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कोयला गैस

प्रदीपक गैसों में पहली गैस "कोयला गैस" थी। कोयला गैस कोयले के भंजक आसवन या कार्बनीकरण से प्राप्त होती है। एक समय कोक बनाने में उपजात के रूप में यह प्राप्त होती थी। पीछे केवल गैस की प्राप्ति के लिये ही कोयले का कार्बनीकरण होता है। आज भी केवल गैस की प्राप्ति के लिये कोयले का कार्बनीकरण होता है।

कोयले का कार्बनीकरण पहले पहल ढालवाँ लोहे के भमके में लगभग 600 डिग्री सें. पर होता था। इससे गैस की उपलब्धि यद्यपि कम होती थी, तथापि उसका प्रदीपक गुण उत्कृष्ट होता था। सामान्य कोयले में एक विशेष प्रकार के कोयले, "कैनेल" कोयला, को मिला देने से प्रदीपक गुण उन्नत हो गया। पीछे अग्नि-मिट्टी और सिलिका के भभकों में उच्च ताप पर कार्बनीकरण से गैस की मात्रा अधिक बनने लगी। अब गैस का उपयोग प्रदीपन के स्थान पर तापन में अधिकाधिक होने लगा। गैस का मूल्य ऊष्मा उत्पन्न करने से आँका जाने लगा और इसके नापने के लिये एक नया मात्रक "थर्म" निकला, जो एक लाख ब्रिटिश ऊष्मा मात्रक के बराबर है।

गैसनिर्माण में जो भभके आज प्रयुक्त होते हैं वे क्षैतिज हो सकते हैं, या उर्ध्वाधर, या 30 डिग्री से लेकर 35 डिग्री तक नत। इन भभकों का वर्णन "कोक" प्रकरण में हुआ है। गैसनिर्माण के लिये वही कोयला उत्तम समझा जाता है जिसमें 30 से लेकर 40 प्रतिशत तक वाष्पशील अंश हो तथा कोयले के टुकड़े एक किस्म के और एक विस्तार के हों।

गैस के लिये कोयले का कार्बनीकरण पहले 1,000 डिग्री सें. पर होता था, पर अब 1,200 डिग्री -1,400 डिग्री सें. पर और कभी कभी 1,500 सें. पर भी, होता है। उच्च ताप पर और अधिक काल तक कार्बनीकरण से गैस अधिक बनती है। उच्च ताप पर प्रति टन कोयले से 10,000 से लेकर 12,500 घन फुट तक, मध्य ताप पर 6,000 से लेकर 10,000 घन फुट तक और निम्न ताप पर 3,000 से लेकर 4,000 घन फुट तक गैस बनती है। विभिन्न तापों पर कार्बनीकरण से गैस के अवयवों में बहुत भिन्नता आ जाती है। प्रमुख गैसों, मेथेन, एथेन, हाइड्रोजन और कार्बन डाइआक्साइड, की मात्राओं में अंतर होता है।

कोयला गैस का संघटन एक सा नहीं होता। कोयले की विभिन्न किस्में होने के कारण और विभिन्न ताप पर कार्बनीकरण से अवयवों में बहुत कुछ भिन्नता आ जाती है, तथापि सामान्यत: कोयला गैस का संघटन इस प्रकार दिया जा सकता है: अवयव

प्रतिशत आयतन

हाइड्रोजन 57.2

मेथेन 29.2

कार्बनमोनोक्साइड 5.8

एथेन 1.35

एथिलीन 2.50

कार्बन डाइ-आक्साइड 1.5

नाइट्रोजन 1.0

प्रोपेन 0.11

प्रोपिलीन 0.29

हाइड्रोजन सल्फाइड 0.7

ब्यूटेन 0.04

ब्यूटिलीन 0.18

एसीटिलीन 0.05

हलका तेल 0.15

भभके से जो गैस निकलती है उसका ताप ऊँचा होता है। उसमें पर्याप्त अलकतरा, भाप, ऐमोनिया, हाइड्रोजन सल्फाइड, नैपथेलीन, गोंद बनानेवाले पदार्थ और वाष्प रूप में गंधक के कार्बनिक यौगिक रहते हैं। इन अपद्रव्यों को गैस से निकालना जरूरी होता है, विशेषत: जब गैस का उपयोग घरेलू ईंधन के रूप में होता है। कोयला गैस के निर्माण के प्रत्येक कारखाने में इन अपद्रव्यों को पूर्ण रूप से निकालने अथवा उनकी मात्रा इतनी कम करने का प्रबंध रहता है कि उनसे कोई क्षति न हो। सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा होना आवश्यक भी है।

भभके से गरम गैसें (ताप 600 डिग्री -700 डिग्री सें.) नलों के द्वारा बाहर निकलती हैं। उष्ण, हलके ऐमोनियम-द्राव के फुहारे से उसे ठंड़ा करते हैं। गैसें ठंड़ी होकर ताप 75 डिग्री -95 डिग्री सें. हो जाता है। अधिकांश अलकतरा यहीं संघनित होकर नीचे बैठ जाता है। यहां से गैसें प्राथमिक शीतक, परोक्ष या प्रत्यक्ष, में जाती हैं, जहाँ ताप और गिरकर 25 डिग्री से 35 डिग्री सें. के बीच हो जाता है। यहाँ जल और अलकतरा संघनित होकर नीचे बैठ जाते हैं। गैस को शीतक में लाने के लिये रेचक पंप का व्यवहार होता है। शीतक से गैस अलकतरा निष्कर्षक या अवक्षेपक में जाती है, जहाँ बिजली से अलकतरे का अवक्षेपण संपन्न होता है। यहाँ से गैस फिर अंतिम शीतक में जाती है जहाँ गैस का नैपथलीन निकाला जाता है। हलके तेलों को निकालने के लिये गैस को मार्जक में ले जाते हैं। यहाँ हाइड्रोजन सल्फाइड को निकालने के लिये बक्स में लोहे के सक्रिय जलीयित आक्साइड रखे रहते हैं।

एक दूसरी विधि "सीबोर्ड विधि" से भी हाइड्रोजन सल्फाइड निकाला जाता है। यहाँ मीनार में सोडियम कार्बोनेट का 3.5 प्रतिशत विलयन रखा रहता है, जिससे धोने से 98 से 99 प्रतिशत हाइड्रोजन सल्फाइड निकाला जा सकता है। यह विधि अपेक्षतया सरल है।

मार्जक में हलके तेल से धोने से कार्बनिक गंधक यौगिक निकल जाते हैं। गैस में अल्प मात्रा में नैफ्थेलीन रहने से कोई हानि नहीं, पर अधिक मात्रा से कठिनाई उत्पन्न हो सकती है। इसे निकालने के लिये पेट्रोलियम का कम श्यानवाला अंश इस्तेमाल होता है। इससे गोंद बननेवाले पदार्थ भी कुछ निकल जाते हैं, पर "कोरोना" विसर्जन से ओर फिर मार्जक में पारित करने से गोंद बननेवाले पदार्थ प्राय: समस्त निकल जाते हैं। अब गैस को कुछ सुखाने की आवश्यकता पड़ती है। गैस न बिलकुल सूखी रहनी चाहिए और न बहुत भीगी। गैस का अनावश्यक जल आर्द्रताग्राही विलयन, या प्रशीतन, या संपीडन द्वारा निकालकर बड़ी-बड़ी गैस-टंकियों में संग्रह करते अथवा सिलिंडरों में दबाव से भरकर उपभोक्ताओं के पास भेजते हैं। टंकियों में गैस नापने के लिये गैसमीटर भी लगे होते हैं।

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