ज्ञानेन्द्रपति
ज्ञानेन्द्रपति
जन्म : 1 जनवरी 1950 को ग्राम पथरगामा, झारखंड, भारत
दसेक वर्षों तक बिहार सरकार से अधिकारी ।
सम्प्रति : कूलवक्ती कवि ।
प्रकाशित कृतियाँ
कविता संग्रह
1. आँख हाथ बनते हुए (1970)
2. शब्द लिखने के लिए ही यह कागज़ बना है (1981)
3. गंगातट (2000) किताबघर प्रकाशन
4. संशयात्मा (2004) किताबघर प्रकाशन
5. भिनसार (2006)
6. कवि ने कहा (कविता संचयन) किताबघर प्रकाशन
7. मनु को बनती मनई (2013) किताबघर प्रकाशन
अन्य
- कथेतर गद्य : पढ़ते-गढ़ते
- काव्य-नाटक : एकचक्रानगरी
पुरस्कार व सम्मान
वर्ष 2006 में ‘ संशयात्मा’ शीर्षक कविता संग्रह पर साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा पहल सम्मान, बनारसीप्रसाद भोजपुरी सम्मान व शमशेर सम्मान सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से विभूषित।
संपर्क : बी-3/12, पो-अन्नपूर्णानगर, विद्यापीठ मार्ग, वाराणसी-221002
फ़ोन : 9415389996
भिनसार
'भिनसार' समकालीन कविता-परिदृश्य में अपनी तरह के अकेले कवि ज्ञानेन्द्रपति का अनूठा संकलन है । इससे कवि की बहुचर्चित कृतियाँ 'आँख हाथ बनते हुए' और 'शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है' तो सम्पूर्णता शामिल हैं ही, अब तक आसंकलित-और अनेक तो अप्रकाशित-रही आयी कविताएँ भी पुस्तकाकार आ रही है । एक सघन बसा कविता-संसार पाठकों की यायावरी को आमंत्रित कर रहा है ।
ज्ञानेन्द्रपति की इन कविताओं से एक ओर तो तीव्र परिवर्तनकामिता से उपजा क्रान्तिकारी रोमान है, वर्ग- शत्रुओं को ललकारता युयुत्सु उदूघोष; तो दूसरी ओर सामाजिक आत्मालोचन का वह विरल स्वर है जो अपनी आत्मा को खराद पर चढाये बगैर नहीं उठता, अपने नैतिक विवेक के आगे वेध्य बने रहने पर ही जिसका स्फुटन संभव हो पाता है । यहीं, चेतना पारीक और बनानी बनर्जी से होने वाली अविस्मरणीय मुलाकातें हैं । रात से लगी भोर में भटक आया चमगादड़ का बच्चा भी इस कविता-दुनिया का बाशिन्दा है । परित्यक्त चीजें भी यहाँ निरर्थक नही, उनमें नये अर्थ अँखुआते है ।
दरअस्ल, ज्ञानेन्द्रपति को पढ़ना बनते हुए इतिहास के बीच से गुजरना ही नहीं, युग के कोलाहल के भीतर से छन कर आते उस मन्द्र स्वर को सुनना है इतिहासों से जिसकी सुनवाई नहीं होती; यह नश्वरताओं की भाषा से शाश्वत का द्युति-लेख पढ़ना है । इसीलिए यहाँ एक तरह की अनगढ़ता काव्य-सौष्ठव की अविधि ठहरती है । उच्च-भ्रू आलोचकों की पर्वा किये बगैर यह मनुष्य की ओर बढा हुआ समव्ययी हाथ है ।
ये वे कविताएँ हैं जिनकी जीवनधर्मिता अबूझ ढंग से मानवीय जिजीविषा को पुष्ट करती है ।
कवि ने कहा : ज्ञानेन्द्रपति
ज्ञानेन्द्रपति हिन्दी के एक विलक्षण कवि-व्यक्तित्व हैं, यह तथ्य अब निर्विवाद है । कवि-कर्म का ही जीवन-चर्या बनाने वाले ज्ञानेन्द्रपति की प्रतिष्ठा का आधार संस्थानों तथा महाजनों को सनदें और पुरस्कारों की संख्या नहीं बल्कि कविता-प्रेमियों की प्रीति है, जिसे उनकी कविता ने जीवन-संघर्ष के मोर्चों पर मौजूद रहकर और 'अभिव्यक्ति के ख़तरे' उठाकर अर्जित किया है । वे उन थोड़े-से कवियों में हैं, जिनके बल पर, कविता की तरफ से जनता का जी उचटने के बावजूद, समकालीन कविता के सार्थक स्वर की विश्वसनीयता बरकरार है ।
ज्ञानेन्द्रपति की कविता की अप्रतिमता के कारकों में अवश्य ही यह तथ्य है कि उसकी जड़ें लोक की मन-माटी में गहरे धँसी हैं और उसकी दृष्टि विश्व-चेतस् है । जीवन-राग उनकी कविता में लयात्मकता में ढल जाता है । वे कविता के नहीं, उस मुक्तछन्द के कवि हैं निराला ने जिसकी प्रस्तावना की थी । उनकी कविता आद्यन्त छान्दिक आवेग से ओतप्रोत है, बल्कि उसकी संरचना उसी से निर्धारित होती है । बेशक, यह हर बार एक नये छन्द का अन्वेषण हैं जो कविता के कथ्य के अनुसार जीवन-द्रव्य के साथ कवि-चित्त की एकात्मता से सम्भव होता है । हिन्दी की विशाल भाषिक सम्पदा का सार्थक संदोहन भी उनके यहां खूब बन पडा है । तदभव-सीमित रहना उनकी कविता की मजबूरी नहीं, उसके लिए न तो तत्सम अछूत है न देशज अस्मृश्य; अवसरानुकूल नये शब्दों के निर्माण की उसकी साहसिकता तो कुख्यात होने की हद तक विख्यात है ।
ज्ञानेन्द्रपति की कविता एक और तो छोटी-से-छोटी सचाई को, हल्की-से-हल्की अनुभूति को, सहेजने का जतन करती है प्राणी-मात्र के हर्ष-विषाद को धारण करती है; दूसरी ओर जनमत भूमि पर दृढ़ता से पाँव रोपे सत्ता-चालित इतिहास के झूठे सच के मुकाबिल होती है । धार्मिक सत्ता हो या राजनीतिक सत्ता-वह किसी को नहीं बख्शती । उसकी दीठ प संतप्त भूगोल है । साम्राज्यबाद के नए पैंतरों का वह पहचानती है । अभय में पगी हूई करुणा उसे विरासत में मिली है । वह एक महान् परम्परा की परिणति है ।
स्वयं ज्ञानेन्द्रपति द्वारा चयनित प्रतिनिधि कविताओं के इस संकलन में उनके तमाम प्रकाशित संग्रहों से तो हैं ही, आयामी संग्रेहों से भी कविताएँ शामिल है, बल्कि अनेक तो पहली बार यही प्रकाशित हो रही हैं । बिला शक अपने समाज-समय को कविता को आँख से देखना-समझना चाहने वालों के लिए एक अनिवार्य-किताब नहीं-सहचर!
'कवि ने कहा' - ज्ञानेन्द्रपति
मानव की चेतना यात्रा में सदियों से हमारे साथ एक दुर्घटना होती आयी है। यह दुर्घटना है - हमारा किसी विचारधारा विशेष के समर्थक के रूप में उभरना. हमें पता भी नहीं होता और हम ‘विचारधारा’ के किसी खेमें में शामिल हो अनायास ही असहिष्णुता और आतंक का खेल खेलने लगते हैं। पक्ष और विपक्ष की यह लड़ाई जब सभ्यता के हर क्षेत्र - साहित्य, कला, संगीत में गहरे तक जड़ फैला चुकी हो, एक “ज्ञानेन्द्रपति” का यह दावा कि उसका पक्ष उसके पाठकों के पक्ष में विलीन हो चुका है तो निस्संदेह वह “ज्ञानेन्द्रपति” एकाकी रह जाता है। लगभग दसेक वर्षों तक बिहार सरकार में अधिकारी के रूप में कार्य करने के बाद कविता के मोहपाश में फंसे ज्ञानेन्द्रपति सब कुछ त्याग कविता के संग गंगातट - बनारस में बसे, तो कविता विविध रूप में प्रकट हुई. हिंदी साहित्य के तमाम छोटे - बड़े खेमों से अलग ज्ञानेन्द्रपति ने तीन दशकों से अधिक की रचना यात्रा के सारांश – निवेदन के रूप में अपनी तिरासी कविताओं को 2007 में “कवि ने कहा” के रूप में भेंट करते हुए कहा था – “....... कविता बेशक अपने समय से जूझकर हासिल की जाती है, लेकिन वह उस काल – खण्ड से कीलित नहीं होती, उसकी भविष्योन्मुखता ही उसकी न मुरझाने वाली नवीनता का बाइस होती है।”
अतीत के तमस से निकलने का दावा करने वाले इंसानों का जत्था पृथ्वी को अपनी उँगलियों पर नचाते हुए जब पृथ्वी की मिट्टी – देह को परमाणु बम के भूमिगत परीक्षण से थर्राता है तो ज्ञानेन्द्रपति भविष्य के सवाल ले कर खड़े हो जाते हैं –
“मैं पूछता हूँ
यह पृथ्वी क्या केवल तुम्हारी है ?
क्या तुम्हें
एक केंचुए के पास जाकर
पृथ्वी को उर्वर करने में तल्लीन केंचुए के पास
नहीं पूछना चाहिए
पृथ्वी के बारे में कोई भी अहम फैसला लेने से पहले !
कौन जाने, पृथ्वी के भविष्य को ले, तुमसे ज्यादा चिंतित रहती हों चींटियाँ !
मेरी हैसियत एक केंचुए की हो
चींटी की तरह कुचल दी जाने की औकात हो मेरी तुम्हारे निकट
मेरा मानवाधिकार तुम्हारे दानवाधिकार के आगे नाचीज़ !
मैं तुम्हारे लिए खेत की मूली ही सही
चलो, तुम्हारे ही खेत की – और लो, सचमुच की –
इस पृथ्वी पर मेरा अधिकार
तुमसे कम तो नहीं”
जब हमारे अन्दर अपने देश, धर्म, जाति व सभ्यता – संस्कृति का अहंकार सिर चढ़ कर बोलने लगता है और हम इस खातिर मरने – मारने को उतारू होते हैं तभी हमें यह दिखना बंद हो जाता है कि हमारे बीच की कुछ प्यारी परम्पराएं दम तोड़ रही हैं। हमारे जीवन से “रामलीला” का पर्दा देखते – देखते हमेशा के लिए गिर गया और विशेष कर उस दौर में जब “राम भक्त” रामशिलाओं के साथ रामरथ निकाल रहे थे. “रामलीला” के अवसान की पीड़ा का अहसास “हे राम” की कुछ पंक्तियों में साफ दिखता है –
“निकल रहा था रामरथ, देश को दोफाड़ करता – सा
रामशिलाएँ अपने गिद्ध – पंख फड़कातीं गाँवों में उतर रही थीं
और उधर, अनदेखे
मर रही थीं रामलीलाएँ
गाँव में महीने – भर डटी रहनेवाली रामलीलाएँ
............
......................
ऐसे में
उन्होंने
राम को अपने राम – बाण में बदल दिया था
उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था कि मर रही हैं रामलीलाएँ
क्योंकि वाल्मीकि और तुलसी से ज्यादा उनके काम आ सकते थे रामानन्द सागर.”
ज्ञानेन्द्रपति की रचनाएं शब्द और व्याकरण की परिभाषित मर्यादाओं से परे संवेदना का नूतन संसार गढ़ती हैं और इस संसार में कुछ भी अस्पृश्य नहीं. उनकी रचना संसार में जीवन – राग है, साँसों में माटी की सुगंधि तो आँखों में तथाकथित ग्लोबल घटनाओं/हादसों को भेदने का सामर्थ्य. कविता को किसी वेश – भूषा के नकाब में कैद करने की बजाय वे उसे उन्मुक्त आकाश देते हैं और ठेठ देशज शब्द उनकी कविताओं में एक अनोखा आकर्षण पैदा करते हैं। ज्ञानेन्द्रपति का यही अक्खड़ स्वभाव और तथाकथित लोकमत के पाखंड के प्रतिपक्ष में खड़ा होना मठाधीशों को नाराज करता है। स्वयं उन्हीं के शब्दों में – “साहित्य के समकालीन शास्ताओं की आँखों में मैं किरकिरी की तरह गड़ता हूँ, यही ठीक है।” साहित्य के क्षेत्र में काबिज मठाधीशों और तथाकथित निति नियंताओं के हमलों का जिक्र करते हुए वे कहते हैं –
“खेसाड़ी दाल की तरह निन्दित
उखाड़ कर फेंक दिया जाऊँगा
भारतीय कविता के क्षेत्र से
क्योंकि अब
इतिहास की गति के भरोसे न बैठ
इतिहास की मति बदलने की तकनीक है उनकी मुट्ठी में
खो जाऊँगा
जिस तरह खो गयी है
बटलोई में दाल चुरने की सुगन्ध
अधिकतर घरों में”
किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित “कवि ने कहा” में ज्ञानेन्द्रपति की हृदयस्पर्शी कविताओं का एक पूरा रेंज है, जिसकी तमाम कवितायेँ पूर्व में प्रकाशित संकलनों – “संशयात्मा”, “गंगातट”, “शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है” आदि से ली गयी हैं तो साथ ही कुछ पहली बार प्रकाशित हुई हैं। स्मृति का एक अनोखा प्रकटीकरण “ट्राम में एक याद” के रूप में हुआ है –
“चेतना पारीक, कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
कुछ – कुछ खुश
कुछ – कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ?
अब भी कविता लिखती हो ?
..........
........................
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट् धक् – धक् में एक धड़कन कम है, कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ – पोंछ देखता हूँ
आदमियों को, किताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग – बिरंगी बस – ट्राम, रंग – बिरंगे लोग
रोग – शोक हँसी – ख़ुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है
चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो !”
तेजी से बदलती दुनिया में हमारी आदतों और निष्ठाओं में इतनी तेजी से बदलाव आ जा रहा है कि हमें खबर ही नहीं होती. हमारे जीवन से किताबों का निकलना भी एक ऐसा ही बदलाव है लेकिन ज्ञानेन्द्रपति इस बदलाव से जुड़े जोखिम का जिक्र “टेलीविजन को देखो” में करते हैं –
“.........
किताब एक खतरनाक चीज है
आदमी के हाथों में उसके जाते ही
सल्तनत के पाये डगमगाने लगते हैं
.........
लेकिन अब खतरा हैं वे
उन्हें कैद करने की जरुरत
किताबों के लिए खोले हुए तो हैं आलमारियों की धरियोंवाले पुस्तकालय
पुस्तकालयों के पेट में
आलमारियों के पटों में
बंद रहने दो किताबों को
सजावटी चीजों की तरह
...............................................”
यद्यपि इक्कीसवीं सदी के आगमन से बहुत पहले ही हमनें नई सदी और अपनी वैज्ञानिक सोच का ढोल पीटना शुरू कर दिया था. काल चक्र पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है इसलिए नई सदी एकाध सेकेण्ड की देरी किये बगैर बिल्कुल सही समय पर धरती पर उतर आयी; मगर हमारी सोच ? हमारी सोच नए युग के वैज्ञानिक आविष्कारों का अपनी अंधश्रद्धा के प्रसार हेतु किस तरह इस्तेमाल में ला सकती है, इसका बढ़िया चित्रण “उस दिन” में हुआ है जब पूरा भारतवर्ष गणेश प्रतिमा को दूध पिलाने लगा था –
“संचार – क्रांति के इस युग में
अंधश्रद्धा भी त्वरित संचरित कि संक्रमित होती है, बेशक !
अंधश्रद्धा !
जिसकी चकाचौंध में नहाये नगर की
हैरत से खुली – खुली आँखे भी
भीतर से मुँदी – मुँदी थीं
उस दिन”
एक ओर विकास की अनंत धारा में गणेश जी को दूध पिलाता हमारा श्रद्धालु मानस तो दूसरी ओर सनातन काल से हमारे अस्तित्व यात्रा की साक्षी रही गंगा की दुर्दशा पर प्रगतिशील भारत को देख मन की पीड़ा अनायास ही “नदी और साबुन” में प्रकट हो जाती है –
“नदी !
तू इतनी दुबली क्यों है
और मैली – कुचैली
मरी हुई इच्छाओं की तरह मछलियाँ क्यों उतरायी हैं
तुम्हारे दुर्दिनों के दुर्जल में
..............
....................
आह ! लेकिन
स्वार्थी कारखानों का तेजाबी पेशाब झेलते
बैंगनी हो गयी तुम्हारी शुभ्र त्वचा
हिमालय के होते भी तुम्हारे सिरहाने
हथेली – भर की एक साबुन की टिकिया से
हार गयीं तुम युद्ध !
कहते हैं संवेदना का अतिरेक कविता के रूप में कागज पर उतरता है और अगर ज्ञानेन्द्रपति के हाथों में लेखनी हो तो संवेदना की असीम यात्रा भी संभव है। पूर्व में प्रकाशित कविता संकलन “शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है” में संकलित कविता “आशीर्वाद” हमें कुछ ऐसी ही यात्रा पर ले चलती है –
“वे तुम्हें शिशु नहीं रहने देंगे
वे तुमसे तुम्हारे दिनों को नोच देंगे
वे उन तितलियों को
छुड़ा कर उड़ा देंगे
...........
................
वे तुम्हारी गंदी कमीजों को
खुलवा देंगे
और झक – झक धुली माँड – सी महकती वर्दियाँ
पहनने को देंगे
वे तुम्हारे बुजुर्ग हैं
वे तुम्हें बड़े होने का आशीर्वाद दे रहे हैं
उनके रथों के घोड़े थक गए हैं
(और उन्हें अभी और दूर जाना है)
आज के “फेस बुक दौर” में जब कुछ “लाइक्स” के लिए कविता को उद्धरित करने का फैशन हो, ज्ञानेन्द्रपति एक साफ़ आईना लिए सामने खड़े हैं। अगर आप जोखिम लेने को तैयार हों, अपने सच को ज्यों का त्यों जानने और झेलने की क्षमता हो तो आप उस आईने के सामने खड़े हो सकते हैं; लेकिन यह आपका स्वयं का फैसला होगा – मैं किसी तरह की गारंटी नहीं ले रहा.
- संजय चौबे SANJAY CHOUBEY at July 30, 2017