जमनालाल बजाज
जमनालाल बजाज | |
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१९७० के एक डाकटिकट पर जमनालाल बजाज | |
जन्म | 04 नवम्बर 1889 सीकर, ब्रिटिश भारत |
मौत | 11 फ़रवरी 1942 (उम्र 52) वर्धा |
पेशा | समाजसेवक, राजनेता, स्वतंत्रता सेनानी, उद्योगपति |
जीवनसाथी | जानकी देवी |
बच्चे | कमलाबाई, कमलनयन, उमा, रामकृष्ण, मदालसा |
माता-पिता | कनीराम (पिता) और बिरधीबाई (माता) |
जमनालाल बजाज (४ नवम्बर १८८९ - ११ फरवरी १९४२) भारत के एक उद्योगपति, मानवशास्त्री एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। वे महात्मा गांधी के अनुयायी थे तथा उनके बहुत करीबी व्यक्ति थे। गांधीजी ने उन्हें अपने पुत्र की तरह माना। आज भी उनके संचालित ट्रस्ट समाजसेवा के कामों में जुटा है।[1][2] असहयोग आंदोलन के दौरान इन्होंने कांग्रेस को 1लाख रुपए की आर्थिक सहायता दी थी। तथा मुस्लिम लीग को भी ₹11000 रुपये दिए गए।
असहयोग आंदोलन के दौरान इन्होंने अपनी राय बहादुर की उपाधि त्याग दी,जो अंग्रेजों द्वारा दी गई थी।
1927 ईस्वी में बलवंत सांवलाराम देशपांडे के साथ मिलकर इन्होंने अमरसर जयपुर में चरखा संघ की स्थापना की।
जीवनी
जमनालाल बजाज का जन्म 4 नवम्बर 1889 को जयपुर रियासत के सीकर में '"काशी का बास" में एक गरीब मारवाड़ी परिवार में हुआ था। वे केवल चौथी कक्षा तक पढ़े थे। उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी। वर्धा के एक प्रौढ़ निःसन्तान दम्पत्ति ने बहुत ही चालाकी से जमनालाल की मां से वचन ले लिया और फिर उस बहुत ही धनी परिवार ने जमनालाल को गोद ले लिया।
बाल-विवाह के उस दौर में जमनालाल का विवाह 13 वर्ष की उम्र में ही नौ वर्ष की जानकी से कर दिया गया। केवल 17 वर्ष की उम्र में कारोबार संभालने वाले जमनालाल ने एक बाद एक कई कंपनियों की स्थापना की थी, जो आगे चलकर बजाज समूह कहलाया । आज यह भारत के प्रमुख व्यवसायी घरानों में से एक है।
युवा जमनालाल के भीतर आध्यात्मिक खोजयात्रा आरम्भ हो चुकी थी और वह किसी सच्चे कर्मयोगी गुरु की तलाश में भटक रहे थे। इस क्रम में पहले वे मदनमोहन मालवीय से मिले। कुछ समय तक वे रबीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ भी रहे। अन्य कई साधुओं और धर्मगुरुओं से भी वह जाकर मिले। जमनालाल धीरे-धीरे स्वाधीनता आन्दोलन में जुड़ते गए। 1906 में जब बाल गंगाधर तिलक ने अपनी मराठी पत्रिका केसरी का हिन्दी संस्करण निकालने के लिए विज्ञापन दिया तो युवा जमनालाल ने एक रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मिलने वाले जेब खर्च से जमा किए गए सौ रुपए तिलक को जाकर दे दिए।
इस बीच जमनालाल महात्मा गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में किए जा रहे सत्याग्रह की खबरों को पढ़ते और उनसे बहुत प्रभावित होते रहे। 1915 में भारत वापस लौटने के बाद जब गांधीजी ने साबरमती में अपना आश्रम बनाया तो जमनालाल कई बार कुछ दिन वहां रहकर गांधीजी की कार्यप्रणाली और उनके व्यक्तित्व को समझने की कोशिश करते रहे। गांधीजी में उन्हें सन्त रामदास के उस वचन की झलक मिली कि "उसी को अपना गुरु मानकर शीष नवाओ जिसकी कथनी और करनी एक हो"। जमनालाल को अपना गुरु मिल चुका था। उन्होंने पूरी तरह से गांधीजी को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया।
जमनालाल अब गांधीजी से अक्सर यह अनुरोध करने लगे कि गांधी अपना आश्रम वर्धा में आकर बनाएं जहां उन्हें जमनालाल की ओर से हर प्रकार का सहयोग मिलेगा। बहुत कहने पर उन्होंने अपनी जगह 1921 में विनोबा भावे को वर्धा भेज दिया और कहा कि वे जाकर वहां के ‘सत्याग्रह आश्रम’ की जिम्मेदारी संभालें। विनोबा पूरे बजाज परिवार के कुलगुरु की तरह वहां जा बसे। विनोबा और जमनालाल बजाज के बीच हुए पत्राचार को पढ़कर उन दोनों के बीच के आत्मीय संबंधों का पता चलता है।
1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के दौरान जमनालाल ने एक अजीब सा प्रस्ताव महात्मा गांधी के सामने रख दिया। उन्होने गांधीजी से अनुरोध किया कि वे उनका ‘पांचवां बेटा’ बनना चाहते हैं और उन्हें अपने पिता के रूप में ‘गोद लेना’ चाहते हैं। पहले पहल तो इस अजीब प्रस्ताव को सुनकर गांधीजी को आश्चर्य हुआ, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने इसपर अपनी स्वीकृति दे दी।
जमनालाल ने सामाजिक सुधारों की शुरुआत सबसे पहले अपने घर से ही की। असहयोग आन्दोलन के समय जब विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार शुरू हुआ तो उन्होंने सबसे पहले अपने घर के कीमती और रेशमी वस्त्रों को बैलगाड़ी पर लदवाकर शहर के बीचोंबीच उसकी होली जलवाई। उनकी पत्नी जानकीदेवी ने भी सोने और चांदी जड़े हुए अपने वस्त्रों को आग के हवाले कर दिया और दोनों ने आजीवन खादी पहनने का व्रत ले लिया। अंग्रेज सरकार द्वारा दी गई राय बहादुर की पदवी त्याग दी।
असहयोग आंदोलन के दौरान ब्रिटिश शासन के खिलाफ तीखा भाषण देने और सत्याग्रहियों का नेतृत्व करने के लिए 18 जून, 1921 को जमनालाल को गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्हें डेढ़ वर्ष के सश्रम कारावास की कठोर सजा और 3000 रुपये का दण्ड भी हुआ।
1935 के अधिनियम के तहत जब कांग्रेस ने चुनाव लड़ने का फैसला किया तो जमनालाल ने इसका खुला विरोध किया था। बाद में जब चुने गए विधायक और मंत्री ब्रिटेन की राजशाही के नाम पर शपथ-ग्रहण करने लगे, तो भी उन्होंने इसपर ऐतराज जताया। कांग्रेस के इस निर्णय से वे कभी संतुष्ट न हो सके।
जमनालाल को कभी किसी पद की इच्छा नहीं रही। 1937-38 में हरिपुरा में उन्हीं को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने पर सहमति हो चुकी थी लेकिन उन्होंने गांधीजी से कहा कि यूरोप से लौटे सुभाष बाबू को यह सम्मान और अवसर दिया जाना चाहिए।
11 फरवरी, 1942 को अकस्मात ही जमनालालजी का देहान्त हो गया। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी जानकीदेवी ने स्वयं को देशसेवा में समर्पित कर दिया। विनोबा के भूदान आन्दोलन में भी वह उनके साथ रहीं। वास्तव में जमनालाल जी ने गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को वास्तविक जीवन में जीकर दिखाया।
समाजसेवा
जमनालाल बजाज ने कारोबार के साथ ही सामाजिक जीवन में भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं अदा कीं। एक समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर याद किए जाने वाले जमनालाल बजाज को महात्मा गांधी ने अपना 5वां पुत्र कहा था। महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका से वापस आने के बाद से ही जमनालाल बजाज उनसे प्रभावित थे। इसके बाद उन्होंने ही महात्मा गांधी को वर्धा में स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र बनाने की सलाह दी थी। इसके लिए उनकी ओर से 20 एकड़ जमीन भी दान की गई थी। महात्मा गांधी का उन पर ऐसा प्रभाव था कि अंग्रेजों से मिली राय बहादुर की उपाधि को उन्होंने लौटा दिया था और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे।
वे असहयोग आन्दोलन, नागपुर झंडा सत्याग्रह, सायमन कमिशन का बहिष्कार, डांडी यात्रा और अन्य कई आन्दोलनों में वह सक्रिय तौर पर शामिल रहे। यहां तक की डांडी मार्च में महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के बाद जमनालाल बजाज को भी दो वर्ष के लिए नासिक सेन्ट्रल जेल में रहना पड़ा। खुद महात्मा गांधी ने उनके योगदान का जिक्र करते हुए कहा था कि मैं कोई काम नहीं कर सकता, यदि जमनालाल बजाज की ओर से तन, मन और धन से सहयोग न हो। मुझे और उन्हें राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है।
भारतीय स्वतंत्रता के महानायकों में से एक रहे बालगंगाधर तिलक का 1920 में निधन हुआ था और 1921 में उनके नाम पर ऑल इंडिया तिलक मेमोरियल फंड बना था। इसमें जमनालाल बजाज ने उस समय 1 करोड़ रुपये की बड़ी पूंजी दान की थी। इस राशि का उपयोग देश भर में खादी की लोकप्रियता के लिए किया गया था। करीब दो दशकों तक वह कांग्रेस के लिए एक 'फाइनेंसर' की तरह रहे।
जमनालाल बजाज के त्याग की ये सूची लम्बी है। उन्होंने अंग्रेज सरकार द्वारा अपनी ओर से दी गई ‘राय-बहादुर’ की पदवी त्याग दी। बन्दूक और रिवॉल्वर जमा कराते हुए अपना लाइसेंस भी वापस कर दिया। अदालतों का बहिष्कार करते हुए अपने सारे मुकदमे वापस ले लिए। मध्यस्थता के जरिए विवादों को निपटाने के लिए अपने साथी व्यवसायियों को मनाया। जिन वकीलों ने आज़ादी की लड़ाई के लिए अपनी वकालत छोड़ दी उनके निर्वाह के लिए उन्होंने कांग्रेस को एक लाख रुपये का अलग से दान दिया। सनातनियों के घोर विरोध के बावजूद वर्धा स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर में दलितों का प्रवेश कराने में उन्होंने विनोबा के नेतृत्व में अद्भुत सफलता हासिल की। अपने घर के प्रांगण, खेतों और बगीचों में स्थित कुओं को उन्होंने दलितों के लिए खोल दिया।
आज के पूंजीपतियों की मानसिकता और जीवनचर्या को देखते हुए कल्पना करना भी मुश्किल हो सकता है कि भारत में जमनालाल बजाज जैसे वैरागी पूंजीपति भी हुए हैं जिसने त्याग और ट्रस्टीशिप का ऐसा उदाहरण पेश किया कि गांधी और विनोबा जैसे लोग उनके साथ पारिवारिक सदस्य के रूप में घुल-मिल गए।
उल्लेखनीय कार्य
- राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के लिये भूमि-दान
- सस्ता साहित्य मण्डल की स्थापना के लिये धन की व्यवस्था
सन्दर्भ
- ↑ Tikoo, Rajiv (2000). "The Gandhian spirit". फिनांसियल एक्सप्रेस (अंग्रेज़ी में). मुम्बई. मूल से 19 दिसंबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 दिसंबर 2020.
- ↑ "Our Founding Father". www.bajajfinserv.in.
इन्हें भी देखिये
बाहरी कड़ियाँ
- बजाज फाउण्डेशन का जालघर
- 'कथनी करनी एक सी' फिल्म https://www.imdb.com/title/tt0156693/