पारधी
वन्य जीवों के शिकार को न तो उचित कहा जा सकता है और ना ही उसे महिमामंडिक किया जा सकता है लेकिन सिर्फ अध्ययन औभ जानकारी के लिए उसके बर्णन में शायद कोई अनुचित बात नहीं है।
गुजरे दौर में चीता पारधी दक्ष शिकारी हुआ करते थे। मुगल बादशाहों के दरवार में उनकी सेवाएँ सर्वाधिक तेज वन्य धावक चीतों को पकड़ने और प्रशिक्षित करने के लिए ली जाती थी। इसीलिए वे चीता पारधी कहलाते थे। मुगल बादशाह और राजा महाराजा अपने मनोरजन के लिए चीतों से कृष्ण मृगों का शिकार करवाते थे, क्योंकि अकेले वेही ऐसे शिकारी जीव थे जो कि कृष्ण मृगों को दौड़कर पकड़ने की क्षमताएँ रखते थे। 'आईन-ए-अकबरी' के अनुसार अकबर के दरबार में ही ऐसे एक हजार प्रशिक्षित चीते थे।
फाँस पारधी वे पारधी होते थे जो हिरणों को फासने के लिए फंदों का इस्तेमाल करते थे। उपलब्ध जानकारी के अनुसार वे बचपन से ही मृग छैनों को इशारे पर अपनी गतिविधियाँ संचालित करने के लिए प्रशिक्षित करते थे और उनके सीगों में फंदे लगाकर जंगली हिरणों के बीच छोड़ देते थे। जबजंगली हिरण अपनी सहज वृत्ति से अपने इस प्रतिद्वंद्वी को झुंड से खदेड़ने की कोशिश करते थे तो उनके सींग प्रतिद्वंद्वी के सींग में बँधे फंदों में फँस जाते थे और वे फाँस पारधियों द्वारा पकड़ लिए जाते थे।
चीते भारत के जंगलों से पचास वर्ष पहले ही समाप्त हो गए और फाँस पारधी अब कैसे शिकार करते हैं उनके साथ कुछ समय गुजारने पर ही पता चल सकता है। लेकिन वैल पारधियों के काम करने का तरीका भी अपने आप में अनुठा है। बैल पारधी बालक जैसे ही दुनियादारी समझना शुरू करते हैं सबसे पहले वे तीतर की हू ब हू आवाज निकालने का अभ्यास शुरू कर देते है। कुछ तो होंठ सिकोड़कर सीधे मुँह से तीतर आवाज निकाल लेते हैं तो कुछ बाँस या प्लास्टिक की नली से बनाए एक उपकरण से ऐसी आवाज निकालने में माहिर होते हैं। यह नकल इतनी असल जैसी होती है कि दूर जंगल का तीतर भी इसके जवाब में अपनी तीखी और कर्कश आवाज से आसमान गुँजा देता है।
सबेरा होते ही पारधी बालक शिकार पर निकल जाता है। इसके लिए वह बैल की सवारी गाँठता है। संभवतः भारत भर में बैल पारधी ही एकमात्र ऐसा समुदाय है जो घोड़े की तरह बैल पर सवारी करता है। रोचक तथ्य यह है कि इन बैलों पर न तो जीन होती है और ना ही बैल पर कोई लगाम कसी जाती है। उन पर बैठने का तरीका भी बड़ा ही बेढब होता है। बैल पर सवारी करने के लिए बछड़े को बचपन में ही प्रशिक्षण दिया जाता है। पहले उसकी पीठपर चादर बिछाकर चलाया फिराया जाता है फिर उसकी जगह बैल को मोटे गद्दे का आदी बनाया जाता है। धीरे धीरे उस पर गठरियाँ लादकर बैल को चलाना सिखाया जाता है और इसके बाद छोटे बच्चे उस पर बैठना प्रारंभ कर देते हैं। यही बछड़ा जब पूरी तरह बैल बन जाता है तो पारधी समुदाय के वरिष्ठ सदस्य भी उस पर सवारी करने लगते हैं। यह बैल इतना प्रशिक्षित होता है कि उसे इच्छानुसार चलाने या दौड़ाने के लिए चाबुक की नहीं मात्र हाथ या पाव के इशारे की जरूरत होती है।
बैल पारधियों की कुल संपत्तियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रशिक्षित तीतर और यही सधा हुआ बैल होता है। यदि बैल पारधियों के पास बैल न हो तो उनकी घुमंतु जिदंगी थम कर रह जाए। अपनी पूरी घर गृहस्थी बैल पर लादे लादे बैल पारधी जीवन भर यहाँ से वहाँ भटकते रहते है। इसी बैल की आड़ में हिरणों के झुंड के करीब तक जा पहुँचते हैं और इसके लिए उनमें गजब का धीरज होता है।
जंगली तीतरों को जाल में फँसाने के लिए पारधी बालक अपनी तरह का एक अनूठा ही तरीका इस्तेमाल करते हैं। वे इसके लिए तीतरों में अपने भाई बंधों से लड़ने की कमजोरी का फायदा उते हैं।