्माण को रिकॉर्ड है। यानि भले ही वाग्देवी का उल्लेख किया गया है, शिलालेख का मुख्य उद्देश्य अंबिका की छवि के निर्माण को रिकॉर्ड करना है, यानी वह मूर्ति जिस पर रिकॉर्ड उत्कीर्ण कीया गया है।[22]
मूल पाठ और अनुवाद
- ॐ श्रीमद्भोजनरेंद्र-चंद्रनगरी-विद्याधरी-धर्म्मधीः यो — [क्षतिग्रस्त भाग] खलु सुखप्रस्थापना
- याप्सराः वाग्देवीं प्रथमं विधाय जननीं पस्चाज्जिनानां त्रयीं अम्बां नित्यफलादिकां वररुचिः मूर्त्तिं सुभां नि
- र्म्ममे इति शुभं। सूत्रधार सहिर-सुत-मणथलेण घटितं॥ विज्ञानिक शिवदेवेन लिखितमिति॥
- संवत् 1091
ओम्। राजा भोज की चंद्रनगरी और विद्याधारी [जो जैन धर्म की दो शाखाएँ हैं] के धार्मिक अधीक्षक (धर्म्माधि) वररुचि है। अप्सराओं की तरह आसानी से [अज्ञानता को दूर करने के लिए? द्वारा...?] हटाने के लिए... उस वररुचि ने पहले वाग्देवी को माता रूप में [और] फिर तीन तीर्थंकरों को बनवाने के बाद अम्बा की यह सुंदर छवि बनवाई, जो हमेशा प्रचुर मात्रा में फल देती है। आशीर्वाद! इसे सूत्रधार सहिरा के पुत्र मथल ने अंजाम दिया था। यह लेख प्रवीण शिवदेव द्वारा लिखा गया था। वर्ष 1091.
प्रतिमा की पहचान
अन्यत्र पाई गई अंबिका प्रतिमाओं की प्रतीकात्मक विशेषताओं से ब्रिटिश संग्रहालय की मूर्ति की पहचान की पुष्टि की गई है।[23] एक विशेष रूप से करीबी तुलनात्मक उदाहरण मध्यप्रदेश के सीहोर शहर में पाई गई 11वीं शताब्दी की अंबिका है।[24] धार मूर्ति की तरह, सीहोर की छवि में एक युवा को देवी के पैर में शेर की सवारी करते हुए दिखाया गया है और एक तरफ दाढ़ी के साथ एक आकृति है।
ब्रिटिश संग्रहालय में मूर्ति पर शिलालेख इंगित करता है कि धार में वाग्देवी सरस्वती के जैन रूप को समर्पित थी। हालांकि, जिस वाग्देवी का उल्लेख किया गया है वह अब मौजूद नहीं है या अभी तक खोजी नहीं गई है। आचार्य मेरुतुंग, जिन्होंने 14वीं शताब्दी की शुरुआत में अपना प्रबंध लिखा था, यह इंगित करते हैं कि सरस्वती मंदिर में भोज की स्तुति संबंधी शिलाओं को पहले जैन तीर्थंकर को समर्पित एक कविता के साथ उकेरा गया था, लेकिन इन शिलालेखों का भी पता नहीं चला है।[11][1]
वर्तमान स्थिति
यह इमारत भारत के कानूनों के तहत राष्ट्रीय महत्व का संरक्षित स्मारक है और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अधिकृत क्षेत्र में है। हिंदू और मुसलमान दोनों ही इस जगह पर दावा जमाते हैं और इसका इस्तेमाल अपनी प्रार्थनाओं के लिए करते हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के दिशानिर्देशों के अनुसार, मुसलमान शुक्रवार और इस्लामी त्योहारों पर प्रार्थना कर सकते हैं, हिंदू मंगलवार को और देवी सरस्वती के त्योहार पर, अर्थात् वसंत पंचमी पर प्रार्थना कर सकते हैं। जगह अन्य दिनों में पर्यटकों के लिए खुली रहती है। [1] [6]
इस इमारत के बारे में विवाद इसमें मौजूद शिलालेख, और उनसे प्राप्त हिंदू और जैन धर्मों के बारे में ऐतिहासिक जानकारी, द्वारा प्रेरित किया गया है। जैन धर्म के बारे में जानकारी एतिहासिक ग्रंथों और देवी अंबिका की प्रतिमा से प्राप्त होती है जिसे अब ब्रिटिश संग्रहालय में रखा गया है। कमाल मौला मस्जिद के बगल में सूफ़ी सन्तों के चार इस्लामी मकबरे हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध है हज़रत मौलाना कमालुद्दीन चिश्ती धारवी (1238-1330) की दरगाह, जिसकी मालवा सल्तनत के दौरान तामीरीयत हुई थी। वास्तुकला की दृष्टि से, मस्जिद दरगाह से पहले की बनी है, और 1300 के प्रारंभिक दशकों में दिल्ली के कुतुब मीनार परिसर में कुव्वत-उल-इस्लाम के समान मंदिर के हिस्सों से बना एक जामा मस्जिद है।
शुक्रवार को वसंत पंचमी पड़ने पर विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ऐसे दिनों में हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को घंटे आवंटित करने का प्रयास करता है। हालांकि, यह सांप्रदायिक संघर्ष और कभी-कभी अशांति का एक स्रोत रहा है, जब पहले के समय स्लॉट के लिए निर्धारित धार्मिक समूह ने अगले समय के लिए परिसर खाली करने से इनकार कर दिया।[4][5][6]
सन्दर्भ
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