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फरुआही

चित्र:Faruahi.jpg
भोजपुरी माटी का लोकनाच : फरूआही

फरुआही एक लोकनृत्य है जो भोजपुरीभाषी क्षेत्रों के ग्रामीण भागों में प्रचलित है। फरुआही नृत्य करी वह लोक विधा है जिसमें नर्तक का अंग प्रत्यंग नाचता है और काफी श्रम साध्य होता है। इसके दर्शक भी कम नहीं हैं पर टीवी व सीडी के बढ़ते चलन ने इसका मान कम कर दिया है। पहले गांव में शादी ब्याह के समय लोग इसे ले जाते थे पर अब ऐसा नहीं। बदलते परिवेश व मनोरंजन के आधुनिक संसाधनों ने काफी हद तक लोक विधाओं को मारा है। कला की इज्जत करने वाले व कलाकारों की टीम में शामिल लोगों ने भी अपना कैरियर फिल्म व कैसेट में बनाना शुरू कर दिया है। शहर से लेकर कस्बों तक नयी नाट्य संस्थाएं बन रही हैं और लोक कलाकार छंटते चले जा रहे हैं।

भोजपुरी भाषी क्षेत्र के ग्राम्यांचल में लंबे समय से चली आ रही फरुआही नृत्य शुद्ध रूप से भोजपुरी का प्रतिनिधित्व करता दिखता है। इस नृत्य में पैरबाजी, घुंघरू और वाद्य का अद्भुत संयोग दिखता है। इसके कलाकार किसी शिक्षण या प्रशिक्षण संस्थान से प्रशिक्षित नहीं हैं फिर भी उनकी कला में शास्त्रीय व लोक नृत्य का संयोग मिलता है। इनके प्रदर्शन में मात्र दो-एक वाद्ययंत्र ही परंपरागत तौर पर प्रयुक्त होते हैं और वही आज भी प्रचलन में हैं। इस नृत्य के लिये टिमकी (तासा), नगाड़ाझाल का ही प्रयोग किया जाता है। ठेठ गवंई संस्कृति को ओढ़-बिछा कर जीने वाले फरुआही नर्तक धोती, बनियान व गमछा पहन कर ही नृत्य करते हैं। कभी-कभी वह कुर्ता या कमीज पहन कर भी नृत्य करते हैं। इस विधा को देखने से लगता है कि इसका चलन वीरगाथा काल में सैनिकों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर शुरू किया गया और आज भी वह जीवंत है। अपने गमछे से नर्तक कभी महिला का स्वांग करते हैं तो कभी कमर में बांधकर अपने नृत्य को गति देते हैं। बहरहाल गमछा इस नृत्य का प्रमुख हिस्सा है। इसको अलग कर कलाकार शायद अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर सकता।

लोक कला की सशक्त विधाओं पर कभी विकास के नाम आधुनिकता की मार पड़ी तो कभी रोटी की। फलत: गांव की माटी में रची बसी इनरसनी, खड़ुवा, हुड़कहिया, धोबियउवा, फरुआही जैसी नाच गायब हो गई। इसके लिये काफी हद तक जिम्मेदार आधुनिक सिनेमा ने दर्शकों की रुझान बदली। पर्दे की तारिकाएं लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनीं और दर्शकों की मन:स्थिति पर कब्जा कर लिया। बीसवीं सदी के मध्य में जमींदारी उन्मूलन के बाद लोक कलाकारों का बचा-खुचा आश्रय भी छिन गया और लोक कला फुटपाथ पर आ गई। फिर लोक कलाकारों के समक्ष रोटी का संकट खड़ा हुआ और वह बिखर गये। लोकनृत्य मण्डलियां टूट गई। फिर न तो आम जन को उसकी चिंता रही और न ही किसी और को। कहीं-कहीं कुछ कलाकारों ने इसे बचाने की जुगत की और कुछ विधाएं बची रह गई।