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पजनेस

पजनेस हिन्दी के रीतिकाल के अंतिम दौर के समर्थ कवि थे।

परिचय

पजनेस का जन्मसंवत् अज्ञात है। शिवसिंह सेंगर के अनुसार इनका उपस्थितिकाल सं. १८७२वि. है जिसे कुछ लोगों ने भ्रमवश इनका जन्मकाल मान लिया है। रामचंद्र शुक्ल के अनुसार इनका कविताकाल संवत् १९०० के आसपास माना जा सकता है। ये बुंदेलखंड के पन्ना प्रदेश में उत्पन्न हुए थे। 'माझा प्रवास' के लेखक विष्णुराव गोडसे ने इनका आवास झाँसी में बताया है। इनकी रची हुई कोई पुस्तक नहीं मिलती परंतु 'मधुप्रिया' और 'नखशिख' नामक इनकी दो रचनाओं का उल्लेख शिवसिंहसरोज में इस प्रकार किया गया है जैसे ये दोनों ही पुस्तकें सरोजकार की उपलब्ध थीं। 'सरोज' में 'मधुप्रिया' से उद्धरण भी दिए गए हैं।

पजनेस रीतिकाल के अंतिम दौर के समर्थ कवि थे इसलिये इनके फुटकल पद जनमन में स्थान पा गए और लोककंठ में बराबर गूँजते रहे। इनकी इसी लोकप्रियता से प्रेरित होकर काशी के भारतजीवन प्रेस ने पुरस्कार के घोषणापूर्वक इनकी उपलब्ध रचनाओं का संग्रह करवाकर पहले 'पजनेस पचासा' और तत्पश्चात् 'पजनेस प्रकाश' नामक इनके दो कवितासंग्रह प्रकाशित किए जिनमें क्रमश: ५६ और १३२ कवित्त-सवैया संगृहीत है। इस प्रकार पजनेस प्रकाश पजनेस पचासा का परिवर्धित संस्करण है।

मधुप्रिया और नखशिखा नामों से ही प्रकट है कि पजनेस रीतिभुक्त रसवादी परंपरा के कवि थे और रीतिकाल के पिछले खेवे के कवियों की तरह अपनी रचनाओं में यमक और अनुप्रास की योजना शब्दचमत्कार के लिये आवश्यक मानते थे जिसके कारण कहीं कहीं इनके पद अर्थहीन से लगते हैं। रीतिबद्ध कवि होते हुए भी ये शृगांर रसात्मक कविताओं तक में प्रतिकूल कर्णकटु वर्णों का प्रयोग निविद्ध नहीं मानते थे। फिर भी जहाँ इनकी भाषा स्वच्छ, सरल और स्वाभाविक है वहाँ इनके शब्दचित्र बहुत साफ और चटकीले उतर सके है।

पजनेस को फारसी का भी अभ्यास था और इसीलिये उन्होंने 'पजनेस तसद्दुकता विसमिल जुलफे फुरकत न कबूल कसे' जैसे पदों में अपनी फारसीदानी का कौतुक भी दिखाया है। ये रंगीन तबीयत के बेवाक व्यक्ति थे। वृंदावनलाल वर्मा ने 'झाँसी की रानी' नामक अपने उपन्यास में पजनेस का एक कवित्त उद्धृत किया है जिसमें बड़े-बड़े लोगों की चूक का उल्लेख करते हुए पजनेस ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि 'एक खतरानी से हमहूँ चूके'। रामनरेश त्रिपाठी ने 'कविता कौमुदी' में इनका एक हस्तलिखित ग्रंथ प्रयाग के राजर्षि टंडन जी के पास होने की सूचना दी थी परंतु वह आज तक प्रकाशित नहीं हुआ है।


सन्दर्भ