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धन्यवाद

धन्यवाद शब्द ‘धन्य और वाद’ के समास से बना है। धन्य अर्थात् ‘कृतार्थ’ अथवा आभार। यह शब्द स्वयं "मैं आपको धन्यवाद देता हूँ" अभिव्यक्ति का संक्षिप्त रूप हे।

किसी भी कार्य के बदले भावनाओं को त्वरित अभिव्यक्त करने का सबसे श्रेष्ठ माध्यम है धन्य ज्ञापित करना। सम्बन्धों की प्रागाढ्य को यही धन्यवाद शोभा बढ़ाती है। धन्यवाद की अनुपस्थिति सम्बन्ध को रुक्ष कर सकती है और सेवा या किसी कार्य को भविष्य में उसी भाव से करने में व्यवधान उत्पन्न कर सकती है। इसका भाव आभार या उससे उत्पन्न होने वाले घमण्ड से परे है। "धन्यवाद" हेतु सामान्य प्रतिक्रियाओं में "इसका उल्लेख न करें", [1] या, अद्यकाल में, " कोई समस्या नहीं " शामिल हैं। [2]

धर्म

  • सनातन धर्मानुसार जो लोग अधिक धन्यभागी होते हैं उनका कल्याण का स्तर उच्च होता है।
  • यहूदी धर्म की उक्ति है, ‘हे परमेश्वर मैं तुम्हें सदा धन्यवाद दूंगा।’
  • ईसाई धर्म में धन्यवाद को नैतिक गुण माना गया है जो केवल भावनाओं और विचारों का ही नहीं बल्कि कर्म और कार्यों का भी विकास करता है।
  • मारवाड़ मित्र ने यूज बिजोवा पभुराम चोधरी में कहा गया है कि जीवन में प्राचुर्य हेतु आप धन्यवाद करते हैं तो यह आश्वासन है कि यह प्राचुर्य जारी रहेगी।

सन्दर्भ

  1. Geoffrey Leech, The Pragmatics of Politeness (2014), p. 200.
  2. Bologna, Caroline (March 1, 2018). "Why Don't We Say 'You're Welcome' Anymore?". HuffPost.