पण्डित टोडरमल
पण्डित टोडरमल | |
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जन्म | 1776/77 |
मौत | 1823/24 |
उपनाम | आचार्यकल्प |
नागरिकता | भारतीय |
गृह-नगर | जयपुर |
प्रसिद्धि का कारण | जैन विद्वान् और दार्शनिक नेता |
अवधि | 47 वर्ष |
धर्म | दिगंबर जैनधर्म |
बच्चे | हरिचंद्र और गुमानीराम |
माता-पिता | रंभादेवी खंडेलवाल (माता) जोगीदास खंडेलवाल (पिता) |
वेबसाइट https://www.ptst.in/ |
पण्डित टोडरमल गंभीर प्रकृति के आध्यात्मिक महापुरुष थे। वे स्वभाव से सरल, संसार से उदास, धुन के धनी, निरभिमानी, विवेकी, अध्ययनशील, प्रतिभावान, बाह्याडम्बर-विरोधी, श्रद्धानी, क्रांतिकारी, सिद्धान्तों की कीमत पर कभी न झुकने वाले, आत्मानुभवी, लोकप्रिय प्रवचनकार, सिद्धान्त-ग्रन्थों के सफल टीकाकार एवं परोपकारी महामानव थे। पण्डित टोडरमल जी जैन समाज के अग्रणी विद्वानों में से एक थे। अपनी विद्वत्ता और प्रामाणिकता के आधार पर वे तेरापंथियों के गुरु कहलाते थे।[1]
इस प्रकार पण्डित टोडरमल का जीवन आत्मचिंतन और साहित्य साधना के लिये समर्पित जीवन है। केवल अपने कठिन परिश्रम एवं प्रतिभा के बल पर ही उन्होंने प्रगाध विद्वत्ता प्राप्त की व उसे बाॅंटा भी दिल खोलकर, अतः तत्कालीन धार्मिक समाज में उनकी विद्वत्ता व कर्त्तृत्व की धाक थी।[2]
जगत के सभी भौतिक द्वन्द्वों से दूर रहने वाले एवं निरन्तर आत्मसाधना व साहित्यसाधना रत इस महामानव को जीवन की मध्यवय में ही साम्प्रदायिक विद्वेष का शिकार होकर जीवन से हाथ धोना पड़ा।[3]
निजी जीवन
पण्डित टोडरमलजी के पिता श्री का नाम जोगीदास खंडेलवाल और माता का नाम रंभादेवी था। उनकी जाति खण्डेलवाल थी और गोत्र गोदिका था, जिसे आज भौंसा या बड़जात्या भी कहते है।[4] वे विवाहित थे, उनकी पत्नी का नाम प्राप्त नहीं है।
उनके दो पुत्र थे - हरिश्चन्द्र और गुमानीराम। गुमानीराम महान् प्रतिभाशाली और उनके समान ही क्रान्तिकारी महापुरुष थे।[5]
यद्यपि पण्डितजी का अधिकांश जीवन जयपुर में ही बीता; किन्तु उन्हें अपनी आजीविका के लिए कुछ समय 150 कि.मी. दूर सिंघाणा अवश्य रहना पड़ा था। वे वहाँ दिल्ली के एक साहूकार के यहाँ कार्य करते थे।[6]
आयु
परम्परागत मान्यतानुसार उनकी आयु यद्यपि सत्ताईस (27) वर्ष मानी जाती है; किन्तु डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ने अपने शोधग्रंथ (पी.एच.डी.) "पण्डित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व" में सिद्ध किया की 'उनकी साहित्यसाधना, ज्ञान व नवीनतम प्राप्त उल्लेखों व प्रमाणों के आधार पर यह निश्चित हो चुका है कि वे 47 वर्ष तक जीवित रहे। उनकी मृत्यु वि. सं. १८२३/२४ लगभग निश्चित है, अतः उनका जन्म वि. सं. १७७६/७७ में होना चाहिए।'
शिक्षा और शिक्षा गुरु
पण्डित जी के समय में धार्मिक अध्ययन के लिए आज के समान सुव्यवस्थित विद्यालय, महाविद्यालय नहीं चलते थे।लोग स्वयं ही 'सैलियों' के माध्यम से तत्त्वज्ञान प्राप्त करते थे। तत्कालीन समाज में जो आध्यात्मिक चर्चा करने वाली दैनिक गोष्ठियाँ होती थीं, उन्हें 'सैली' कहा जाता था। ये सैलियाँ सम्पूर्ण भारतवर्ष में यत्रतत्र थीं। इसी सैली के माध्यम से पंडित टोडरमल जी ने जैन तत्त्वज्ञान प्राप्त किया। और आगे जाकर इस सैली का सफल संचालन भी किया।
उनके पूर्व इस सैली के संचालक बाबा बंशीधरजी थे। वे उस समय लोगों को व्याकरण, छंद, अलंकार आदि का ज्ञान भी कराते थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके शिक्षागुरु बाबा बंशीधरजी थे।[7]
वे इतने प्रतिभासंपन्न थे कि उन्होंने बिना गुरु के स्वयं ही परिश्रम कर ब्रज, प्राकृत, हिंदी, संस्कृत, कन्नड़, उर्दू आदि अनेक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया।
वे स्वयं मोक्षमार्ग प्रकाशक में अपने अध्ययन के बारे में लिखते हैं -
"हमारे पूर्व संस्कार तें वा भला होनहार तें जैन शास्त्रनि विषै अभ्यास करने का उद्यम होत भया । तातैं व्याकरण, न्याय, गणित, आदि उपयोगी ग्रन्थनि का किंचित् अभ्यास करि टीका सहित समयसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्र इत्यादि शास्त्र; अरु क्षपणासार, पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, अष्टपाहुड़, आत्मानुशासन आदि शास्त्र; अरु श्रावक मुनि के आचार निरूपक अनेक शास्त्र; अरु सुष्ठु कथा सहित पुराणादि शास्त्र इत्यादि अनेक शास्त्र हैं; तिनि विषे हमारे बुद्धि अनुसार अभ्यास वर्ते है।"
भाषा शैली
पण्डित टोडरमलजी ने अपने जीवन में छोटी-बड़ी बारह रचनाएँ लिखी, जिनका परिमाण करीब एक लाख श्लोक प्रमाण और पाँच हजार पृष्ठ के करीब है। इनमें कुछ तो लोकप्रिय ग्रंथों की विशाल प्रामाणिक टीकाएँ हैं और कुछ हैं स्वतन्त्र रचनाएँ वे गद्य और पद्य दोनों रूपों में पाई जाती हैं।
उनकी गद्य शैली परिमार्जित, प्रौढ़ एवं सहज बोधगम्य हैं। उनकी शैली का सुन्दरतम रूप उनके मौलिक ग्रंथ 'मोक्षमार्गप्रकाशक' में देखने को मिलता है। उनकी भाषा मूलरूप में ब्रज होते हुए भी उसमें खड़ी बोली का खड़ापन भी है और साथ ही स्थानीय रंगत भी उनकी भाषा उनके भावों को वहन करने में पूर्ण समर्थ व परिमार्जित है।
रचनाएँ
रचनाओं का विस्तृत विवरण इसप्रकार है -
1. रहस्यपूर्ण चिट्ठी
प्राचीन समय में एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश पहुॅंचाने के लिए चिट्ठियों का प्रयोग होता था। मुल्तान निवासी किसी साधर्मी भाई के शंका का समाधान इस चिट्ठी में प्राप्त है। यह चिट्ठी वि. सं. 1811 में लिखी गई।
2. गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषाटीका
गोम्मटसार जीवकाण्ड जैन दर्शन के महान आचार्य नेमीचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती के द्वारा लिखा गया ग्रंथ है, उसकी हिन्दी भाषा में टीका स्वरूप यह रचना है।
3. गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषाटीका
यह रचना गोम्मटसार कर्मकाण्ड की हिन्दी भाषा में व्याख्या है।
4. अर्थसंदृष्टि अधिकार
गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड के अन्त में इन्हीं के परिशिष्ट रूप में अर्थसंदृष्टि महाधिकार है; जिसमें रेखाचित्रों (चार्टी) के द्वारा गोम्मटसार जीवकाण्ड और गोम्मटसार कर्मकाण्ड में आए गूढ़ विषयों को स्पष्ट किया गया है ।
5. लब्धिसार भाषाटीका
यह रचना आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती द्वारा लिखित लब्धिसार की हिन्दी भाषा में व्याख्या है।
6. क्षपणासार भाषाटीका
यह कृति आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती द्वारा लिखित क्षपणासार ग्रंथ की हिन्दी भाषा में व्याख्या है।
7. गोम्मटसार पूजा
'गोम्मटसार पूजा' पं. टोडरमल जी की एक मात्र प्राप्त पद्यकृति है। इसमें उन्होंने गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार और क्षपणासार नामक महान सिद्धान्त-ग्रंथों के प्रति अपनी भक्ति-भावना व्यक्त की है। यह ५७ छन्दों की छोटी सी कृति है, जिसमें ४५ छन्द संस्कृत भाषा में एवं १२ छन्द हिन्दी भाषा में हैं।
8. त्रिलोकसार भाषाटीका
यह कृति आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती द्वारा लिखित त्रिलोकसार ग्रंथ की हिन्दी भाषा में व्याख्या है।
9. समोसरण रचना वर्णन
जैन तीर्थंकरों की धर्मसभा को समवशरण कहते है, उसकी रचना किस प्रकार से होती है, और उसका विषेश वर्णन इस कृति में उपलब्ध है।
10. मोक्षमार्गप्रकाशक [अपूर्ण]
पंडित टोडरमल जी की अगाध विद्वत्ता का प्रतिक यह ग्रंथ है, यह रचना अपूर्ण होते हुए भी उनकी कीर्ति का भंडार है। तत्कालीन समाज में फैले रूढ़िवाद, कुरीतियों की आलोचना इस रचना में है।
11. आत्मानुशासन भाषाटीका
संस्कृत में आचार्य गुणभद्रजी द्वारा नीतिग्रंथ आत्मानुशासन की व्याख्या के रूप में यह रचना है। यह रचना वि. सं. 1823 में पूर्ण हुई।
12. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय भाषाटीका [अपूर्ण]
यह रचना आचार्य अमृतचंद्रदेव द्वारा रचित जैन आचार प्ररूपक संस्कृत ग्रंथ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय की हिन्दी में व्याख्या है। यह रचना अपूर्ण है।
हिन्दी साहित्य में योगदान
हिंदी साहित्य के इतिहास में अधिकतर जैन साहित्य को धार्मिक साहित्य कहकर हिंदी साहित्य में उनके अवदान पर उचित मूल्य में प्रकाश नहीं डाला जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी व्यस्थित गद्य का विकास भारतेन्दु युग से माना है, परन्तु पण्डित टोडरमलजी ने १७वी शताब्दी में ही व्यवस्थित हिन्दी गद्य का प्रारंभ कर दिया था। उनके द्वारा रचित हिन्दी साहित्य किसी भी साहित्यकार की तुलना में श्रेष्ठ ही होगा।
पण्डित टोडरमल जी से पूर्व हिन्दी साहित्य था तो, परन्तु वह पद्य में था, गद्य का प्रयोग मात्र पत्र भेजने आदि कार्यों में ही होता था। यद्यपि पण्डित जी से पूर्व ही हिन्दी साहित्य में भी गद्य आ चूका था पर वह व्यवस्थित नहीं, कहीं तो वाक्य रचना में अशुद्धि हैं, कहीं व्याकरण अशुद्धि हैं, कहीं सन्धि-समास में अशुद्धि तो कहीं पद्य जैसा ही गद्य लिख दिया, परन्तु व्यवस्थित गद्य की कमी थी, जिसे पण्डित टोडरमल जी दूर किया और वे पहले ऐसे हिंदी गद्यकार है, जिन्होंने पूर्णतः सन्धि, समास, वाक्य रचना आदि की शुद्धता रखी।
मृत्यु दण्ड
पण्डित टोडरमलजी की तार्किक शैली से प्रस्तुत धर्म, आप्त(भगवान), गुरु व तत्त्वों का विरोध कोई नहीं कर सकता था, परन्तु वास्तविक ज्ञान से रहित जीवों को उनकी बात समझ नहीं आई, अतः विरोधी मतों ने उनके विरूद्ध षड्यंत रचकर शिव पिंडी फैंकने के झुठे आरोप में उन्हें राजा माधोसिंह के द्वारा उन्हें हाथी के पैर के नीचे कुचलवा दिया, हाथी भी पंडित टोडरमलजी पर पैर नहीं रख रहा था। हाथी के पैर न रखने से उसे भालों से मारा जाने लगा, अंततः पण्डितजी के आदेश पर हाथी ने पैर दे दिया और वे मृत्यु को प्राप्त हुए।
हाथी से मृत्युदण्ड देना मात्र किंवदंती ही है, वास्तविक नहीं इस बात का कहीं पर उल्लेख भी नहीं है।
वुद्धिविलास के रचनाकार बखतराम जी शाह के अनुसार पण्डित टोडरमलजी को मृत्युदण्ड तो मिला परन्तु हाथी के पैर की नीचे कुचलवा कर नहीं अपितु उन्हें मारकर कीचड़ में फिंकवा दिया, जिससे उनका शरीर भी जैनों के हाथों न लगे, अन्यथा जैन समाज द्वारा राज विरोध या बड़ा उपद्रव किया जा सकता था।
इन्हें भी देखें
बारह कड़ियाँ
1. मोक्षमार्ग प्रकाशक [लेखक - पंडित टोडरमल]
5.वीरवाणी पत्रिका (श्री पंडित टोडरमलांक 1948) [संपादक - पंडित चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ]
6. सन्मति सन्देश मासिक पत्रिका (श्री पंडित टोडरमल विशेषांक मई 1965 एवं मार्च 1972) [संपादक - पंडित प्रकाशचन्द हितैषी शास्त्री, दिल्ली]
सन्दर्भ
- ↑ भारिल्ल, डॉ. हुकमचन्द. पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व. जयपुर: पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 71.
- ↑ भारिल्ल, डॉ. हुकमचन्द. पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व. जयपुर: पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 75.
- ↑ भारिल्ल, डॉ. हुकमचन्द. पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व. जयपुर: पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 75.
- ↑ जैन, डॉ. राजकुमार. अध्यात्म पदावली. दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81 - 263 - 1172 - X.
- ↑ भारिल्ल, डॉ. हुकमचन्द. पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व. जयपुर: पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 57.
- ↑ भारिल्ल, डॉ. हुकमचन्द. पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व. जयपुर: पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट.
- ↑ आचार्यकल्प, पंडित टोडरमल. मोक्षमार्ग प्रकाशक. जयपुर: पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट. पृ॰ 15.