बाबा फकीर चंद
बाबा फकीर चंद | |
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चित्र:फकीर चंद.png.png बाबा फकीर चंद | |
जन्म | १८ नवंबर, १८८६ गांव पंझाल, होशियारपुर जिला, पंजाब, भारत |
मौत | ११ सितंबर, १९८१ उत्तरी अमरीका |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
उपनाम | दयाल फकीर', 'परम दयाल जी महाराज', 'संत सत्गुरु परम दयाल जी महाराज', 'बाबा फकीर', 'फकीर चन्द जी महाराज', 'संत सत्गुरु वक्त फकीर चन्द जी महाराज |
धर्म | हिन्दू |
बाबा फकीर चंद (१८ नवंबर, १८८६ - ११ सितंबर, १९८१) सुरत शब्द योग अर्थात मृत्यु अनुभव के सचेत और नियंत्रित अनुभव के साधक और भारतीय गुरु थे।[1][2][3] वे संतमत के पहले गुरु थे जिन्होंने व्यक्ति में प्रकट होने वाले अलौकिक रूपों और उनकी निश्चितता के छा जाने वाले उस अनुभव के बारे में बात की जिसमें उस व्यक्ति को चैतन्य अवस्था में इसकी कोई जानकारी नहीं थी जिसका कहीं रूप प्रकट हुआ था। इसे अमरीका के कैलीफोर्निया में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर डॉ॰ डेविड सी. लेन ने नई शब्दावली 'चंदियन प्रभाव' के रूप में व्यक्त किया और उल्लेख किया।[4][5] राधास्वामी मत सहित नए धार्मिक आंदोलनों के शोधकर्ता मार्क ज्यर्गंसमेयेर ने फकीर का साक्षात्कार लिया जिसने फकीर के अंतर्तम को उजागर किया। यह साक्षात्कार फकीर की आत्मकथा का अंश बना। [6]
जीवन
18 नवम्बर 1886 में गांव पंझाल, जिला होशियारपुर, पंजाब, भारत में उनका जन्म हुआ।[7][8]उनकी पृष्ठभूमि में उनका गरीब ब्राह्मण परिवार और एक दबा हुआ बचपन था और वे ईश्वर भक्ति में राहत पाते थे।[9]कुछ देर मांसाहारी रहने के बाद उनका पश्चाताप और प्रार्थना उन्हें एक दैवी दृश्य के द्वारा दाता दयाल शिव ब्रत लाल के ज़रिए राधा स्वामी मत में ले गए।[10] उन्होंने फकीर को राधास्वामी मत में दीक्षित किया और 'सार-वचन' नामक पुस्तक पढ़ने के लिए दी जो राधास्वामी मत के संस्थापक शिव दयाल सिंह (स्वामी जी महाराज) की लिखी हुई थी।[11]फकीर ने पाया कि वह पुस्तक उसके हिंदू विश्वासों और रुचि के विपरीत थी। उसमें कई धार्मिक आंदोलनों के बारे किए गए उल्लेख फकीर के तत्संबंधी विचारों से मेल नहीं खाते थे।[12] तथापि दाता दयाल जी में अपने दृढ़ विश्वास के कारण उन्होंने प्रण किया कि वे सच्चे बन कर अपने गुरु द्वारा दिखाए गए मार्ग का अनुसरण करेंगे और अपना अनुभव दुनिया को बता जाएँगे. उन्होनें दाता दयाल जी के निधन के बाद अपने अनुयायियों को सत्संग कराने का कार्य शुरू किया और तब अपना अनुभूत सत्य लोगों को बताया कि विश्वासी साधक में प्रकट होने वाले दृश्य, रूप, रंग और रेखाएँ वास्तव में माया होती हैं, सत्य नहीं. फकीर ने पारंपरिक तरीके से 'नाम-दान' (दीक्षा) देना भी बंद कर दिया। [13] फकीर का कहना था कि सत्संग में आंतरिक अनुभव ज्ञान की उच्चतर अवस्थाओं का उनके द्वारा किया गया वर्णन ही नाम दान है।[14] उन्होंने गुरु बने बिना गुरु के सभी कर्तव्य पूरे किए। [15][16] संकट और विपदा की स्थिति में उनके अनुयायियों में फकीर के चमत्कारी और दैवीय रूप का प्रकट होना साहित्य में मिलता है।[17][18] लेकिन फकीर ने सार्वजनिक रूप से ऐसे सभी ऐसे चमत्कारों को यह कह कर अपने से अलग कर दिया कि जो हुआ वह लोगों के विश्वास के कारण हुआ न कि फकीर के कारण. उन्होंने ऐसे सभी अनुयायियों को अपना सत्गुरु (सच्चा ज्ञान देने वाला) घोषित कर दिया, क्योंकि उन्हें गुरु मानने वालों के अनुभव ने ही फकीर को मन, आत्मा (प्रकाश) और शब्द (आंतरिक शब्द धारा) के अनुभवों से आगे जाने के लिए विवश कर दिया। इसीसे अंतत: उन्होंने परम शांति पाई और उनकी सत्य की खोज तथा कुरेद समाप्त हुई। [19] फकीर के गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए सन् 1980 में डॉ॰ डेविड क्रिस्टोफर लेन के अनुरोध करने पर फकीर ने प्रोफेसर बी.आर. कमल को अपनी आत्मकथा लिखाई थी। मूलतः उर्दू भाषा में लिखाई गई इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद प्रोफेसर कमल ने किया और बाद में डॉ॰ लेन ने इसके संपादन और प्रकाशन का कार्य किया।[20]
फकीर का निधन संयुक्त राज्य अमेरिका के दौरे के दौरान ११ सितंबर, १९८१ को पिट्सबर्ग, पेनिसिल्वेनिया, उत्तर अमेरिका में हुआ।[21] अपनी वसीयत के जरिए फकीर ने मानवता मंदिर, होशियारपुर के अस्तित्व को अलग स्थापित क्या और इसे अन्य मानवता केंद्रों से स्वतंत्र रखा। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उनके ट्रस्ट का देश-विदेश में उनके नाम में खुले मानवता केंद्रों और उनके आचार्यों के साथ प्रेम के अतिरिक्त और कोई संबंध नहीं है। उन्होंने अपने संबंधियों को मंदिर की सेवा करने की अनुमति तो दी परंतु ट्रस्ट का सदस्य बनने या मंदिर के मामलों में दखल देने पर रोक लगा दी। उनकी वसीयत में उनका मिशन 'मनुष्य बनो' भी शामिल किया गया है। उन्होंने भगत मुंशीराम को नामदान देने, जीवों को हिदायत करने और दुखी और अशांत जीवों की मदद करने के लिए नियुक्त किया। उन्होंने भगत मुंशीराम की उपस्थिति या अनुपस्थिति में डॉ॰आई.सी. शर्मा को अपनी जगह काम करने के लिए नियुक्त किया जो परमार्थ और अभ्यास वगैरा के बहुत तालीमयाफ्ता थे। फकीर ने पुन: आई.सी. शर्मा की अनुपस्थिति में भगत मुंशीराम को अपनी जगह सत्गुरु की हैसीयत में काम करने के लिए नियुक्त किया। उनकी वसीयत के अनुसार मानवता मंदिर द्वारा चलाए जा रहे स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों से कोई फीस नहीं ली जाएगी परंतु फकीर ने बच्चों के माता-पिता के लिए अनिवार्य कर दिया कि वे वचन देंगे कि वे तीन से अधिक बच्चे पैदा नहीं करेंगे (1980 में परिवार कल्याण कार्यक्रम को उनके 'मानवता धर्म' में शामिल करने की यह गंभीर, ईमानदार और उत्तरदायित्वपूर्ण कोशिश थी)। [22][23] मानवता मंदिर के प्रांगण में फकीर की अस्थियां गाड़ी गई हैं जिन पर 'मनुष्य बनो' का झंडा फहराया गया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि उनके सतंमत में कब्र, मकबरे, समाध या मृत महापुरुषों की पूजा का कोई स्थान नहीं है। अत: उन्होंने अपने आप को 'शिव समाध' (दाता दयाल शिव ब्रत लाल की समाध) से असंबद्ध रखा। [22][24]
धर्म संबंधी विचार
फकीर के धार्मिक विचारों के कई स्रोत थे जैसे हिंदू धर्म (सनातन धर्म) और राधास्वामी मत से उनकी लंबी सहबद्धता और सुरत शब्द योग में उनका अनुभव. फकीर को उनके मानवतावादी नजरिए में सहमति के योग्य बहुत कुछ मिला लेकिन वे उनके नामदान के परंपरागत तरीके और भारत में प्रचलित गुरुवाद से असहमत थे। ऐसी धार्मिक प्रथाओं के प्रति उनकी सहनशीलता शून्य थी जिनसे गरीब, विश्वासी और भोले-भाले लोगों का शोषण होता हो। [25] उनका साहित्य इस तथ्य का साक्षी है कि वे कबीर द्वारा चलाए गए संत मत के बुनियादी सिद्धांतों के प्रबल हिमायती थे परंतु सुरत शब्द योग की उच्चतम अवस्थाओं के अंतिम परिणाम और संतों द्वारा पोषित रहस्यवाद से उनका मोहभंग हो गया था। बाद में उन्होंने योग-साधना को दिए जा रहे महत्व को कम किया और संत मत के मानवतावाद पर बल दिया। [24][26]. फकीर की इस विचार में आस्था थी कि 'सेक्स केवल संतान उत्पत्ति के लिए हो' (यहाँ वांछित संतान अभिप्रेत है)। इससे मानव जाति के कष्ट कम हो सकते हैं।[27] उनके जीवन-दर्शन के अनुसार दूसरों के और अपने कल्याण की इच्छा करना जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण का महत्वपूर्ण हिस्सा है। युवाओं को आंतरिक शांति के लिए उन्होंने सदा व्यस्त रहने, अपनी आजीविका स्वयं कमाने, किसी सच्चे इंसान के मार्गदर्शन में रहने और आत्म-संयमी बनने की सलाह दी। अपने सामाजिक कर्तव्य के तौर पर उन्होंने अनुयायियों से कहा कि वे दूसरों को नीयतन कष्ट न पहुँचाएँ, बेमतलब बात करने से बचें, कड़वे शब्दों के प्रति सहनशील बनें और साथी प्राणियों की नि:स्वार्थ सेवा करें फकीर ने 'हर कीमत पर घरेलू शांति' पर विशेष बल दिया। शुभ कर्म, शुद्ध कमाई, दान (जिसमें प्रेम और कल्याण भी शामिल है) आदि जीवन के ऐसे पक्ष थे जो उन्होंने अन्य सामाजिक दायित्व में शामिल किए। इन दायित्वों को मानव मात्र के लिए आवश्यक माना जाता है। अन्य आध्यात्मिक साधनाओं के अंतर्गत उन्होंने उन्होंने प्रेम, भक्ति, विश्वास, समर्पण पर जोर दिया। कई स्थानों पर उन्होंने 'स्वयं के प्रति सच्चा बनने', ईश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण करने, सुमिरन-ध्यान करने और इस प्रकार करके अंत में आत्मज्ञान प्राप्त करने की बात की। [28] फकीर ने अनुभव किया कि सभी जीव परम चेतन तत्त्व के बुलबुले हैं और मानव का अंतिम लक्ष्य शांति है।[29][30]
मानवता मंदिर
सन् 1933 में दाता दयाल ने फकीर को आदेश दिया था कि संत मत की शिक्षा को आने वाले समय के अनुरूप बदल जाना. गुरु के आदेश का पालन करने और दाता दयाल के कार्य को परिवर्तित समय के साथ अनुसार आगे ले जाने के लिए फकीर ने सन् 1962 में होशियारपुर में मानवता मंदिर की स्थापना की। [31] एक मासिक पत्रिका 'मानव मंदिर' का प्रकाशन शुरू किया गया।[32] यह मंदिर मानवता और मानव-धर्म को समर्पित है। (Hindi:मानव-धर्म)। [33][34][35] मानवता मंदिर उनके मिशन का केंद्र बना रहा जहाँ उन्होंने लोगों को चमत्कारों का सत्य (मन की रहस्यात्मक कार्यप्रणाली) और मन के आगे का सत्य बताना जारी रखा। फकीर ने मंदिर चलाने के लिए आवश्यक दान और भेंटों की कीमत पर भी अपना यह धर्म निभाया.[36]
अन्य महत्वपूर्ण अनुयायी और सहकर्मी
बाबा फकीर चंद के जीवन के दौरान के और बाद के अनुयायियों और सहकर्मियों की सूची बहुत लंबी है। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:- पीर-ए-मुग़ां (पंडित बुआ दत्त) (दिल्ली),[37] नंदु भाई (निज़ामाबाद, आंध्र प्रदेश),[38] पी. आनंद राव (हैदराबाद (भारत), आंध्र प्रदेश),[29] तारा चंद (हरियाणा),[39] गोपी लाल कृषक,[40][41] कुबेर नाथ श्रीवास्तव (वाराणसी),[42] प्रेमानंद जी, (कुबेर नाथ श्रीवास्तव और प्रेमानंद को शिव समाध, राधास्वामी धाम, वाराणसी का कार्य बारी-बारी सौंपा गया था)[22] पृथ्वी नाथ पंडित (जम्मू और कश्मीर),[43] लाल चंद (चूरू, राजस्थान),[44] बी.आर. कमल (हिमाचल प्रदेश),[45] लज्जावती कक्कड़ (कमालपुरवाली माई) (पंजाब),[39] तृप्ता देवी (योगिनी माता[46] ) (पठानकोट, पंजाब) (फकीर ने कमालपुरवाली माई और योगिनी माता को महिलाओं का गुरु नियुक्त किया था),[47] दयाल दास (उत्तर प्रदेश),[39] सेठ दुर्गा दास (चंडीगढ़),[23][42] मोहन लाल (होशियारपुर),[48] माम चंद,[49] हरजीत सिंह संधु (पंजाब),[50] कर्मचंद कपूर (पालमपुर, हिमाचल प्रदेश)[49], हुकम सिंह[49], अन्नदाता[49], जसवंत सिंह,[49], तारा सिंह[49].
फकीर एक लेखक के रूप में
युवा आयु में फकीर ने उर्दू में कई पुस्तकें लिखीं, जो बाद में देवनागरी (हिन्दी) में लिप्यंतरित की गईं। उनकी अधिकतर पुस्तकें उनके सत्संगों के सीधे संकलन हैं जो मुख्यत: दो पत्रिकाओं नामत: 'मनुष्य बनो' (अलीगढ़ से प्रकाशित) और 'मानव मंदिर' (फकीर द्वारा स्थापित मानवता मंदिर ट्रस्ट, होशियारपुर द्वारा प्रकाशित) में छपी थीं। उनकी कुछ हिन्दी और अंग्रेज़ी पुस्तकें निम्नानुसार हैं:
- जगत उभार
- गरुड़ पुराण रहस्य
- अजायब पुरुष
- पाँच नाम की व्याख्या
- मेरी धार्मिक खोज
- बारह मासा की व्याख्या
- कबीर सार शब्द व्याख्या
- सत कबीर की साखी
- गुरु तत्त्व
- प्रेम रहस्य
- गुरु महिमा
- मानवता युगधर्म
- उन्नति मार्ग
- ईश्वर दर्शन
- गुरु वंदना
- सत्ज्ञान दाता
- सार का सार
- 50 वर्षीय फकीर अनुभव
- हृदय उद्गार
- अगम विकास
- आकाशीय रचना
- यथार्थ संदेश
- सच्चाई
- अगम वाणी
- मानव धर्म प्रकाश
- आदि-अंत
- ज्ञान - योग
- निर्वाण से परे
- सार-भेद
- कर्मभोग या मौज
- The Essence of Truth
- Satya Sanatan Dharm or True Religion of Humanity
- The Art of Happy Living
अन्य सम्मान सूचक
जीवन काल में बाबा फकीर चंद के लिए कई सम्मान सूचक शब्द प्रयोग किए जाते थे, यथा दयाल फ़कीर, परम दयाल जी महाराज, संत सत्गुरु परम दयाल जी महाराज, बाबा फ़कीर, फ़कीर चंद जी महाराज, संत सत्गुरु वक़्त फ़कीर चंद जी महाराज. उनके निधन के बाद उनके नाम के साथ "पंडित" शब्द भी जोड़ा गया जो उनकी इच्छा के विरुद्ध था।[51][52]
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
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- https://web.archive.org/web/20110622085447/http://video.google.com/videoplay?docid=5977858875089797931#docid=4584877123197657131
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अमान्य टैग है; "bhagatshaadi.com" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है - ↑ अ आ भगत मुंशीराम (2007). संत सत्गुरु वक्त का वसीयतनामा. कश्यप पब्लिकेशन. पृ॰ 29-31. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788190550116.
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