भूराजनीति
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत |
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अन्तरराष्ट्रीय राजनीति तथा अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर भूगोल के प्रभावों का अध्ययन भूराजनीति (geopolitics) कहलाती है। [1] दूसरे शब्दों में, भूराजनीति, विदेश नीति के अध्ययन की वह विधि है जो भौगोलिक चरों के माध्यम से अन्तरराष्ट्रीय राजनैतिक गतिविधियों को समझने, उनकी व्याख्या करने और उनका अनुमान लगाने का कार्य करती है। 'भौगोलिक चर' के अन्तर्गत उस क्षेत्र का क्षेत्रफल, जलवायु, टोपोग्राफी, जनसांख्यिकी, प्राकृतिक संसाधन, तथा अनुप्रयुक्त विज्ञान आदि आते हैं। [2]
यह शब्द सबसे पहले रुडोल्फ ज़ेलेन ने सन् १८९९ में प्रयोग किया था। भूराजनीति का उद्देश्य राज्यों के मध्य संबंध एवं उनकी परस्पर स्थिति के भौगोलिक आयामों के प्रभाव का अध्ययन करना है। इसके अध्ययन के अनेक ऐतिहासिक चरण हैं, जैसे कि औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद एवं रूसी ज़ारशाही के मध्य एशिया में प्रतिस्पर्धा, तदुपरांत शीत युद्ध काल में अमेरिकी साम्राज्यवाद व सोवियत संघ के मध्य स्पर्धा आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो कि भूराजनीति के महत्वपूर्ण चरण कहे जा सकते हैं।
भूराजनीति के प्रमुख विचारकों में हेल्फोर्ड जॉन मैकिण्डर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उनका सन् १९०४ में छपा लेख द जियॉग्राफिकल पॉइवट ऑफ हिस्टरी, भूराजनीति के लेखन में एक अद्भुत मिसाल है। भूराजनीति प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध के मध्य तीव्रता से प्रसिद्ध हुई, परंतु जर्मन विचारकों ने इसे स्वयं की साम्राज्यी महत्वाकांक्षाओं का स्रोत बना लिया, जिसके चलते यह अन्वेषी विचारधारा वदनाम हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसे लगभग नकार दिया गया। शीत युद्ध का ९० के दशक में चरम पर होना व ब्रजेंस्की जैसे विचारकों द्वारा इस चिंतन को पुनः मान्यता देना, भूराजनीति के लिए पुनर्जीवन का आधार साबित हुई।
भूराजनीति के विकास क्रम में शीत युद्ध के अनेक चरणों का महत्व है, जैसे, क्युबा मिसाइल संकट (१९६२), १५ वर्षों तक चलने वाला वियतनाम युद्ध (१९७५), १० वर्षीय अफग़ानिस्तान गृह युद्ध (१९८९), बर्लिन दीवार व जर्मनी एकीकरण (१९८९) तथा सबसे महत्वपूर्ण सोवियत संघ का विघटन (१९८९)।
भूराजनीति की अवधारणा की प्रबलता का संबंध १९वीं शताब्दी के अंत में साम्राज्यवाद में हो रहे गुणात्मक परिवर्तन से भी है। ब्रिटेन के भारत में अनुभव साम्राज्यवाद के अत्यंत महत्वपूर्ण अनुभवों में से एक थे। राजनैतिक शासन की सीमाएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी। तथा ब्रितानी सूरज अस्ताचल की ओर गतिमान था। इसका दूरगामी प्रभाव अफ्रीकी मुल्कों पर भी पङा, तथा अनेक देशों ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता प्राप्त की। भूराजनीति में इसके महत्व को इस प्रकार से समझा जा सकता है, कि भौगोलिक परिस्थितियों ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध चेतना को प्रभावित किया, जैसे कि अफ्रीकी महाद्वीप में रंगभेद औपनिवेशवाद का घटक माना गया, तो दक्षिण एशिया में सांप्रदायिकता को उपनिवेशवाद की उपज माना गया। इस प्रकार महाद्वीपों में राष्ट्रों के निर्माण के बाद उनके महाद्वीपीय संबंध व अंतर-महाद्वीपीय संबंध उनके साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के अनुभवों से प्रभावित दिखे।
एक और दृष्टिकोण इस संबंध में उद्धृत करना उचित रहेगा। भूराजनीति औपनिवेशिक शक्तियों के अनुभवों से जुङी विश्व व्यवस्था का दिशाबोध है, अतः इसका चिंतन प्रत्येक राष्ट्र के उपनिवेशकाल के अनुभवों का प्रतिबिंब है।
भूराजनीति की एक अन्य महत्वपूर्ण अवधारणा ग्रेट गेम संकल्पना है। यह १९वीं शताब्दी की दो महान शक्तियों के टकराहट की एक रोचक संकल्पना है। ब्रिटेन का सर्वप्रिय उपनिवेश भारतीय उपमहाद्वीप था, उसके संसाधन को चुनौती को विफल करना उस समय ब्रिटेन की प्राथमिकता थी। यूरोपीय शक्तियों में नेपोलियन के नेतृत्व में फ्रांस एक चुनौती प्रतीत हुआ, परंतु यह अवतरित नहीं हो सकी। तत्पश्चात् रूस एक महाद्वीपीय शक्ति के रूप में प्रकट हुआ। यह उपनिवेशकाल के महत्वपूर्ण चरणों में से एक है, कि विश्व व्यवस्था के दो स्पष्ट आधार दिखाई देने लगे। एक व्यवस्था जो कि महासागरों द्वारा पृथ्वी के संसाधनों को नियंत्रित करने की थी, तो दूसरी व्यवस्था एशिया महाद्वीप में सर्वोच्चता के नवीन संघर्ष की ओर प्रवृत थी।
औपनिवेशवाद एक ऐतिहासिक अनुभव है। परंतु राष्ट्रों के निर्माण की प्रक्रिया एवं उनके मध्य व्यवहार का निर्माण एक वैश्विक व्यवस्था को इंगित करती है। संबंधों की परिभाषा वर्गीय चेतना द्वारा निर्धारित होती है। यूरोपीय समाजों के अनुभव, व अन्य समाजों के अनुभवों में तुलनात्मक रूप से अधिक भिन्नता है।
भूराजनीति का एक और महत्वपूर्ण आयाम शीत युद्ध है। शीत युद्ध काल में सोवियत संघ व संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्य विचारधारा पर भीषण संघर्ष हुआ है। कम्यूनिझम या मार्क्सवाद की विचारधारा ने नवीन राष्ट्रों में अपनी पहचान बनाई, जिसके चलते पूँजीवादी देशों से टकराहट हुई। यह प्रतिद्वंदिता तीसरी दुनियाँ के देशों में भी फैलती गई। तथा भूराजनीति ऐसे समय में इन देशों को अपनी ओर खींचने की होङ के रूप में प्रकट हुई। इसके परिणाम सकारात्मक एवं नकारात्मक भी रहे। कुछ देशों ने इसे लाभ के अवसर के रूप में देखा, अतः वे अपने आर्थिक विकास के अवसरों को भुनाने लगे। जबकि कुछ देशों के लिए विघटन, युद्ध व अशांति का पर्याय बना।
भूराजनैतिक अवधारणाएँ एवं मूल तत्व
भूराजनीति में चिंतन पद्वत्ति का विशेष महत्व है। समस्त विश्व को एक इकाई मानकर देशों के व्यवहार पर निष्कर्षात्मक वक्तव्य रखना, एक जटिल प्रक्रिया है। यहाँ यह बताना उपयोगी होगा कि भूराजनीति का चरम उद्देश्य राष्ट्र-जीवन की आवश्यक शर्तों की अनुपालना हेतु संसाधनों की निर्बाध आपूर्ति बनाए रखना है। इस पृष्ठभूमि के संदर्भ में विभिन्न भूराजनैतिक अवधारणाओं की समालोचना की जानी चाहिए।
सर् हॉलफोर्ड जॉन मैकिन्डर की १९०४ की संकल्पना द जियॉग्राफिकल पॉइवट ऑफ हिस्टरी एक ऐसी ही अतुलनीय कृति है। इसके मूल में यह निहित है कि चुँकि पृथ्वी के भूपटल पर महाद्वीपों की आकृति-विस्तार व उससे प्रभावित विभिन्न राष्ट्रीय समुदायों के वितरण का ऐतिहासिक बोध, उनके परस्पर स्थानिक व देशीय संबंधों की व्याख्या करने में सक्षम है। अतः भविष्य में भी इन कारकों का राष्ट्रों के मध्य संबंधों पर असर पङेगा। ऐसी ही एक मूलाकृति है, हृदयस्थल या हार्टलैण्ड।
हार्टलैण्ड संकल्पना के अनुसार समुद्री जलमार्गों के व्यापार के प्रयोग से यूरोप-एशिया महाद्वीप के क्षितिज भाग परस्पर संपर्क में आ गए। ये तटीय क्षेत्र मध्य भाग की पारंपरिक व्यवस्था के विकल्प में उभरे। पारंपरिक व्यवस्था से अभिप्राय है, व्यापार का परंपरागत थल मार्गों से कारवाँ के माध्यम से किया जाना। मैकिण्डर के अनुसार इतिहास में कुछ वृहत्तर प्रक्रम हैं, जो कि सामान्य ऐतिहासिक प्रबोध से परे हैं। ऐसा ही एक ऐतिहासिक प्रक्रम था, यूरोप में राष्ट्र-राज्यों की उत्पत्ति।
मैकिण्डर के अनुसार, यूरोप का उद्भव, एशियाई आक्रांताओं के निरंतर झंझावातों से उत्पन्न चेतना का परिणाम है। हूणों के क्रूर आक्रमणों ने यूरोप को एशियाई सत्ता व आकार के प्रति सावचेत किया। यही नहीं, अपितु, पूर्वी यूरोप के जातीय ढाँचे में इसके चलते जो परिवर्तन आए, वे एक प्रतिरोधक के रूप में स्थापित हो गए।
यह चिंतन एक विशिष्ट संबंध की व्याख्या करता है। महाद्वीपीय एकांगिकता का बोध महासागरीय प्लवन के माध्यम से ही संभव हो सका है। अतः मैकिण्डर के चिंतन में द्वंद दिखाई देता है।
भूराजनीति एवं भौगोलिक संसाधन
भूराजनीति का एक महत्वपूर्ण अंग भौगोलिक संसाधनों की स्वामित्वता है। यह स्वामित्व सामरिक संसाधनों के क्षेत्र में अत्यंत इच्छित है। उर्जा संसाधन एक ऐसे ही चिह्नित क्षेत्र है।
सन्दर्भ
- ↑ Devetak et al (eds), An Introduction to International Relations, 2012, p. 492.
- ↑ Evans, G & Newnham, J., (1998), "The Penguin Dictionary of International relations", Penguin Books, London, Uk. ISBN 0-14-051397-3
बाहरी कड़ियाँ
- विश्व राजनीति और भारत की सामरिक चुनौतियाँ (बोधि बूस्टर)