झाला मान सिंह
झाला मान सिंह (झाला मन्ना) झाला मान भी अपने पूर्वजों की तरह ही मेवाड़ के राणा की रक्षा करते थे , वे हल्दीघाटी के प्रसिद्ध युद्ध के शहीद थे । इनकी पिछली 7 पीढ़ियों ने अपनी मातृभूमि मेवाड़ के लिए प्राणों का बलिदान दिया था ।उसी तरह झाला मान ने भी मेवाड़ के राणा की रक्षा करते करते अपने प्राण दिए थे ।(1576)।[1] इसी तरह हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप के प्राणों के रक्षक बने थे झाला मानसिंह । वे बड़ी सादड़ी के एक राजपूत कबीले के मेवाड़ रईसों में से एक थे।[2] महाराणा रायमल ने बड़ी सादड़ी की जागीर झाला मानसिंह के पूर्वजों श्री अज्जा और सज्जा को दी थी। भारतीय डाक द्वारा 18.06.2017 को जारी एक स्मारक डाक टिकट।[3]
पराक्रम
जिस प्रकार हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप का मुकुट पहनकर झाला मानसिंह ( झाला मन्ना ) ने अपने प्राणों की आहुति देकर वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के प्राणों की रक्षा की थी।[4] उसी प्रकार खानवा के युद्ध में महाराणा सांगा को झाला मान के दादा झाला बीदा ने अपनी जान देकर बचाया था।
वीर योद्धा झाला मानसिंह की कहानी
सन 18 जून 1576, अकबर और महाराणा प्रताप के बीच लड़ा गया हल्दीघाटी युद्ध महाभारत के युद्ध की तरह ही भयानक और विशालकारी था हल्दी घाटी के इस भीषण और महाप्रलयकारी युद्ध में जब महाराणा प्रताप ने अकबर के सेनापति मानसिंह पर हमला किया तब उनके भाले के एक ही वार से राजा मानसिंह का महावत मारा गया।[5]
असंख्य मुगल सैनिक बोखला गए और महाराणा प्रताप पर वार करने के लिए आगे बढ़े इधर राजपूत सैनिक भी प्राण हथेली पर रखकर युद्ध लड़ रहे थे महाराणा का एक एक सैनिक लाखो पर भी भारी पड़ रहा था महाराणा प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट था असंख्य मुगल सैनिक उसी को निशाना बनाकर वार कर रहे थे।[6][7]
मानसिंह पर हमला करते समय चेतक के घायल हो जाने से मुगल सैनिकों ने महाराणा प्रताप के चारों और घेरा डालना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे महाराणा प्रताप संकट कि स्थिति में फसने लगे।[8]
बलिदान
उसी समय स्थिति की गंभीरता को परख कर महाराणा प्रताप के स्वामीभक्त परमप्रतापी सरदार झालामान सिंह ( झाला मन्ना ) अपनी स्वामिभक्ति का प्रमाण देते हुए आगे बड़े और महाराणा प्रताप के सर से राज चिन्ह और मुकुट लेकर अपने सर पर धारण कर लिया और महाराणा प्रताप को युद्ध क्षेत्र से निकल जाने को कहा।[9]
झाला मन्ना की चाल कामयाब रही और शत्रुओं ने झाला मन्ना को ही महाराणा प्रताप समझ लिया और उन पर आक्रमण करने के लिए टूट पड़े भीषण युद्ध हुआ लेकिन अंत में हुआ वहीं की जो होना था भीषण युद्ध करते करते झाला मन्ना वीरगति को प्राप्त हुए।[10] वीरगति को प्राप्त होने से पहले ही झाला मन्ना मुगल सेना को पूर्व की ओर पीछे धकेल चुके थे।[11]
उनके इसी बलिदान की वजह से महाराणा प्रताप बाद में मेवाड़ को पुनः मुक्त करा पाए इस प्रकार झाला मन्ना ने अपने स्वामी का शीश बचाने के लिए अपना शीश कटा दिया उनके इस बलिदान की गाथा सदियों तक दोहराई जाएगी।[12]
सन्दर्भ
- ↑ "झाला मान - शतक". अभिगमन तिथि 29 जनवरी 2018.
- ↑ "यह मायने नहीं रखता कि महाराणा प्रताप अकबर से हार गए - हल्दीघाटी". अभिगमन तिथि 11 फरवरी 2017.
- ↑ "डाक विभाग झाला मन्ना पर एक स्मारक डाक टिकट जारी करते हुए प्रसन्न है". अभिगमन तिथि 18 जून 2017.
- ↑ "एक असमान लड़ाई: हल्दीघाटी के नायक और इतिहास को भूल जाना". टाइम्स ऑफ इंडिया। इंडियाटाइम्स. अभिगमन तिथि 10 मई 2014.
- ↑ "वीर योद्धा- झाला मानसिंह का इतिहास". अभिगमन तिथि 4 जुलाई 2021.
- ↑ "हल्दीघाटी के युद्ध का इतिहास फिर से क्यों लिख रहा है एएसआई". इंडिया टुडे. अभिगमन तिथि 28 जुलाई 2021.
- ↑ "महाराणा प्रताप के भेस में लड़ता रहा था ये वीर योद्धा, कई पुश्तों तक की सेवा". अभिगमन तिथि 11 मई 2016.
- ↑ "महाराणा प्रताप बनाम अकबर: हल्दीघाटी का युद्ध किसने जीता?". अभिगमन तिथि 30 मई 2019.
- ↑ "हजारों मुगलों से लड़ने से लेकर अपने घोड़े के साथ गहरे बंधन साझा करने तक, महाराणा प्रताप की विरासत को फिर से देखना". अभिगमन तिथि 9 मई 2022.
- ↑ "महाराणा प्रताप: पुरुषों के बीच एक शेर और हल्दीघाटी की लड़ाई". अभिगमन तिथि 9 मई 2018.
- ↑ "हल्दीघाटी की लड़ाई: महाराणा प्रताप की वीरता और उनके खिलाफ लड़ने वाले राजा मान सिंह का इतिहास". अभिगमन तिथि 13 अगस्त 2021.
- ↑ "हल्दीघाटीः झाला का बलिदान". मूल से 8 नवंबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 जुलाई 2011.