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दृग्-दृश्य-विवेक

दृग्-दृश्य-विवेक अद्वैत वेदान्त का एक ग्रन्थ है जिसे 'वाक्यसुधा' भी कहते हैं। विद्यारण्य स्वामी इसके रचयिता माने जाते हैं किन्तु कुछ लोग इसे आदि शंकराचार्य की रचना मानते हैं। [1]

वर्ण्य विषय

'दृग्-दृश्य-विवेक' में ४६ श्लोक हैं[2][3] जिसमें दृग् (the seer) दृश्य (the seen) में क्या अन्तर है, इसका विवेचन किया गया है। [4] इसके अलावा समाधि (स्वविकल्प और निर्विकल्प) तथा आत्मा और ब्रह्म की प्रकृति के बारे में बताया गया है।

"दृग्-दृश्य विवेक" प्रकरण ग्रन्थ है। जिन पुस्तकों का अध्ययन करने से अद्वैत-वेदान्त के सभी विषयों का संक्षिप्त का परिचय प्राप्त होता हो, वैसी पुस्तकों को 'प्रकरण ग्रन्थ' कहा जाता है। अतः दृग्-दृश्य विवेक को अद्वैत-वेदान्त की भूमिका भी कह सकते हैं। यह ग्रन्थ संसार के सभी धर्मों का सार है।

'दृग्-दृश्य विवेक' का एक और नाम 'वाक्यसुधा' भी है। सुधा का अर्थ होता है अमृत, अतः इसका सामान्य अर्थ हुआ 'वाक्य का अमृत' ।किन्तु यहाँ इसका तात्पर्य है "वेदान्त के चार महावाक्यों के मन्थन से निकला हुआ अमृत" ।

दृग्-दृश्य विवेक का अर्थ है द्रष्टा और दृश्य के अन्तर को पृथक-पृथक रूप में समझ लेना। अर्थात् सत्य (Real) से असत्य (unreal) को अलग करना।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ