भट्टी
ऐसी युक्तियों को भट्ठी (furnace) कहते हैं जो किसी वस्तु को गरम करने के काम आती है। सबसे पुरानी भट्ठी बालाकोट नामक स्थान से खुदाई में मिली है जो सिन्धु घाटी की सभ्यता का एक स्थान है। सम्भवत: इस भट्ठी का उपयोग सिरैमिक वस्तुओं के निर्माण में होता था।
भारत में भट्ठियों का इतिहास
सैद्धांतिक रसायन शास्त्र का मूलाधार परमाणुओं की प्रकृति का सही ज्ञान एवं उनमें परस्पर बंधता का गुण है। परमाणु संबंधी आधुनिक मान्यता के आदि पुरुष डाल्टन माने जाते हैं। परंतु उनसे बहुत पहले ईसा से 600 वर्ष पूर्व ही कणाद मुनि ने परमाणुओं के संबंध में जिन धारणाओं का प्रतिपादन किया, उनसे आश्चर्यजनक रूप से डाल्टन की संकल्पना मेल खाती है। कणाद ने न केवल परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिनमें इस तत्व के समस्त गुण उपस्थित होते हैं बल्कि ऐसी इकाई को "परमाणु" नाम भी उन्होंने ही दिया तथा यह भी कहा कि परमाणु स्वतंत्र नहीं रह सकते।
कणाद की धारणा
कणाद की परमाणु संबंधी यह धारणा उनके वैशेषिक सूत्र में निहित है। कणाद आगे यह भी कहते हैं कि एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर "द्विणुक" का निर्माण कर सकते हैं। यह द्विणुक ही आज के रसायनज्ञों का "वायनरी मालिक्यूल" लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि भिन्न भिन्न पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं। यहां निश्चित रूप से कणाद रासायनिक बंधता की ओर इंगित कर रहे हैं। वैशेषिक सूत्र में परमाणुओं को सतत गतिशील भी माना गया है तथा द्रव्य के संरक्षण (कन्सर्वेशन ऑफ मैटर) की भी बात कही गई है। ये बातें भी आधुनिक मान्यताओं के संगत हैं।
रासायनिक बंधता को और अधिक स्पष्ट करते हुए जैन दर्शन में कहा गया है कि कुछ परमाणुओं में स्निग्धता और कुछ में "रुक्षता" के गुण होते हैं तथा ऐसी भिन्न प्रकृति वाले परमाणु आपस में सहजता से संयुक्त हो सकते हैं जबकि समान प्रकृति के परमाणुओं में सामान्यत: संयोग की प्रवृत्ति नहीं होती। ऐसा आभास होता है कि जैसे आयनी बंधता की व्याख्या की जा रही है।
प्रायोगिक रसायन में काम आने वाले उपकरणों पर भी प्राचीन भारतीय रसायन शास्त्र में विस्तार से चर्चा हुई है। रासायनिक प्रयोगों एवं औषधि विरचन के लिए रसायनज्ञ 32 कोटि के उपकरणों का प्रयोग अपनी प्रयोगशाला में करते थे, जिनकी सहायता से आसवन, संघनन, ऊर्ध्वपातन, द्रवण आदि सभी प्रकार की क्रियाएं संपादित की जा सकती थीं। इनमें से बहुतों का व्यवहार आज भी औषधि विरचन के लिए वैद्य कर रहे हैं। प्रयोगशालाओं के लेआउट का भी वर्णन रसरत्न समुच्चय में मिलता है। ग्रंथों में अनेक प्रकार की कुंडियों, भठ्ठियों, धौंकानियों एवं क्रूसिबिलों के विशद विवरण उपलब्ध हैं। इनकी भिन्नता धातुकर्म अथवा रासायनिक प्रयोगों के लिए उपयुक्त ताप प्रदान करने की उनकी क्षमता के कारण थी। रसरत्न समुच्चय में महागजपुट, गजपुट, वराहपुट, कुक्कुटपुट एवं कपोतपुट भठ्ठियों का वर्णन है, जो केवल प्रयुक्त उपलों की संख्या और उनकी व्यवस्था के आधार पर 7500 से 9000 तक का भिन्न-भिन्न ताप उत्पन्न करने में समर्थ थीं। उदाहरणार्थ, महागजपुट के लिए 2000, परन्तु निम्नतम ताप उत्पन्न करने वाली कपोतपुट के लिए केवल 8 उपलों की आवश्यकता पड़ती थी। इनके द्वारा उत्पन्न तापों की भिन्नता आधुनिक तकनीकी द्वारा सिद्ध हो चुकी है। 9000 से भी अधिक ताप के लिए वाग्भट्ट ने चार भठ्ठियों का वर्णन किया है- अंगारकोष्ठी, पातालकोष्ठी, गोरकोष्ठी एवं मूषकोष्ठी। पातालकोष्ठी का वर्णन लोहे के धातुकर्म में प्रयुक्त होने वाली आधुनिक "पिट फर्नेस" से अत्यधिक साम्य रखता है। धातु प्रगलन के लिए भट्ठियों से उच्च ताप प्राप्त करने के लिए भारद्वाज मुनि के वृहद् विमान शास्त्र में 532 प्रकार की धौंकनियों का वर्णन किया गया है। इसी ग्रंथ में 407 प्रकार की क्रूसिबिलों की भी चर्चा की गई है। इनमें से कुछ के नाम हैं- पंचास्यक, त्रुटि, शुंडालक आदि। सोमदेव के रसेन्द्र चूड़ामणि में पारद-रसायन के सन्दर्भ में जिस ऊर्ध्वपातन यंत्र तथा कोष्ठिका यंत्र का वर्णन है, उसका आविष्कार किसी नंदी नामक व्यक्ति ने किया था।
धातुकर्म कौशल
भट्टियों के बिना धातुकर्म की कल्पना नहीं की जा सकती। भारत की भट्टिया विश्वप्रसिद्ध रहीं है। १८वीं शताब्दी तक अनेकों ब्रिटिश प्रेक्षक यहाँ के लौहनिर्माण एवं भट्टियों से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होने लौह निर्माण की कुछ प्रक्रमों के बरे में विस्तार से लिखकर इंग्लैण्ड भेजा था। जेम्स फ्रैंकलिन नामक ब्रितानी ने भारतीय भट्ठियों और लौहनिर्माण के प्रयेक पक्ष के बारे में विस्तार से लिखा था। उसने अन्त में पूछा है, "क्या विश्व की कोई अन्य भट्टी इन भट्टियों से स्पर्धा कर सकती है?" इसी प्रकार, मद्रास स्थित सहायक सर्वेयर जनरल कैप्टेन जे कैम्बेल (Cambell) ने लिखा, "भारतीय लोहे के बारे में मैने जो देखा है, सही कहूँ तो भारत का सबसे घटिया लोहा इंग्लैण्ड के सबसे उत्तम लोहे जैसा है।"[1]
रसायन के क्षेत्र में विश्व में प्राचीन भारत की प्रसिद्धि मुख्यत: अपने धातुकर्म कौशल के लिए रही है। मध्यकाल में भारत का इस्पात यूरोप, चीन और मध्यपूर्व के देशों तक पहुंचा। इतिहास में दमिश्क की जिन अपूर्व तलवारों की प्रसिद्धि है वे दक्षिण भारत के इस्पात (वुट्ज इस्पात) से ही बनाई जाती थीं। आज से 1500 वर्ष पूर्व निर्मित और आज भी जंग से सर्वथा मुक्त दिल्ली के महरौली का स्तंभ भारतीय धातुकर्म की श्रेष्ठता का प्रतीक है। यही बात ब्रिाटिश म्यूजियम में रखे बिहार से प्राप्त चौथी शताब्दी की तांबे से बनी बुद्ध की 2.1 मीटर ऊंची मूर्ति के बारे में भी कही जा सकती है। भारत में अत्यंत शुद्ध जस्ता एवं पीतल के उत्पादन भी प्रमाणित हैं।
कौटिल्य के "अर्थशास्त्र" में लोहा, तांबा, रजत, स्वर्ण, सीसा एवं टिन धातुओं के अयस्कों की सटीक पहचान उपलब्ध है। लोहे के लिए रक्ताभ भूरे हेमेटाइट (सिंधुद्रव) एवं कौवे के अंडे के रंग वाले मैग्नेटाइट (बैक्रुंटक) तांबे के लिए कॉपर पाइराइटिज, मैलाकाइट, एज्यूराइट एवं नेटिव कॉपर, रजत के लिए नेटिव सिल्वर, स्वर्ण के लिए नेटिव गोल्ड, सीसा के लिए रजत अथवा स्वर्ण मिश्रित गैलेना एवं बंग के लिए कैसेटिराइट अयस्कों की उनके रंगों के आधार पर पहचान वर्णित है। संस्कृत साहित्य में पारद के सिनाबार तथा जस्त के कैलामाइन अयस्कों का समुचित वर्णन उपलब्ध है। अर्थशास्त्र में ही अनेकों अयस्कों में मिश्रित कार्बनिक अशुद्धियों से मुक्ति की क्रिया भी वर्णित है। इसके लिए उच्च ताप पर गर्म कर विघटित करने का विधान है। अकार्बनिक अशुद्धियों से मुक्ति के लिए रसरत्न समुच्चय में अयस्क के साथ बाह्र पदार्थ, फ्लक्स को मिलाकर और इस मिश्रण को गर्म कर उन्हें धातुमल के रूप में अलग कर देने का विधान है। धातु विरचन के सभी उत्खनन स्थलों पर ये फ्लक्स प्राप्त हुए हैं। उदाहरणार्थ, सिलिका के निष्कासन के लिए चूना पत्थर का प्रयोग आम बात थी ताकि कैल्सियम सिलिकेट पृथक हो सके। ये सभी बातें आज के धातुकर्म विज्ञान से असंगत हैं। सामान्य धातुओं में लोहा|लोहे]] का गलनांक सर्वाधिक है- 1500 डिग्री सेल्सियस। हमारे वैज्ञानिक पूर्वज इस उच्च ताप को उत्पन्न करने में सफल रहे थे। बताया ही जा चुका है कि इसके लिए प्रयुक्त पातालकोष्ठी भठ्ठी आज की पिट फर्नेस से मिलती-जुलती थी। अन्य तीन भठ्ठियों-अंगारकोष्ठी, मूषकोष्ठी एवं गारकोष्ठी के उपयोग की भी अनुशंसा वाग्भट्ट ने की है। वाग्भट्ट ने ही लौह धातुकर्म के लिए भर्जन एवं निस्पातन क्रियाओं का भी सांगोपांग वर्णन किया है। लौह अयस्क के निस्पातन के लिए हिंगुल (गंधक एवं पारद) का उपयोग किया जाता था तथा भर्जन के लिए छिछली भठ्ठियों की अनुशंसा की गई है, जो पूर्णत: वैज्ञानिक है। इन प्रक्रियाओं में आक्सीकृत आर्सेनिक, गंधक, कार्बन आदि मुक्त हो जाते थे तथा फेरस आक्साइड, फेरिक में परिवर्तित हो जाता था। सुखद आश्चर्य की बात है कि रसरत्न समुच्चय में छह प्रकार के कार्बीनीकृत इस्पातों का उल्लेख है। बृहत्त संहिता में लोहे के कार्बोनीकरण की विधि सम्पूर्ण रूप से वर्णित है।
इतिहास सम्मत तथ्य
यह इतिहास सम्मत तथ्य है कि विश्व में तांबे का धातुकर्म सर्वप्रथम भारत में ही प्रारंभ हुआ। मेहरगढ़ के उत्खनन में तांबे के 8000 वर्ष पुराने नमूने मिले हैं। उत्खनन में ही अयस्कों से तांबा प्राप्त करने वाली भठ्ठियों के भी अवशेष मिले हैं तथा फ्लक्स के प्रयोग से लौह को आयरन सिलिकेट के रूप में अलग करने के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं।
नागार्जुन के रसरत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन विधि वर्णित है। ऐसी ही विधि रसरत्न समुच्चय तथा सुश्रुत एवं चरक संहिताओं में भी दी गई है तथा आसवन के लिए ढेंकी यंत्र की अनुशंसा की गई है। स्मरणीय है कि इस विधि का आधुनिक विधि से आश्चर्यजनक साम्य है। चरक ने पारद के शोधन की 108 विधियां लिखी हैं।
गोविंद भागवत्पाद ने अपने रस हृदयतंत्र में पारद को सीसा एवं वंग से पृथक करने की विधि लिखी है। रसार्णवम् में वंग के धातुकर्म का वर्णन करते हुए सीसा के धातुकर्म का भी उल्लेख किया गया है। सीसा को अयस्क से प्राप्त करने के लिए हाथी की हड्डियों तथा वंग के लिए भैंसे की हड्डियों के प्रयोग का विधान दिया गया है। स्पष्टत: हड्डियों का कैल्सियम फ्लक्स के रूप में कार्य करते हुए अशुद्धियों को कैल्सियम सिलिकेट धातुमल के रूप में पृथक कर देता था। आज भी आधारभूत प्रक्रिया यही है यद्यपि कैल्सियम को जैविक श्रोत के रूप में न प्रयोग कर अकार्बनिक यौगिक के रूप में मिलाया जाता है। कैसेटिराइट के आक्सीकृत वंग अयस्क के अपचयन के लिए विशिष्ट वनस्पतियों की अनुशंसा की गई है, जो कार्बन के श्रोत का कार्य करती थीं।
अद्भुत मिश्र धातु
जस्त एवं अन्य धातु, जो प्राचीन भारत में अपनी अद्भुत मिश्र धातु निर्माण क्षमता के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण थी, इन्हें कैलेमाइन अयस्क से प्राप्त किया जाता था। इसके धातुकर्म की भठ्ठियां, जो राजस्थान में प्राप्त हुई हैं, वे ईसा पूर्व 3000 से 2000 वर्ष पूर्व तक की हैं। धातुकर्म में मुख्य पद आसवन का ही है जो आधुनिक समय में भी प्रासांगिक है। रसरत्न समुच्चय में संपूर्ण विधि वर्णित है। स्मरणीय है कि 1597 में लिबावियस नामक व्यक्ति इसे भारत से लेकर यूरोप पहुंचा। 1743 में विलियम चैंपियन नामक अंग्रेज ने कैलामाइन अयस्क आधारित धातुकर्म के आविष्कार का दावा करते हुए इसके पेटेंट के लिए प्रार्थना पत्र दिया। परंतु कलई खुल गई और पता चला कि वह समस्त तकनीकी भारत में राजस्थान की जवार खानों से लेकर गया था। इसके लिए उसकी अत्यधिक भत्र्सना की गई।
नागार्जुन के रस रत्नाकर में रजत के धातुकर्म का वर्णन तो विस्मयकारी है। नेटिव सिल्वर (अशुद्ध रजत) को सीसा और भस्म के साथ मिलाकर लोहे की कुंडी में पिघलाइये, शुद्ध रजत प्राप्त हो जाएगा। गैलेना अयस्क, जो रजत और सीसे का एक प्रकार का एलाय है, को तो बिना बाहर से सीसा मिलाए ही गलाये जाने का विधान है। यह विधि आज की क्यूफ्लेशन विधि से आश्चर्यजनक साम्य रखती है। अंतर केवल इतना है कि आज की विधि में क्यूपेल (कुंडी) के अंदर किसी संरंध्र पदार्थ का लेप किया जाता है जबकि प्राचीन काल में बाहर से मिलाई गई भस्म यही कार्य करती थी। दृष्टव्य है कि कौटिल्य के काल में लोहे की कुंडी के स्थान पर खोपड़ी के प्रयोग का वर्णन है। यहां यह खोपड़ी भी संरंध्र पदार्थ का ही कार्य करती थी, जिसमें सीसा अवशोषित हो जाता होगा।
कौटिल्य ने लिखा है कि स्वर्ण को नेटिव रूप में नदियों के जल अथवा चट्टानों से प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी चट्टानें पीताभ अथवा हल्के पीत-गुलाबी रंग की होती हैं और इन्हें तोड़ने पर नीली धरियां दृश्य हो जाती हैं। यह अत्यंत सटीक वर्णन है। अत्यंत शुद्ध धातु की प्राप्ति के लिए जैविक पदार्थों के साथ गर्म करने का विधान है। सीसे के साथ मिलाकर भी शुद्ध करने की अनुशंसा है जो आज की पद्धति में कोई स्थान नहीं रखती।
सन्दर्भ
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 30 मई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 मई 2018.
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- Industrial Fired Heaters
- भारतीय इतिहास के कुछ विषय (Archaeology & Ancient India) (गूगल पुस्तक ; लेखक - रघुनाथ राय)
- Smelting Furnaces in ancient India (Indian Journal of History of Science, 1998)
- Recently Discovered Iron Working Site in Vindhya-Kaimur Region, India (Vibha Tripathi, 2014)
- भारत: जहाँ ‘सोने की चिड़िया’ करती थी बसेरा[मृत कड़ियाँ]