भामह
आचार्य भामह काव्यशास्त्र के सुप्रसिद्ध आचार्य थे। इन्हें अलंकार संप्रदाय का जनक कहते हैं। "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्" इनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध काव्य परिभाषा है। उन का काल निर्णय भी अन्य पूर्ववर्ती आचार्यों की तरह विवादपूर्ण है। परंतु अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि भामह ३०० ई० से ६०० ई० के मध्ये हुए।[] उन्होंने अपने काव्य अलंकार ग्रन्थ के अन्त में अपने पिता का नाम रकृतगोविन बताया है। काव्यशास्त्र पर इनका काव्यालंकार नामक ग्रंथ उपलब्ध है। यह अलंकार शास्त्र का प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ है। जो २०वीं शताब्दी के आरम्भ में प्रकाशित हुआ था।
संस्कृत साहित्यशास्त्र प्रणेताओं में आचार्य भामह का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । उनके द्वार प्रणीत काव्यालङ्कार साहित्यशास्त्र का प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ है जिसमें साहित्यशास्त्र एक स्वतन्त्र शास्त्र के रूप में दिखाई पडता है । इसके पूर्व भरतमुनि द्वारा विरचित नाट्यशास्त्र के नवमें अध्याय में गौणरूप से काव्य के गुण , दोष , अलङ्कार आदि के लक्षण किये थे , किन्तु वे सब नाट्यशास्त्र के अङ्गरूप में ही थे । स्वतन्त्र रूप में साहित्यशास्त्र को एक अलग शास्त्र रूप प्रदान करने वाला आचार्य भामह का काव्यालङ्कार ही है । साहित्य शास्त्र की इस समृद्ध परम्परा में भरत मुनि के बाद एवं भामह के पूर्ववर्ति आचार्यों में मेधाविरुद्र का नाम भी मिलता है लेकिन उनकी रचना अभी तक कहीं उपलब्ध नहीं हुई । आचार्य भामह का ग्रन्थ भी अभी कुछ समय पूर्व ही प्राप्त हुआ है ।
उनकी रचना ‘काव्यलङ्कार’ के अन्तिम पद्य से ज्ञात होता है कि आचार्य भामह के पिता का नाम ‘रक्रिलगोमी’ था और ये काश्मीरी विद्वान् थे । कुछ इन्हें बौद्ध धर्मावलम्बी तो कुछ इन्हें ब्राह्मण मानते थे । चुंकि आचार्य भामह की रचना में व्याकरणाचार्य पाणिनि , भरत मुनि , महर्षि पतन्जलि , महाकवि गुणाढ्य , भास और कालिदास के विषयों का उल्लेख मिलता है तथा आचार्य उद्भट ,वामन और बाणभट्ट की कृतियों में आचार्य भामह के नाम का अथवा विषय का स्पष्ट उल्लेख मिलता है अतः विद्वानों ने एक मत से उनका समय ईसा की छठवीं शताब्दी स्वीकार किया है ।
आचार्य भामह एवं अलङ्कार सम्प्रदाय
नाट्यशास्त्र तथा अग्निपुराण के बाद सबसे प्रथम अलङ्कारों का अधिक विवेचन आचार्य भामह के काव्यालङ्कार में ही मिलता हैं , किन्तु उनके द्वारा जो अलंकार लिखे गये हैं वे प्रायः विभिन्न स्रोतों से एकत्रित हैं । स्वयं आचार्य अपने को काव्यालङ्कार में अलङ्कार सिद्धान्त का प्रवर्तक नहीं अपितु परिपोषक और परिवर्धक मात्र बताया है । किन्तु आचार्य भामह के पूर्ववर्ती आचार्यों के ग्रन्थ अनुपलब्ध होने से उपलब्ध ग्रन्थों के आधार पर आचार्य भामह को ही अलङ्कार सम्प्रदाय का प्रधान प्रतिनिधि माना जाता है । रचना – आचार्य भामह का आज हमें केवल काव्यालङ्कार ही एक मात्र ग्रन्थ उपलब्ध होता है । किन्तु साहित्य शास्त्र के ग्रन्थों के देखने से ज्ञात होता है कि उन्होंने इस काव्यालङ्कार के अतिरिक्त छन्दःशास्त्र और अलङ्कार शास्त्र के विषय में कुछ ग्रन्थों की रचना की थी , किन्तु दुर्भाग्यवश वे ग्रन्थ अब तक उपलब्ध नहीं हो सके । उन ग्रन्थों के उद्धरण भामह के नाम से विविध ग्रन्थों में पाये जाते हैं । भामह भट्ट के नाम से एक ग्रन्थ ओर मिलता हैं और वह है वररुचि के ‘प्राकृत-प्रकाश’ नामक प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ की ‘प्राकृत मनोरमा’ नाम की टीका । प्राकृत व्याकरण में इस टीका का बहुत महत्त्व है । पिशल आदि प्राकृत व्याकरण के विद्वानों ने काव्यालङ्कार और प्राकृतमनोरमा दोनों के लेखक एक ही भामह को माना है । इस प्रकार आचार्य भामह के वर्तमान में दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं – काव्यालङ्कार और प्राकृतमनोरमा ।
काव्यालङ्कार
आचार्य भामह की कीर्तिपताका को फहराने वाला यही काव्यालङ्कार ग्रन्थ है। इसमें कुल 6 परिच्छेद तथा 400 श्लोक हैं , जिसमें उन्होंने मुख्यरूप से 5 विषयों का प्रतिपादन किया है – काव्य शरीर , अलङ्कार , दोष , न्याय और शब्द शुद्धि। प्रथम परिच्छेद में उन्होंने 60 श्लोकों द्वारा काव्यशरीर के अन्तर्गत काव्य प्रशंसा , काव्य साधन , काव्य लक्षण , काव्य भेद आदि का निरूपण किया है । द्वितीय एवं तृतीय परिच्छेद में 160 श्लोकों के माध्यम से 2 शब्दालङ्कार एवं 36 अर्थालङ्कारों का वर्णन किया है । यदि लाटानुप्रास और प्रतिवस्तूपमा , जिनको भामह ने क्रमशः अनुप्रास और उपमा के भेदों में दिखाया है । , पृथक् गणना करें तो 40 अलंकारों का निरूपण है । चतुर्थ परिच्छेद में 50 श्लोकों द्वारा 10 दोषों का वर्णन किया गया है । पंचम परिच्छेद में 70 श्लोकों के द्वारा न्याय दर्शन से सम्बन्धित प्रमाणादि का विवेचन किया है । यद्यपि काव्य की रचना से इस न्याय विषय का कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं है लेकिन काव्य दोष निवारण के लिए इसका ज्ञान आवश्यक है । 11 वें दोष का वर्णन इसी परिच्छेद में है । षष्ठ परिच्छेद में प्रायः 60 श्लोकों के माध्यम से भाषा शुद्धि एवं शब्द शुद्धि की चर्चा की गयी है । इस काव्यालङ्कार ग्रन्थ पर नवमी शताब्दी में उद्भट आचार्य ने ‘भामहविवरण’ नाम से एक टीका लिखी थी । किन्तु दुर्भाग्य से आज वह उपलब्ध नहीं है । परवर्ती कई आचार्यों मे आचार्य भामह के इस ग्रन्थ का उल्लेख अपने ग्रन्थों में किया है ।