भगवान दास माहौर
डॉ० भगवान दास माहौर (27 फरवरी सन् 1910 - 12 मार्च, 1979) भारत के एक स्वतंत्रता सेनानी, क्रान्तिकारी तथा हिन्दी शिक्षक थे।[1]
भगवान दास माहौर का जन्म 27 फरवरी सन् 1909 को झांसी जिले के ग्राम बड़ौनी में हुआ था जो वर्तमान समय में मध्य प्रदेश के दतिया जिले में पड़ता है।[2] प्रारम्भिक शिक्षा गांव में पूरी कर वे झांसी आ गये। बचपन से ही उनको देश के प्रति अनुराग था। जब वे नवीं कक्षा के विद्यार्थी थे तभी क्रांतिकारी शचींद्रनाथ बख्शी ने उन्हें क्रांतिकारी पार्टी में सम्मिलित कर लिया और फिर उनका परिचय चन्द्रशेखर आजाद तथा सदाशिव मल्कापुरकर से हो गया। 1928 ई० में माहौर आजाद के निर्देश पर ही ग्वालियर में क्रांतिकारियों के संगठन के लिए गए। वहाँ उन्होंने विक्टोरिया कालेज में प्रवेश लिया। और छात्रावास में रहने लगे। यहीं पर चन्द्रशेखर आजाद, विजय कुमार सिन्हा आदि क्रांतिकारी समय-समय पर उनसे मिलने आते थे। जब वहां आने वाले क्रान्तिकारियों की संख्या बहुत बढ़ने लगी, तो उन्होंने ‘चन्द्रबदनी का नाका’ मोहल्ले में एक कमरा किराये पर ले लिया।
साण्डर्स की हत्या के कार्य में सहयोग हेतु माहौर को भी लाहौर बुला लिया गया। साण्डर्स की हत्या के बाद लोंगों ने लाहौर छोड़ दिया। भगत सिंह, सुखदेव, विजय कुमार सिन्हा और बटुकेश्वर दत्त ग्वालियर आ गये माहौर जी ने यहाँ इनके छिपने की व्यवस्था की। चन्द्रशेखर आजाद के कहने पर बम तथा गोला-बारूद आदि लेकर माहौर जी सदाशिव मलकापुरकरराव के साथ अकोला जा रहे थे। भुसावल पर उन्हें गाड़ी बदलनी थी। वहां आबकारी अधिकारी ने वह पेटी खुलवा ली। इस पर दोनों वहां से भागे, पर पकड़ लिये गये। जेल में डालकर जलगांव में उन पर मुकदमा चलने लगा।
माहौर जी को लाहौर केस में फसाने हेतु लाहौर केस के मुखविर जयगोपाल और फणीन्द्र घोश गवाही देने जलगाँव आने वाले थे। इन्होंने सोचा कि इन दोनों को यदि वहां गोली मार दें, तो न रहेगा बांस न बाजेगी बांसुरी। अपने वकील द्वारा चन्द्रशेखर आजाद को सन्देश भेजा। आजाद ने सदाशिव के बड़े भाई शंकरराव के हाथ 20 फरवरी की शाम को भात के कटोरे में एक भरी हुई पिस्तौल भेज दी। यह बड़े खतरे का काम था। 21 फरवरी को उन्हें न्यायालय में गोली चलाने का अवसर नहीं मिला। जब भोजनावकाश में दोनों मुखबिर खाना खा रहे थे, तो भगवानदास ने गोली चला दी। पहली गोली पुलिस अधिकारी नानकशाह को लगी। दोनों मुखबिर डर कर मेज के नीचे छिप गये। इस कारण वे अगली दो गोलियों से घायल तो हुए, पर मरे नहीं। माहौर जी को आजीवन काले पानी की सजा हुई।
1938 में जब कांग्रेसी मन्त्रिमंडलों की स्थापना हुई, तो आठ साल की सजा के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। इसके बाद भी वे कई आन्दोलनों में जेल गये। सन १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में गिरफ्तार हुए और बाद में रिहा हुए।
उन्होंने अपनी पढ़ाई भी प्रारम्भ कर दी। ‘1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव’ विषय पर उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से पीएचडी की। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद बुन्देलखण्ड कालेज झाँसी में हिंन्दी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। वे शिक्षण कार्य तथा शोध अध्ययन के साथ साथ क्रांतिवीरों की बलिदान गाथा के प्रचार प्रसार हेतु जुट गये। उन्होंने क्रांतिवीरों, चंद्रशेखर आज़ाद, सरदार भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु एवं नारायणदास खरे की बलिदान गाथा पर आधारित एक कालजयी पुस्तक "यश की धरोहर" की रचना की जिसे प्रमुख प्रकाशकों ने प्रकाशित की। इस कृतित्व में श्री सदाशिव मलकापुरकर एवं श्री शिव वर्मा जी उनके सह लेखक रहे।
बुन्देलखण्ड के साहित्य पर शोध के लिये झांसी विश्वविद्यालय ने इन्हें डीलिट् की मानद उपाधि प्रदान की। [3]। साहित्य मनीषी डॉ भगवानदास ने देशभक्ति आधारित काव्यसाधना में लीन रहते हुए 12 मार्च 1979 में लखनऊ में चन्द्रशेखर आजाद की प्रतिमा अनावरण के कार्यक्रम के दौरान दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।[4]