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भागवत धर्म

भागवत धर्म वैष्णव धर्म का अत्यंत प्रख्यात तथा लोकप्रिय स्वरूप। 'भागवत धर्म' का तात्पर्य उस धर्म से है जिसके उपास्य स्वयं भगवान्‌ हों। और वासुदेव कृष्ण ही 'भगवान्‌' शब्द वाच्य हैं (कृष्णस्तु भगवान्‌ स्वयम्‌ : भागवत) अत: भागवत धर्म में कृष्ण ही परमोपास्य तत्व हैं जिनकी आराधना भक्ति के द्वारा सिद्ध होकर भक्तों को भगवान्‌ का सान्निध्य तथा सेवकत्व प्राप्त कराती है। सामान्यत: यह नाम वैष्णव संप्रदायों के लिए व्यवहृत होता है, परंतु यथार्थत: यह उनमें एक विशिष्ट संप्रदाय का बोधक है। भागवतों का महामंत्र है 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' जो द्वादशाक्षर मंत्र की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। पांचरात्र तथा वैखानस मत 'नारायण' को ही परम तत्व मानते हैं, परंतु इनसे विपरीत भागवत मत कृष्ण वासुदेव को ही परमाराध्य मानता है। भागवत धर्म को मुख्य रूप से आभीरों का धर्म माना जाता था और कृष्ण स्वयं आभीर के रूप में जाने जाते थे। मध्यकालीन साहित्य में, कृष्ण को आभीर कहा गया है।[1]

प्राचीनता

इस धर्म की प्राचीनता अनेक पुष्ट प्रमाणों के द्वारा प्रतिष्ठित है। गुप्त सम्राट् अपने को 'परम भागवत' की उपाधि से विभूषित करने में गौरव का अनुभव करते थे। फलत: उनके शिला लेखों में यह उपाधि उनके नामों के साथ अनिवार्य रूप से उल्लिखित है। विक्रमपूर्व प्रथम तथा द्वितीय शताब्दियों में भागवत धर्म की व्यापकता तथा लोकप्रियता शिलालेखों के साक्ष्य पर निर्विवाद सिद्ध होती है। श् ईसवी पूर्व प्रथम शतक में महाक्षत्रप शोडाश (80 ई. पूर्व से 57 ई. पू.) मथुरा मंडल का अधिपति था। उसके समकालीन एक शिलालेख का उल्लेख है कि वसु नामक व्यक्ति ने महास्थान (जन्मस्थान) में भगवान्‌ वासुदेव के एक चतु:शाल मंदिर, तोरण तथा वेदिका (चौकी) की स्थापना की थी। मथुरा में कृष्ण के मंदिर के निर्माण का यह प्रथम उल्लेख है। नानाघाट के गुहाभिलेख (प्रथम शती ई. पू.) में अन्य देवों के साथ संकर्षण तथा वासुदेव का नाम भी लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित संकर्षण (बलराम) की द्विभुजी प्रतिमा (जिसके दाहिने हाथ में मूसल और बाएँ हाथ में हल है) इसी युग की मानी गई है। बेसनगर का प्रख्यात शिलालेख (200 ई. पू.) इस विषय में विशेष महत्व रखता है। इस शिलालेख का कहना है कि हेलियोदोर ने देवाधिदेव वासुदेव की प्रतिष्ठा में इस गरुडस्तंभ का निर्माण किया था। यह दिय का पुत्र, तक्षशिला का निवासी था जो राजा भागभद्र के दरबार में अंतलिकित (भारतीय ग्रीक राजा 'एंटिअल किडस') नामक यवनराज का दूत बनकर रहता था। यूनानी राजदूत अपने को 'भागवत' कहता है। इस शिलालेख का ऐतिहासिक वैशिष्ट्य यह है कि उस युग में वासुदेव देवाधिदेव (अर्थात्‌ देवों के भी देव) माने जाते थे और उनके अनुयायी 'भागवत' नाम से प्रख्यात थे। भागवत धर्म भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था और यह विदेशी यूनानियों के द्वारा समादृत होता था। पातंजल महाभाष्य से प्राचीनतर महर्षि पाणिनि के सूत्रों की समीक्षा भागवत धर्म की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए नि:संदिग्ध प्रमाण है।

पाणिनि ने 'वासुदेवार्ग्जुनाभ्यां बुन्‌' (4.3.98) सूत्र में वासुदेव की भक्ति करनेवाले व्यक्ति के अर्थ में न्‌ (अक) प्रत्यय का विधान किया है जिससे वासुदेव भक्त (वासुदेवो भक्तिरस्य) के लिए 'वासुदेवक' शब्द निष्पन्न होता है। इस सूत्र के भाष्य तथा प्रदीप के अनुशीलन से 'वासुदेव' का अर्थ नि:संदिग्ध रूप से परमात्मा ही होता है, वसुदेव नामक क्षत्रिय का पुत्र नहीं :

संज्ञैषा तत्र भगवत: (महाभाष्य)

नित्य: परमात्मदेवताविशेष इह वासदेवो गृह्यते (प्रदीप)

कैयट का कथन है कि यहाँ नित्य परमात्मा देवता ही 'वासुदेव' शब्द से गृहीत किया गया है। काशिका इसी अर्थ की पुष्टि करती है (संज्ञैषा देवताविशेषस्य न क्षत्रियाख्या, 4.3.98 सूत्र पर काशिका) तत्वबोधिनी में इसी परंपरा में 'वासुदेव' का अर्थ परमात्मा किया गया है। पंतजलि के द्वारा 'कंसवध' तथा 'बलिबंधन' नाटकों के अभिनय का उल्लेख स्पष्टत: कृष्ण वासुदेव का ऐक्य 'विष्णु' के साथ सिद्ध कर रहा है : इसे वेबर, कीथ, ग्रियर्सन आदि पाश्चात्य विद्वान्‌ भी मानते हैं। इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि पाणिनि के युग में (ई. पूर्व षष्ठ शती में) भागवत धर्म प्रतिष्ठित हो गया था। इतना ही नहीं, उस युग में देवों की प्रतिमा भी मंदिरों में या अन्यत्र स्थापित की जाती थी। ऐसी परिस्थिति में पाणिनि से लगभग तीन सौ वर्ष पीछे चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार का यूनानी राजदूत मेगस्थीनीज जब मथुरा तथा यमुना के साथ संबद्ध 'सौरसेनाई' (शौरसेन) नामक भारतीय जाति में 'हेरिक्लीज़' नामक देवता की पूजा का उल्लेख करता है, हमें आश्चर्य करने का अवसर नहीं होता। 'हेरिक्लीज़' शौर्य का प्रतिमान बनकर संकर्षण का द्योतक हो, चाहे कृष्ण का। उनकी पूजा भागवत धर्म का प्रचार तथा प्रसार का संशयहीन प्रमाण है।

भागवत धर्म अपनी उदारता और सहिष्णुतावृत्ति के कारण अत्यंत प्रख्यात है। इस धर्म में दीक्षित होने का द्वार किसी के लिए कभी बंद नहीं रहा। भगवान्‌ वासुदेव के प्रति प्रेम रखनेवाला प्रत्येक जीव इस धर्म में आ सकता है, चाहे वह जात्या कोई भी हो तथा गुणत: कितना भी नीच हो। भागवत पुराण का यह प्रख्यात कथन भागवत धर्म के औदार्य का स्पष्ट परिचायक है :

किरात हूणध्रां पुलिंद पुल्कसा

आभीरकंका यवना खशादय:।

येऽन्ये पापा यदुपाश्रयाश्रया:

शुध्यंति तस्मै प्रभविष्णवे नम:।। (भा. 2)

श्लोक का तात्पर्य है कि किरात, हूण, आंध्र, पुलिंद, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन, खश आदि जंगली तथा विधर्मी जातियों ने और अन्य पापी जनों ने भगवान्‌ के भक्तों का आश्रय लेकर शुद्धि प्राप्त की है, उन प्रभावशाली भगवान्‌ को नमस्कार। यवन हेलियोदोर का भागवत धर्म में दीक्षित होना इस पथ का ऐतिहासिक पोषक प्रमाण है। यह भागवतों की सहिष्णुतावृत्ति का नि:संशय परिचायक तथा उद्बोधक है।

भागवत मत में अहिंसा का साम्राज्य है। भागवत मत वैदिक यज्ञयागों के अनुष्ठानों का विरोधी नहीं है, परंतु वैदिक यज्ञों में यह हिंसा का प्रबल विरोधी है, नारायणीय पर्व के भगवद्भक्त राजा उपरिचर का आख्यान इसी सिद्धांत को पुष्ट करता है। उस नरपति ने महान्‌ अश्वमेध किया, परंतु उसमें किसी प्रकार के पशु का हिंसन तथा बलिदान नहीं किया गया (संभूता : सर्वसंभारास्तमिन्‌ राजन्‌ महाक्रतौ। न तत्र पशुघातोऽभूत्‌ स राजैवं स्थितोऽभवत्‌। : शांतिपर्व, अ. 336, श्लो.10)। 'मा हिंस्यात्‌ सर्वा भूतानि' इस श्रुतिवाक्य का अक्षरश: अनुगमन भागवतों ने ही सर्वप्रथम किया तथा इसका पालन अपने आचारानुष्ठानों में किया।

साध्य पक्ष

भागवत मत का सर्वश्रेष्ठ मान्य ग्रंथ है : श्रीमद्भागवत जो अष्टादश पुराणों में अपने विषयविवेचन की प्रौढ़ता तथा काव्यमयी सरसता के कारण सबसे अधिक महत्वशाली है (दे. 'भागवत')। भागवत के सिद्धांत भागवतधर्म के महनीय तथा माननीय सिद्धांत हैं। भागवत का कथन है कि परमार्थत: एक ही अद्वय ज्ञान है। वही ज्ञानियों के द्वारा 'ब्रह्म', योगियों के द्वारा 'परमात्मा' तथा भगवद्भक्तों के द्वारा 'भगवान्‌' कहा जाता है। भेद है उपासकों की दृष्टि का तथा उपासना के केवल तारतम्य का। एक अभिन्न परम तत्व नाना उपासना की दृष्टि में भिन्न प्रतीत होता है, परंतु वह अभिन्न अद्वयज्ञान रूप :

वदंति तत्‌ तत्वविदस्तत्वं. यज्‌ ज्ञानमद्वयम्‌

ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।: (भाग. 1.2:11)

शक्तियों की संपत्ति ही भगवान्‌ की भगवत्ता है। यह शक्ति एक न होकर अनेक हैं तथा अचिंतनीय है। अचिंत्यशक्ति का निवास होने के कारण वह 'लीलापुरुषोत्तम' है। इसी के कारण वह एक होते हुए भी अनेक प्रतीत होता है और भासित होने पर भी वह वस्तुत: एक है। इसीलिए वह बहुमूर्तिक होने पर भी एकमूर्तिक है (यजंति त्वन्मयास्त्वाँ वै बहुमूल्येकमूर्तिकम्‌, भाग. 10.40.7)। विष्णुपुराण के 'एकाने स्वरूपाय' तथा गोपालतापिनी के 'एकोऽपि सन्‌ बहुधा यो विभाति' वाक्य का लक्ष्य इसी अचिंत्य शक्ति की ओर है। इसी शक्ति के कारण भगवान्‌ आश्रयशून्य, शरीररहित तया स्वयं अगुण होते हुए भी अपने स्वरूप के द्वारा ही इस सगुण विश्व की सृष्टि, स्थिति तथा संहार करते हैं, परंतु इन व्यापारों की सत्ता होने पर भी उनमें किसी भी प्रकार का बिकार उत्पन्न नहीं होता। इसलिए भगवान्‌ का विहारयोग दु:खबोध है, समझने में नितांत कठिन है :

दु:खबोध एवायं तव विहारयोग:, यद् अशरणो शरीर इदमनवेक्षि तात्मत्समवाय आत्मनैव अविक्रियमाणेन सगुणमगुण: सृजसि पासि हरसि (भाग. 6.9.34)।

इस प्रकार भगवान्‌ का स्वरूप तीन प्रकार का प्रतीत होता है :

  • (क) स्वयंरूप
  • (ख) तदेकात्मक रूप और
  • (ग) आवेशरूप।

इनमें 'स्वयंरूप' ही अनन्यापेक्षी मुख्यरूप है। सच्चिदानंद विग्रह, परम सौंदर्यनिकेतन, परमनयनाभिराम स्वयंरूप ही भगवान्‌ का सर्वश्रेष्ठ रूप है। 'तदेकात्मकरूप' स्वयंरूप के साथ एकता रखने पर भी आकृति, आकार तथा चरितादिकों के द्वारा उससे भिन्न के समान प्रतीत होता है। शक्तियों के उत्कर्ष और ्ह्रास के कारण इस रूप में दो प्रकार होते हैं : विलास तथा स्वांश। 'विलास' का रूप मूलरूप से आकृति में भिन्न रहता है, परंतु गुणों में वह प्राय: समान ही होता है। विलास में शक्ति का प्राकट्य अधिक होता है, परंतु 'स्वांश' में शक्ति का प्राकट्य तदपेक्षया न्यून होता है। स्वयंरूप के अनंत गुणों की सत्ता होने पर भी 64 गुणों का अस्तित्व और उनमें भी चार गुणों का अस्तित्व सर्वदा तथा सर्वथा माना जाता है। ये गुण हैं :

  • (1) लोकों को चमत्कृत करनेवाली लीला,
  • (2) प्रेम द्वारा सुशोभित 'प्रियमंडल',
  • (3) चराचर को मुग्ध करनेवाली रूपमाधुरी तथा
  • (4) जड़चेतन को विस्मित करनेवाला मुरलीनिनाद।

कृष्ण में इन चारों का सद्भाव उनकी भगवत्ता सिद्ध करने का परम उपाय है। 'आवेश' रूप में भगवान्‌ जीवों में न्यूनाधिक रूप से अपनी शक्ति का आधान करते हैं। यह उनका सबसे छोटा रूप माना जाता है।

साधनपक्ष

भगवान्‌ की उपलब्धि का एकमात्र साधन है : भक्ति। यह भक्ति मुक्ति से भी बढ़कर है। सामान्य जन आनंदमयी मुक्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं, परंतु भक्तों की दृष्टि में वह नितांत हेय तथा नगण्य वस्तु है। प्रियतम के पाद्मों की सेवा ही उसका एकमात्र लक्ष्य होता है। भगवान्‌ मुक्ति देने के लिए उत्सुक रहते हैं, परंतु एकांती भक्त उसे कथमपि ग्रहण नहीं करता :

न किंचित्‌ साधवी धीरा भक्ता ह्येकांतिनो मय।

वांछंत्यपि मया दत्तं कैवल्यमपुनर्भवम्‌।। (भाग. 11.20.34)

भगवान्‌ का भी आग्रह मुक्ति की अपेक्षा भक्ति पर ही अधिक है। माँगने पर भक्तों को वह मुक्ति तो देते हैं, परंतु भक्ति नहीं:

...... भगवान्‌ भजतां मुकुंदो

मुक्तिं ददाति कहिंचित्‌ स्म न भक्तियोगम्‌।। (भाग. 5.6.18)

तीव्र ज्ञान के बल पर मुक्ति की उपलब्धि होना एक सामान्य सर्वपरिचित व्यापार है, परंतु भक्ति की प्राप्ति भगवान्‌ की केवल कृपा से ही साध्य होती है। मुक्ति की अपेक्षा भक्ति के आकर्षण का एक गोपनीय रहस्य है। ज्ञान के द्वारा उपलभ्य ब्रह्मानंद की अपेक्षा प्रेमाभक्ति का दर्जा कहीं ऊँचा है, क्योंकि ब्रह्मानंद रस नहीं होता, किंतु भक्ति रसात्मिका है। वासना के विनाश से उत्पन्न आनंद को भक्त तनिक भी नहीं चाहता, वह वासना के विशोधन (सब्लिमेशन) से जायमान अलौकिक रसानंद के लिए लालायित रहता है। इसीलिए मुक्ति बढ़कर भक्ति की कक्षा होती है। परंतु यह भक्ति साधनरूपा बैधी भक्ति नहीं है, अपितु साध्यरूपा रागानुगा प्रेमाभक्ति है जिसके विषय में भागवत प्रवर प्रह्लाद का यह अनुभूत कथन है :

न दानं न तपो नेज्या न शौचं न व्रतानि च।

प्रीयतेऽमलया भक्त्या हरिरन्यद् विडंबनम।।

रागानुगा भक्ति की यह गंभीर मीमांसा भागवत धर्म की विश्व के धर्मो को महनीय देन है।

सन्दर्भ ग्रन्थ

  • श्रीरूप गोस्वामी : लघुभागवतामृतम्‌, वेंकटेश्वर प्रेस, मुंबई;
  • जीव गोस्वामी : षट् संदर्भ (विशेषत: भक्ति संदर्भ और प्रीति संदर्भ);
  • डॉ॰ भांडारकर : वैष्णविज्म ऐंउ माइनर सेक्ट्स, पूना, 1918;
  • गोपीनाथ कविराज : भक्तिरहस्य, भारतीय दर्शन और साधना भाग 2;
  • बलदेव उपाध्याय : भगवत संप्रदाय, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी सं. 2010;
  • बलदेव उपाध्याय : भारतीय साहित्य में श्रीराधा, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना सं. 2020
  1. Dange, Sindhu S. (1984). The Bhāgavata Purāṇa: Mytho-social Study (अंग्रेज़ी में). Ajanta Publications. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-8364-1132-4. the Bhāgavata religion was considered primarily as the religion of the Ābhīras and Krşņa himself came to be known as an Ābhira. In the mediaeval literature, Krsna is called an Ābbira.