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भारत में सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन

भारत में सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन वे आंदोलन हैं जो पुनर्जागरण के दौरान तथा बाद में भारत के किसी भाग में या पूरे देश में सामाजिक या धार्मिक सुधार के लिए चलाए गए। इनमें ब्रह्म समाज आर्य समाज, प्रार्थना समाज, सत्य-शोधक समाज, एझाबा आंदोलन, दलित आंदोलन आदि प्रमुख हैं।

पृष्ठभूमि

ज्यों ज्यों एक समाज या राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है उसके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी कमियों को दूर करे। सामाजिक धार्मिक कुरीतियों और रूढ़ियों को दूर करना ही राष्ट्र को विकसित और प्रगति उन्मुख बना सकता है।

ब्रिटिश काल में जब भारतीय जनमानस अंग्रजों की दासता से बेचैन होने लगा तब भारतीय बुद्धिजीवियों ने यह महसूस किया कि दासता की बेड़ियों से मुक्त होने की लड़ाई में यह आवश्यक है की हम अपने भीतर को कमजोरियों को दूर करें। खुद को सामाजिक धार्मिक दृष्टि से परिष्कृत करें ताकि अंग्रजों के विरुद्ध युद्ध में हम मजबूती से मुकाबला कर सकें।

इसी बात को ध्यान में रखते हुए देश के विभिन्न हिस्सों में अठारहवीं सदी के अंतिम और उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दौर में सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलनों की एक पूरी श्रृंखला शुरू हुई जिसका काफी अहम परिणाम भारतीय स्वतंत्रता के रूप में मिला।

ब्रह्म समाज

ब्रह्म समाज आंदोलन भारतीय समाजिक धार्मिक सुधार आंदोलनों में अग्रगण्य स्थान रखता है। ब्रह्म समाज को उत्पत्ति १८१५ में आत्मीय सभा के रूप में हुई जो १८२८ में ब्रह्म समाज के रूप में परिवर्तित हो गई।ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय और द्वारकानाथ टैगोर थे। आगे चलकर देवेंद्रनाथ टैगोर और केशव चंद्र सेन ने समाज को आगे बढ़ाया। दोनो में आपसी मतभेदों के चलते समाज में दरार आ गई और केशव चंद्र सेन ने १८६६ में भारतवर्ष ब्रह्म समाज की स्थापना की।

ब्रह्म समाज ने वेदों और उपनिषदों की महत्ता को एक बार फिर से स्थापित किया। इसने एकेश्वरवाद और आत्मा की अमरता की बात की।

ब्रह्म समाज के प्रयासों का ही परिणाम था कि सन् १८२९ में लॉर्ड विलियम बेंटिक ने सती प्रथा पर पाबंदी लगा दी और गैरकानूनी बना दिया। इसके अलावा समाज ने पर्दा प्रथा और बाला विवाह के खिलाफ भी समाजिक जागृति लाने का काम किया। परिणामस्वरूप जाति धर्म का भेद कम हुआ और महिलाओं की स्थिति में सुधार आए।

 आर्य समाज 

आर्य समाज

सन २००० में आर्यसमाज को समर्पित एक डाकटिकट
सिद्धांत "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्"
(विश्व को आर्य (श्रेष्ठ) बनाते चलो।)
स्थापना 10 अप्रैल 1875 (149 वर्ष पूर्व) (1875-04-10)
मुम्बई)
संस्थापकदयानन्द सरस्वती
प्रकारधार्मिक संगठन
वैधानिक स्थिति न्यास (Foundation)
उद्देश्य शैक्षिक, धार्मिक शिक्षा, अध्यात्म, समाज सुधार
मुख्यालयनई दिल्ली
निर्देशांक26°27′00″N 74°38′24″E / 26.4499°N 74.6399°E / 26.4499; 74.6399निर्देशांक: 26°27′00″N 74°38′24″E / 26.4499°N 74.6399°E / 26.4499; 74.6399
आधिकारिक भाषा
हिन्दी
मुख्य अंग
परोपकारिणी सभा
जालस्थलhttp://www.thearyasamaj.org

आर्य समाज की स्थापना सन् १८७५ में तत्कालीन बॉम्बे में स्वामी दयानंद सरस्वती ने की थी। [1]

आर्य समाज आंदोलन हिंदू धर्म पर पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभावों के विरुद्ध एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन था। आर्य समाज का मुख्यालय नई दिल्ली में है।

आर्य समाज वैदिक परंपराओं में विश्वास करता है।यह मूर्ति पूजा,अवतारवाद, बलि, कर्मकांड, अंधविश्वास ,छुआछूत और जातिगत भेदभाव का विरोध करता है और संसार के उपकार को ही अपना उद्देश्य मानता है।

उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में आर्य समाज दो धड़ों में बंट गया। एक धड़ा पाश्चात्य शिक्षा का समर्थक था वहीं दूसरा धड़ा स्वदेशी शिक्षा का। पाश्चात्य शिक्षा के समर्थकों में लाला लाजपत राय और लाला हंसराज जैसे सुधारक थे जिन्होंने डीएवी नाम से शिक्षण संस्थान शुरू किए। प्राच्या शिक्षा के समर्थकों में प्रमुख स्वामी श्रद्धानंद थे जिन्होंने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की थी।

आर्य समाज ने शिक्षा, समाज सुधार और राष्ट्रीय आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई। [2][3]

स्वदेशी आंदोलन, हिंदी सेवा विशेषतः देवनागरी का विकास आर्य समाज की प्रमुख उपलब्धियों में शामिल हैं।

 रामकृष्ण मिशन 

रामकृष्ण मिशन स्वामी रामकृष्ण परमहंस के नाम पर उनके परम शिष्य विवेकानंद के द्वारा स्थापित एक संस्था है जिसका उद्देश्य भारतीय समाज में सुधार लाना था।इसकी स्थापना सन् १८९७ में की गई थी।पश्चिम बंगाल के कोलकाता के समीप बेलूर में इसका मुख्यालय है।

रामकृष्ण मिशन का उद्देश्य नव वेदान्त का प्रचार प्रसार करना है। यह मानव की सेवा को ही परोपकार और योग मानता है जो कि एक महत्वपूर्ण भारतीय दर्शन है। [4][5]

सत्यशोधक समाज

सत्यशोधक समाज की स्थापना महात्मा ज्योतिबा फुले ने महाराष्ट्र के पुणे में २४ सितंबर १८७३ को की थी। सत्यशोधक समाज का उद्देश्य दलित और महिला वर्ग के शैक्षणिक स्तर और और उनके समाजिक अधिकारों में सुधार लाना था। ज्योतिबा फुले की पत्नी सावित्रीबाई फुले समाज की महिला शाखा की अध्यक्ष थी।

सावित्रीबाई फुले को भारत की प्रथम शिक्षिका के तौर पर भी याद किया जाता है।

सत्यशोधक समाज की विचारधारा सार्वत्रिक अधिकारों का सिद्धांत ने गैर ब्राह्मण आंदोलन को गहराई से प्रभावित किया जिसका प्रभाव आगे के वर्षो में किसान आंदोलनों पर भी परिलक्षित हुआ।

सन् १९३० के करीब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में समाज के सदस्यों के शामिल हो जाने से समाज भंग हो गया।

प्रार्थना समाज

प्रार्थना समाज हिंदू समाज के बौद्धिक और आध्यात्मिक पुनरुत्थान हेतु स्थापित की गई एक संस्था थी जिसका उद्देश्य भारतीय समाज पर पाश्चात्य शिक्षा और क्रिस्चन मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव को रोकना था।

प्रार्थना समाज की स्थापना आत्माराम पांडुरंगने १८६७ में बॉम्बे में की थी। समाज के अन्य प्रमुख सदस्यों में वासुदेव नौरंगे और महादेव गोविंद रानाडे जैसे प्रमुख लोग शामिल थे।

प्रार्थना समाज सेवा और प्रार्थना को ईश्वर को पूजा मानता है ।उपनिषद और भगवद गीता समाज की शिक्षा के आधार हैं।

प्रार्थना समाज ने बाल विवाह, मूर्ति पूजा, जाति प्रथा जैसी रूढ़ियों के खिलाफ व्यापक कार्य किए। इसके प्रयासों का ही परिणाम था कि १८८२ में आर्य महिला समाज की स्थापना हुई।सन १८७५ में पंढरपुर में बाबजी नौरंगे बालकशाश्रम की स्थापना की गई।१८७८में पहला रात्रि विद्यालय खोला गया।शिक्षा के क्षेत्र में प्रार्थना समाज का योगदान सराहनीय हैं। प्रार्थना समाज के मुख्य नियम और सिद्धांत निम्नलिखित हैं :

  • ईश्वर ही इस ब्रह्मांड का रचयिता है।
  • ईश्वर की आराधना से ही इस संसार और दूसरे संसार में सुख प्राप्त हो सकता है।
  • ईश्वर के प्रति प्रेम और श्रद्धा, उसमें अनन्य आस्था-प्रेम, श्रद्धा, और आस्था की भावनाओं सहित आध्यात्मिक रूप से उसकी प्रार्थना और उसका कीर्तन, ईश्वर को अच्छे लगने वाले कार्यों को करना-- यह ही ईश्वर की सच्ची आराधना है। मूर्तियों अथवा अन्य मानव सृजित वस्तुओं की पूजा करना, ईश्वर की आराधना का सच्चा मार्ग नहीं है।
  • ईश्वर अवतार नहीं लेता और कोई भी एक पुस्तक ऐसी नहीं है, जिसे स्वयं ईश्वर ने रचा अथवा प्रकाशित किया हो, अथवा जो पूर्णतः दोष-रहित हो। [6]

सेवा सदन

पारसी समाज सुधारकहेहरामजमलबाबारी ने सेवा सदन की स्थापना अपने साथी दयाराम गिदुमल के साथ १९०८ में की।इन्होंने बाल विवाह के खिलाफ और विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में पुरजोर आवाज उठाई।

इन्ही के प्रयासों का नतीजा था कि सहमति की उम्र कानून बना जिसने महिलाओं के लिए सहमति देने को अनिवार्य कर दिया। सेवा सदन ने शोषित और समाज से तिरस्कृत महिलाओं के देख देख में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भारत धर्म महामंडल

रूढ़िवादी शिक्षित हिंदुओं का अखिल भारतीय स्तर पर यह संगठन रूढ़िवादी हिंदुत्व की रक्षा के लिए प्रयासरत था जिसका उद्देश्य आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन और थियोसोफिकल सोसायटी जैसे संगठनों के प्रभावों को रोकना था।

भारत धर्म महामंडल की उत्पत्ति १९०२ में तब हुई जब सनातन धर्म सभा, धर्म महा परिषद और धर्म महामंडली जैसी संस्थाओं ने साथ आना तय किया।

इसके प्रमुख कार्यों में हिंदू शैक्षणिक संस्थानों का संचालन शामिल था।पंडित मदन मोहन मालवीय इस आंदोलन के प्रमुख चेहरे थे।

श्री नारायण धर्म परिपालन आंदोलन

शोषित और शोषक वर्ग के टकराव से उत्पन्न एक क्षेत्रीय आंदोलन का उदाहरण है यह आंदोलन।इसकी शुरुआत श्री नारायण गुरु द्वारा केरल के एझावा समुदाय के लोगों के बीच किया गया जो कि अछूत माने जाते थे और मंदिरों में प्रवेश से वंचित रखे जाते थे।

श्री नारायण गुरु ने यह साबित किया की ईश्वर की आराधना उच्च वर्ण के लोगों का एकाधिकार नहीं था।

युवा बंगाल आंदोलन

१८२० - ३० के दशकों में बंगाल के युवाओं में एक उग्र, बुद्धिवजीवी धारा का विकास हुआ जिसे युवा बंगाल आंदोलन के नाम से जाना गया । इसकी शुरुआत कलकत्ता के हिंदू कॉलेज में पढ़ाने वाले आंग्ल भारतीय हेनरी विवियन डीरोजियो ने की थी।

इसका उद्देश्य लोगों को मुक्त और विवेकपूर्ण रूप से सोचना, सत्ता से सवाल करना, स्वतंत्रता, समानता और आजादी से प्रेम करना और रूढ़ियों का विरोध करना सीखाना था।

डीरोजिओ को बंगाल में आधुनिक सभ्यता के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है।

स्वाभिमान आंदोलन

स्वाभिमान आंदोलन की शुरूआत १९२० के मध्य में श्री रामास्वामी नायकर द्वारा की गई। आंदोलन का लक्ष्य ब्रह्मण धर्म और संस्कृति को नकारना था क्योंकि ब्रह्मण धर्म को वह निम्न वर्णों के शोषण का औजार मानते थे।

ब्राह्मणों की प्रभुसत्ता को चुनौती देने के लिए उन्होंने बगैर ब्राह्मण के शादी करने को बढ़ावा दिया।

स्वाभिमान आंदोलन का उख्य उद्देश्य ही जातिगत भेदभाव को दूर करना था।

मंदिर प्रवेश आंदोलन/ वायकॉम सत्याग्रह

मंदिर प्रवेश की दिशा में पहले ही नारायण गुरु और कुमारन असन जैसे लोगों ने महत्वपूर्ण काम किया था। आगे चलकर टी.के. माधवन ने ट्रावनकोर प्रशासन के समक्ष ये मुद्दा उठाया। इसी बीच ट्रावनकोर के हिस्से वायकॉम में इस मुद्दे ने जोर पकड़ लिया।

१९२४ में के. पी. केशव के नेतृत्व में शुरू किए वायकॉम सत्याग्रह में हिंदू मंदिरों और सड़कों को अछूतों के लिए खोलने की मांग की गई। त्रावणकोर के राजा के राज्य में अछूतों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता था। इसके खिलाफ यह आंदोलन शुरु हुआ। [7]

[8]


१९३१ में पुनः केरल में मंदिर प्रवेश आंदोलन शुरू किया गया। के. केलाप्पन की प्रेरणा से सुब्रमण्यम तिरुमंबू ने १६ सत्याग्रहियों के दल का नेतृत्व किया।

अंततः १२ नवंबर १९३६ को ट्रावनकोर के महाराज ने एक घोषनापत्र जारी किया जिसके तहत सारे सरकार नियंत्रित मंदिर सारे हिन्दू के लिए खोल दिए गए।

वहाबी आंदोलन

पश्चिमी प्रभावों के प्रतिक्रियास्वरूप मुस्लिम समाज का यह आंदोलन अरब के अब्दुल वहाब की शिक्षाओं से प्रेरित था। इसने इस्लाम के सच्चे मूल्यों की तरफ लौटने का आह्वान किया।

शाह वलीउल्लाह को शिक्षाओं को आगे चलकर शाह अब्दुल अजीज और सैय्यद अहमद बरेलवी ने लोकप्रिय बनाया और उन्हें एक राजनीतिक आयाम दिया।

भारत को दारुल हर्ब ( काफिरों की भूमि) समझा जाता था और इसे दारुल इस्लाम ( इस्लाम को भूमि) के रूप में बदलने की आवश्यकता थी।

वहाबी आंदोलन ने १८५७ की क्रांति के दौरान ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को भड़काने में अहम योगदान दिया।धीरे धीरे १८७० के करीब ब्रिटिश शक्तियों ने इस आंदोलन का दमन कर दिया।

फराइजी आंदोलन

इस्लामी दीन पर जोर देने वाले इस आंदोलन की शुरूआत हाज़ी शरीयतुल्लाह ने१८१९ में की थी। इसका कार्य क्षेत्र पूर्व बंगाल था।।ढाका बारीसाल आदि इस आंदोलन के मुख्य केंद्र थे। [9]

इसका उद्देश्य इस्लाम में घर कर गई गैर इस्लामी प्रवृतियों को दूर करना था।

१८४० के दशक में हाजी के पुत्र दादू मियां के नेतृत्व में आंदोलन ने क्रांतिकारी रुख अख्तियार कर लिया । फराइजियों ने बहुसंख्यक हिन्दू जमींदारों के शोषण के खिलाफ हथियारबंद विद्रोह किए।

सन् १८६२ में दादू मियां की मौत के बाद यह सिर्फ धार्मिक आंदोलन के रूप में बचा रहा।

अहमदिया आंदोलन

अहमदिया एक इस्लामी पंथ है जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई है।इसकी स्थापना मिर्जा गुलाम अहमद ने १८८९ में की थी।उदारवादी मूल्यों पर आधारित इस आंदोलन ने खुद को इस्लामिक पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा।

भारतीय मुसलमानों में पश्चिमी उदारवादी शिक्षा का प्रचार प्रसार इसका उद्देश्य था। मानवाधिकार और सहिष्णुता में उनका विश्वास था।

इसने राममोहन राय की तरह संपूर्ण मानवता के लिए सार्वत्रिक धर्म के सिद्धांत को स्वीकार किया।

अलीगढ़ आंदोलन

अलीगढ़ आंदोलन की शुरूआत एक उदारवादी आधुनिक विचारधारा के रूप में मुस्लिम आंग्ल प्राच्य महाविद्यालय,अलीगढ़ के मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बीच हुई।

सैयद अहमद खां के विचार में- जब तक विचार की स्वतंत्रता विकसित नहीं होती, सभ्य जीवन संभव नहीं है। उनका मानना था कि मुसलमानों का धार्मिक और सामाजिक जीवन पाश्चात्य वैज्ञानिक ज्ञान और संस्कृति को अपनाकर ही सुधारा जा सकता है। इसके लिए उन्होनें पश्चिमी ग्रंथों का उर्दू में अनुवाद करवाया [10]

इसका उद्देश्य भारतीय मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रचार करना, मुस्लिमों में पर्दा प्रथा, बहुपत्निक प्रथा, दासता,तलाक जैसी समाजिक कुरीतियों को दूर करना था।इनकी विचारधारा कुरान के उदारवादी व्याख्या पर आधारित थी और उन्होंने इस्लामी मूल्यों का आधुनिक मूल्यों से समंजन की कोशिश की।

अलीगढ़ आंदोलन के प्रणेता सर सैयद अहमद खान थे जिन्होंने सन् १८७५ में मुस्लिम आंग्ल प्राच्य महाविद्यालय ( परवर्ती अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) की स्थापना की। शीघ्र ही अलीगढ़ मुस्लिम समुदाय के सांस्कृतिक और धार्मिक पुनरुत्थान का केंद्र बन गया।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. "आधुनिक भारत का रहस्य-1". मूल से 28 दिसंबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 फ़रवरी 2010.
  2. "आर्यसमाज का राष्ट्र को योगदान". मूल से 22 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 अप्रैल 2018.
  3. आर्य समाज का विस्तार
  4. "The Ramakrishna Movement". Centre Védantique Ramakrishna. 26 November 2011. मूल से 2 जुलाई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 January 2018.
  5. "Ramakrishna Movement". Ramakrishna Vedanta Society of North Carolina. 15 July 2017. मूल से 14 जनवरी 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 January 2018.
  6. प्रार्थना समाज रिपोर्ट 1911-12. जे. एन. फर्कहार द्वारा माडर्न रिलीजस अमेन्ट्स इन इण्डिया में उद्धृत, पृ. 8०
  7. "God's own challenge". The Indian Express. 24 December 2018. अभिगमन तिथि 27 July 2021.
  8. N. Vanamamalai; Nā Vān̲amāmalai (1981). Interpretation of Tamil Folk Creations. Dravidian Linguistics Association.
  9. Khan, Muin-ud-Din Ahmad (2012). "Shariatullah, Haji". प्रकाशित Islam, Sirajul; Jamal, Ahmed A. (संपा॰). Banglapedia: National Encyclopedia of Bangladesh (Second संस्करण). Asiatic Society of Bangladesh.
  10. विपिन चन्द्र- आधुनिक भारत का इतिहास, ओरियंट ब्लैक स्वॉन प्राइवेट लिमिटेड, २00९, पृ-222, ISBN: 978 81 250 3681 4