सामग्री पर जाएँ

बाबा सुमेर सिंह

बाबा सुमेर सिंह 'साहबजादे' (१८४७ आजमगढ़ -- ) भारतेन्दु युग के हिन्दी कवि थे। वे पटना के हरमंदिर साहब गुरुद्वारा के महन्त थे। सन १८९७ ईस्वी में उन्होने 'कविसमाज' बनाया था। वे कृष्णभक्त कवि थे। ब्रजभाषा में लिखे हुए इनके पद्य बिहार और उत्तर प्रदेश में लोकप्रिय रहे। शृंगार रस के चर्चित कवि के रूप में इनकी ख्याति रही। कविता में वे अपना नाम 'हरिसुमेर' रखते थे। बाबा सुमेर सिंह, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' के काव्य गुरु थे। बाबा सुमेर की नुकृति में ही अयोध्या सिंह ने अपना नाम 'हरिऔध' रखा था। बाबा जी अपने निजामाबाद निवास के दौरान वहाँ के गुरुद्वारे में प्रत्येक रविवार को एक काव्य गोष्ठी रखते थे, उसमें 'हरिऔध' भी सम्मिलित होते थे।


रचनाएँ

बाबा सुमेर सिंह हिन्दी भाषा के बड़े प्रेमी थे, इस भाषाका ज्ञान भी उन्हें अच्छा था । वे संस्कृत भी जानते थे। बाबू हरिश्चन्द्र से उनकी बड़ी मैत्री थी। बनारस के महल्ले रेशम कटरे को बड़ी संगत में आ कर वे प्रायः रहते थे और यहीं दोनों का बड़ा सरस समागम होता था। बाबा सुमेर सिंह ब्रजभाषा की बड़ी सरस कविता करते थे। उन्होंने इस भाषा में एक विशाल प्रबन्ध काव्य लिग्बा था, जो लगभग नष्ट हो चुका है। केवल उसका दशम मंडल अबतक यत्र-तत्र पाया जाता है। इस ग्रंथ का नाम प्रेमप्रकाश था । इसमें उन्होंने सिक्खों के दश गुरुओं की कथा दस मंडलों में वृहत रूप से बड़ी ललित भापा में लिखी थी । दशम मंडल में गुरु गोविन्द सिंह का चरित्र था। गुरुमुखी में वह मुद्रित हुआ और वही अब भी प्राप्त होता है। शेष नौ मण्डल कराल काल के उदर में समा गये। बहुत उद्योग करने पर भी न तो वे प्राप्त हो सके न उनका पता चला । उन्होंने 'कर्णाभरन' नामक एक अलंकार ग्रंथ भी लिखा था, अब वह भी अप्राप्य है। गुरु गोविंदसिंह ने फ़ारसी में जो 'ज़फ़रनामा' लिखा था उसका अनुवाद भी उन्होंने 'विजयपत्र' के नाम से किया था। वह भी लापता है । उन्होंने सन्त निहाल सिंह के साथ दशम ग्रंथ साहब के जाप जी की बड़ी बृहत् टीका लिग्बी थी जो बहुत ही अपूर्व था। वह मुद्रित भी हुई है किन्तु अब उसका दर्शन भी नहीं होता। उन्होंने छोटे-छोटे और भी कई धार्मिक और रससम्बन्धी ग्रन्थ लिखे थे, परन्तु उनमें से एक भी अब नहीं मिलता। उन्होंने जिनने ग्रंथों की रचना की थी, उन सब में हिन्दू भाव ओतप्रोत था और यही उनकी रचनाओं का महत्व था। आजकल कुछ सिख लोग अपने को हिन्दू नहीं मानते, वे उनके विरोधी थे। इसलिये भी उनक ग्रन्थ दुष्प्राप्य हो गये । फिर भी उनकी स्फुट रचनाएँ 'सुन्दरी तिलक' इत्यादि ग्रंथों में मिल जाती हैं। जब वे पटने में महन्त थे तो वहाँ से उन्होंने एक कविता-सम्बन्धी मासिक पत्रिका भो हिन्दी में निकाली थी। वह एक साल चल कर बन्द हो गयी। उसमें भी उनकी अनेक कविताएँ अब तक विद्यमान हैं।

उनकी कविता का एक नमूना देखिए जिससे उनको कविता की भाषा और उनके विचार का अनुमान कर सकते हैं:- (१-)

सदना कसाई कौन सुकृत कमाई नाथ
मालन के मनके सुफेरे गनिका ने कौन ।
कौन तप साधना सों सेवरी ने तुष्ट कियो
सौचाचार कुवरी ने कियो कौन सुख भौन ।
त्यों हरि सुमेर जाप जप्यो कौन अजामेल
गज को उबार्यो बार बार कवि भाख्यो तौन ।
एते तुम तारे सुनो साहब हमारे राम
मेरी बार विरद बिचारे कौन गहि मौन ।

(२-)

बातें बनावती क्यों इतनी हमहूं
सों छप्यो नहीं आज रहा है।
मोहन के बनमाल को दाग दिखाइ
रह्यो उर तेरे अहा है ।
तू डरपै करै सोहैं सुमेर हरी
सुन सांच का आँच कहाँ है ।
अंक लगी तो कलङ्क लग्यो जो
न अङ्क लगी तो कलङ्क कहा है।

बाबा सुमेरसिंह ने आजीवन कविता देवी ही की आराधना की । उन्होंने न तो गद्य लिखने को चेष्टा की और न गद्य ग्रन्थ रचे । उनका जीवन काव्यमय था और वे कविता पाठ करने और कराने में आनन्द लाभ करते थे। अपनी कविता के विपय में उनकी बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं। वे उसका बहुत प्रचार चाहते थे और कहा करते थे कि हिन्दू-सिक्खों की 'भेद-नीति' का संहार इसी के द्वारा होगा। परन्तु दुःख से कहना पड़ता है कि अपने उद्योग में सफलता लाभ करने के पहले ही उनका स्वर्गवास हुआ और उनके स्वर्गवास होने पर उनको कविता का अधिकांश लोप हो गया।