परिचर्या
परिचर्या या शुश्रूषा स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के भीतर एक व्यवसाय है जो व्यक्तियों, परिवारों और समुदायों की देखभाल पर केन्द्रित है ताकि वे इष्टतम स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता प्राप्त कर सकें, बनाए रख सकें या ठीक कर सकें। परिचर या शुश्रूषक वे व्यक्ति होते हैं जो शिशुओं की अथवा रोगियों की देखभाल करते हैं।
परिचर्या शब्द से क्रियाशीलता झलकती है। यह उपकार का काम है और ऐसे व्यक्ति के लिए किया जाता है जो स्वयं उसे अपने लिए नहीं कर सकता। यों तो परिचर्या एक व्यवसाय है, परंतु इसमें ऐसी चरित्रवान् स्त्रियों की आवश्यकता रहती है जो ईश्वरीय नियमों में दृढ़ निष्ठा रखती हों और जो सत्य सिद्धांतों पर अटल रहें तथा परिणाम की चिंता किए बिना, कैसे भी परिस्थिति क्यों न हो, वही करें जो उचित हो।
परिचर्या का इतिहास
परिचर्या का इतिहास वेदों के प्राचीन काल से आरंभ होता है, जब रुगण व्यक्ति की देखभाल तथा शुश्रूषा का कार्य समाज में बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था। चरक ने लगभग 1,000 ई.पू. में लिखा था कि उपचारिका को शुद्ध आचरण की, पवित्र, चतुर और कुशल, दयावान्, रोगी के लिए सब प्रकार की सेवा करने में दक्ष, पाकशास्त्र में गुणी, रोगी के प्रक्षालन तथा स्नान कराने, मालिश करने, उठाने तथ टहलाने में निपुण, बिछावन बिछाने और स्वच्छ करने में प्रवीण, तत्पर, धैर्यवान्, रोग से पीड़ित की परिचर्या में कुशल और आज्ञाकारी होना चाहिए। यशस्वी यूनानी चिकित्सक हिप्पॉक्रैटीज़ (460-370 ई.पू.), जिसे औषधशास्त्र का पिता माना जाता है, रोगी की ठीक प्रकार से देखभाल की महत्ता जानता था और वह यह भी भली भाँति जानता था कि अच्छी परिचर्या कैसे की जानी चाहिए। आरंभ-कालीन ईसाई चर्चसंघ के समय स्त्रियाँ अपने घर बार छोड़कर रोगियों तथा संकटग्रस्त लोगों की सेवा शुश्रूषा करने अथवा उन्हें देखने-भालने जाया करती थीं।
अर्वाचीन परिचर्या की नींव फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने डाली। ये धनी घर की लड़की थीं, परंतु आलस जीवन से असंतुष्ट होकर उन्होंने परिचर्या का अध्ययन किया और लंदन में रोगियों के लिए एक परिचर्या भवन खोला। 1845 ई. में क्रीमिया में युद्ध छिड़ने पर और युद्ध सचिव के कहने पर वे 34 वर्ष की आयु में ही 38 नर्सों के दल के साथ सेवा-शुश्रूषा के लिए युद्धस्थल पर गई थीं। स्वास्थ्य विज्ञान के सिद्धांतों को उन्होंने अस्पताल के प्रबंध में लागू किया और उसके लिए जो भी कठिनाइयाँ या अड़चनें उनके मार्ग में आईं। उनका उन्होंने वीरता और समझदारी से निरंतर सामना किया, यहाँ तक कि मिलिटरी कमसरियट अधिकारियों के विरोध का भी उन्हें सामना करना पड़ा। वे यह समझने लगे थे कि मिस नाइटिंगेल भयानक आगंतुक हैं, जो सैनिक व्यवस्था के अनुशासन को भंग करने के लिए आई हैं। परंतु उनके प्रबंध के फलस्वरूप बैरक के अस्पतालों में मृत्युसंख्या, जो पहले 42 प्रतिशत थी, घटकर जून, 1855 में 2 प्रतिशत रह गई। फ्लोरेंस नाइटिंगेल क्रीमिया में 1856 तक अर्थात् ब्रिटिशों द्वारा तुर्की खाली किए जाने तक रहीं। उन्होंने वहाँ जो काम किया वह उस युग की आश्चर्यजनक कहानी बन गया। लांगफेलो ने तो उस कथा को कविता में भी गाया। ब्रिटिश सरकार ने एक युद्धपोत को आदेश दिया कि वह उस वीर स्त्री को घर वापस लाए। लंदन ने इस महिला के राजसी स्वागत की तैयारियाँ कीं। किंतु शीलवश वह एक तेज फ्रांसीसी जहाज से घर लौटीं। वहाँ से इंग्लैंड गईं और चुपचाप अपने घर पहुँच गईं। उनके आने का समाचार उनके पहुँच जाने के बाद लोगों में फैला। सन् 1860 में उनके प्रयास से लंदन में नर्सों के लिए एक पाठशाला खुली, जो इस प्रकार की पहली पाठशाला थी।
भारत में परिचर्या के प्रथम शिक्षणालय मद्रास में सन 1854 में और बंबई में 1860 में खुले। 1855 में लेडी डफ़रिन फ़ंड की स्थापना हुई थी, जिसकी सहायकता से कई अस्पतालों के साथ परिचर्या के शिक्षणालय खोले गए और उनमें भारत की स्त्री नर्सों के प्रशिक्षण का श्रीगणेश हुआ। अब तो देश के प्राय: सभी बड़े अस्पतालों में नर्सों के प्रशिक्षण की व्यवस्था है, जिनके द्वारा सामान्य परिचर्या में डिप्लोमा की भी व्यवस्था है। परिचर्या महाविद्यालयों में स्नातकों को बी.एस-सी की उपाधि दी जाती है तथा मेट्रनों (उ माता) और सिस्टर (उ बहन) अनुशिक्षकों को वार्डनों के संबंध में संक्षिप्त शिक्षा (रिफ़्रेशर कोर्स) की व्यवस्था की जाती है।
नर्सों का दायित्व
फ्लोरंस नाइटिंगेल के समय से लेकर अब तक चिकित्सा विज्ञान में बहुत उन्नति हुई है, जिससे परिचर्या विज्ञान में भी आमूल परिवर्तन हो गए हैं। अब यह धार्मिक व्यवस्थापकों के प्रोत्साहन से संचालित एवं अनभिज्ञ व्यक्तियों द्वारा दया-दाक्षिण्य-प्रेरित सेवा मात्र नहीं रह गया है;अब तो यह आजीविका का एक साधन है, जिसके लिए विस्तृत वैज्ञानिक पाठ्यक्रम का अध्ययन और शिक्षण आवश्यक होता है। ऐसे अधिकांश पेशों से, जिनमें निजी कौशल तथा वैज्ञानिक प्रशिक्षण से सफलता मिल जाती है, इसमें विशेषता यह है कि सफल करुणा का भाव, दु:ख दर्द को शांत तथा दूर करने का उत्साह और माँ का सा हृदय भी चाहिए।
अपने रोगी के प्रति उपचारिका के दायित्व की आधुनिक भावना में केवल शारीरिक सुख देने, चिकित्सा करने तथा औषधोपचार के अतिरिक्त इसकी भी अपेक्षा रहती है कि उसे रोग का तथा वह रोग किसी रोगी को किस प्रकार प्रभावित करता है, इसका भी स्पष्ट ज्ञान हो। समय-समय पर जो नवीन लक्षण उभरे उनके प्रति उसे अत्यंत सजग रहना चाहिए। किस प्रकार के उपचार से रोगी को लाभ होगा, इसका उसे ज्ञान होना चाहिए तथा प्रत्येक रोगी के लिए अलग-अलग किस प्रकार की देखभाल अपेक्षित है तथा उसकी परिचर्या किस प्रकार की जाए, इन सबका उसे स्पष्ट पता होना चाहिए। नर्स को अपना दायित्व पूरी तरह निभाने के लिए अपने रोगियों की मन:स्थिति से भी परिचित होना आवश्यक है। रोगी की देखभाल करने में केवल रोग पर दृष्टि रखना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् रोगी को ऐसा व्यक्ति समझना चाहिए जो उपचारिका से यह अपेक्षा करता है कि वह उसे सुरक्षा दे, उसे समझे तथा उसपर ममता रखे।
अत: रोगों की रोकथाम में और उनसे पीड़ित लोगों की देखभाल में नर्स का योग बहुत ही महत्वपूर्ण है। वह चिकित्सा के लिए सहायिका तथा सहयोगिनी है। उसके बिना चिकित्सक रोगी की सहायता करने में भारी अड़चनें पड़ सकती हैं। कभी-कभी तो वह डाक्टर से भी अधिक महत्व की हो जाती है।
आज व्यक्तिविशेष अथवा राष्ट्र के स्वास्थ्य को यथार्थत: उन्नत बनानेवाले चिकित्सा संबंधी सामाजिक तथा निरोधक कार्यक्रम में चिकित्सक के साथ समुचित योग देकर नर्सें निस्संदेह क्रियात्मक योगदान करती हैं।
परिचर्या व्यवसाय में मुख्यत: स्त्रियाँ ही काम करती हैं। वे आज संतोषपूर्वक यह कह सकती हैं कि उनका काम सम्मानित काम है, क्योंकि उनका जीवन दूसरों का जीवन उपयोगी तथा सुखी बनाने में लगा रहता है। उनको इस व्यवसाय में स्वाभाविक रूप से आनंद और आत्मसंतोष मिलता है क्योंकि वे एक परदु:खापहारी तथा सम्मानपूर्ण काम में संलग्न रहती हैं।
नर्स की वर्दी
नर्सों को विशेष वस्त्र (वर्दी, समवेश) दिया जाता है। ऐसा स्वच्छता के लिए, उन्हें सुविधापूर्वक पहचानने के लिए तथा उनके वेशसौष्ठव के लिए किया जाता है। उनकी वर्दी औपचारिक पहनावा है; इसमें सफेद फ्राक, सफेद टोपी, एप्रन तथा पेटी और सफेद जूते तथा मोजे होते हैं। आभूषण के रूप में केवल घड़ी उनके पास रहती है। परिचर्या के बदलते रूप के अनुसार नई नर्सें फ्राक के स्थान सफेद साड़ी पहनना पसंद करती है। यह वेश सादा तो है ही, पहननेवालियों के लिए और जिनकी शुश्रुषा में वे लगी रहती हैं उनके लिए भी प्रभावोत्पादक होता है।
विशेष दक्षता
आधुनिक परिचर्या कार्य कई वर्गों में बाँटा जा सकता है। साधारणत: प्रत्येक नर्स एक वर्ग की विशेषज्ञ होती है। नर्सों के काम के बड़े-बड़े वर्ग ये हैं : सामाजिक तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य परिचर्या, अस्पताल में परिचर्या, उद्योगक्षेत्रीय परिचर्या, धात्री परिचर्या तथा निजी चिकित्साक्षेत्र में परिचर्या। परिचर्या के कितने ही उपविभाग भी हैं, उदाहरणार्थ, अस्पताल में चिकित्सा-प्रकार के अनुसार परिचर्या के ये विभाग हो जाते हैं-बालक की परिचर्या, हृद्रोग परिचर्या, अस्थिकर्म परिचर्या, क्षय परिचर्या, गर्भ विषयक परिचर्या, सामान्य औषधोपचारिक तथा शल्य चिकित्सकी परिचर्या, मस्तिष्क रोगों की परिचर्या, छूत के रोगों की परिचर्या इत्यादि।
स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण में नर्स को बहुत महत्वूपर्ण कार्य करना पड़ता है। रोग की अनुपस्थिति को ही स्वास्थ्य नहीं कहते, स्वास्थ्य तो निश्चित रूप से रहने का अर्थात् उस स्थिति का नाम है जिसमें पूर्ण शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक हृष्ठता हो। रोगी को अस्पताल में स्वास्थ्यलाभ करने के उपरांत पुन: पहले जैसे अस्वच्छ वातावरण में ही लौटा देना स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण की दिशा में कोई प्रगति नहीं मानी जा सकती। चतुर्दिक् स्वास्थ्य की भावना नर्सों को लोगों तक पहुँचानी पड़ेगी और उन्हें यह समझना पड़ेगा कि यदि स्वच्छता रखी जाए तो दु:ख का अधिकांश भाग अपने आप दूर हो जाएगा। नर्सें ही लोगों को स्वस्थ जीवन व्यतीत करने का मार्ग अच्छी तरह बता सकती हैं। उन्हें रोगी और उसके परिवार का उन बातों की शिक्षा और बुद्धि देनी चाहिए जिससे वे नर्स के बिदा हो जाने के बाद भी अपना घर द्वार अच्छा रख सकें।
बालक परिचर्या की नर्स को नए आगंतुक का प्राय: संपूर्ण दायित्व उठाना पड़ता है और इसीलिए उसे बालक के जन्म लेने पर अपना काम नहीं आरंभ करना होता, वरन् उसका काम उसके जन्म से नौ महीने पहले से आरंभ हो जाता है। जन्म से पूर्व, जन्म के समय, शैशव, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में, वह जैसे भी और जहाँ भी हो, घर में, स्कूल में, अस्पताल में, गली में, मैदान में, सभी जगह उसे बालक की संभाल करनी पड़ती है। उसे माता-पिता की सहायता करनी होती है और यह देखना होता है कि बालक सभी कठिनाइयों को पार कर जाए। उसे शिक्षक, परामर्शदाता तथा मित्र की हैसियत बरतनी होती है। बालक परिचर्या की प्रत्येक नर्स को बच्चों की देखभाल के विशेष ज्ञान और अधिक कौशल की आवश्यकता होती है ताकि वह उनकी वैज्ञानिक परिचर्या कर सके।
बच्चे के लिए वह समय सबसे अधिक संकट का होता है जब उसे अस्पताल में लाया जाता है। वह अपनी माँ को छोड़कर एक नए संसार में पहुँचता है, जहाँ वह यह नहीं जानता कि उसके साथ क्या किया जानेवाला है। उसका क्षुब्ध मानसिक संतुलन तथा विकल मनोवेग उसे बीमारी से कहीं अधिक संत्रस्त करते हैं। ऐसी दशा में औषधोपचार से भी बढ़कर अस्पताल में उसकी निजी देखभाल का महत्व है। बालक परिचर्या की नर्स का ही यह मुख्य कार्य होता है कि वह बच्चे का विश्वास प्राप्त कर ले और उसे सब बातें पहले से ही साफ-साफ बता दे जिससे वह चिकित्सक द्वारा चिकित्सा तथा होनेवाले कार्यों के लिए तैयार हो जाए। बच्चे को पहले से बताए बिना ही यदि आकस्मिक रूप से कुछ किया जाता है तो वह निश्चय ही उसका विरोध करता है।
हृद्रोग परिचर्या की नर्स के विशेष उत्तरदायित्व होते हैं और वैसा ही उसका प्रशिक्षण होता है। हृदय के बहुत से रोग आरंभिक पीड़ा शांत हो जाने के उपरांत अपने रोग के संबंध में अनाश्यक सावधानी नहीं बरतते। जो नर्स रोगी का उल्लेखनीय विश्वास तथा अपने ऊपर पूर्ण निर्भरता प्राप्त कर ले, जो रोगी की शारीरिक मुद्राओं का अभिप्राय समझे, जो अपनी रहन-सहन को इस प्रकार ढाल सके कि रोगी को परेशानी न हो, वही नर्स हृदपचर्या के लिए योग्य और सफल सिद्ध हो सकती है।
मानसिक रोगियों की सँभाल के लिए नर्स बहुत अधिक कौशल की अपेक्षा होती है। रोगियों के बीच नर्स को बहुत सावधानी से अपना काम करना पड़ता है। उसका व्यवहार और उसकी आत्मीयतापूर्ण देखभाल निश्चय ही रोगी के लिए किसी भी औषधि से अधिक उपयोगी होती है। नर्स को रोगी के संबंध में प्रत्येक प्रकार का ज्ञान होना चाहिए और उन बातों का तो उसे अवश्य ही भली प्रकार पता होना चाहिए, जिससे रोगी का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। रोगियों के साथ उसे धैर्य, सहानुभूति और कौशल से इस प्रकार व्यवहार करना पड़ता है, मानों वे उसके मित्र और प्रियजन हों, क्योंकि मानसिक रोगी साधारण-सी बात से ही उद्विग्न हो उठते हैं और थोड़ी-सी भी उद्विग्नता चिकित्सा और उपचार से हुए समस्त लाभ को एक क्षण में नष्ट कर सकती है।
ये नर्सों की विशेष दक्षता के कुछ उदाहरण हैं। प्रत्येक विशेष क्षेत्र में नर्स के कुछ विशेष कर्तव्य रहते हैं। उसको परिचर्या का लाभ तभी हो सकता है जब उसे स्थिति का संपूर्ण ज्ञान हो। किंतु स्थिति चाहे जैसी हो, समान तथा डाक्टर के निर्देशों के अनुसार रोगी की शुश्रुषा करनेवाले सच्चे सेवक की भाँति काम करना पड़ता है।