कॉरोना
सूर्य के वर्णमंडल के परे के भाग को किरीट या कोरोना (Corona) कहते हैं। पूर्ण सूर्यग्रहण के समय वह श्वेत वर्ण का होता है और श्वेत डालिया के पुष्प के सदृश सुंदर लगता है। किरीट अत्यंत विस्तृत प्रदेश है और प्रकाश-मंडल के ऊपर उसकी ऊँचाई सूर्य के व्यास की कई गुनी होती है।
कॉरोना चाँद या पानी की बूँदों के विवर्तन के द्वारा सूर्य के चारों ओर बनाई गई एक पस्टेल हेलो को कहते हैं। इसका निर्माण प्लाज़्मा द्वारा होता है। ऐसे सिरोस्टरटस के रूप में बादलों में बूंदों और बादल परत स्वयं को लगभग पूरी तरह से समान इस घटना के लिए आदेश में हो रहा होगा. रंग प्रदर्शन कभी कभी के लिए आनंददायक प्रतीत होता है।[1] कोरोना का तापमान लाखों डिग्री है। पृथ्वी से कोरोना सिर्फ पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान ही दिखाई देता है।[2] कोरोना सूर्य की सबसे बड़ी पर्त होती है। कोरोना का तीव्र तापमान अभी तक ज्ञात नहीं हो पाया है। सौर वायु सूर्य से लगभग ४०० से ७०० कि॰मी॰ प्रति सेकेंड की गति से बाहर निकलती है।
परिचय
दूरदर्शी की सहायता से उसका वास्तविक विस्तार ज्ञात नहीं किया जा सकता, क्योंकि ज्यों-ज्यों सूर्य से दूर जाएँ प्रकाश की तीव्रता शीघ्रता से कम होती जाती है। अत: फोटोग्राफ पट्ट पर एक निश्चित ऊँचाई के पश्चात् किरीट के प्रकाश का चित्रण नहीं हो सकता। रेडियो दूरदर्शी किरीट के विस्तार का अधिक यथार्थता से निर्धारण करने में उपयुक्त सिद्ध हुआ है। इसके द्वारा निरीक्षण के अनुसार किरीट प्रकाशमंडल के ऊपर सूर्य के दस व्यासों के बराबर ऊँचाई से भी अधिक विस्तृत हो सकता है। किरीट के बाह्य भाग रेडियो तरंग किरीट तक भेजकर परावर्तित तरंग का अध्ययन किया जाए। अत: रेडियों दूरदर्शी की भी उपयोगिता सीमित है। राइल ने किरीट के अध्ययन को एक विचित्र विधि निकाली है। प्रति वर्ष जून मास में टॉरस तारामंडल का एक तारा किरीट के समीप आता है। ज्यों-ज्यों पृथ्वी की वार्षिक गति के कारण सूर्य शनै:-शनै: इस तारे के सम्मुख होकर गमन करता है, तारे से आनेवाली रेडियो तरंग की तीव्रता का सतत मापन किया जाता है। यह तीव्रता किरीट की दृश्य सीमा तक तारे के पहुँचने से पहले ही कम होने लगती है। यह देखा गया है कि वास्तव में रेडियो तरंग की तीव्रता में सूर्य के अर्धव्यास की 20 गुनी दूरी पर से ही क्षीणता आने लग जाती है। यहीं नहीं, कभी-कभी किरीट पदार्थ लाखों किलोमीटर दूर तक आ जाता हैं और कभी-कभी तो वह पृथ्वी तक पहुँचकर भीषण चुंबकीय विक्षोभ और दीप्तिमान ध्रुवप्रभा उत्पन्न कर देता है।
किरीट की सीमा अचल नहीं अपितु सूर्यकलंक के साथ परिवर्तित होती रहती है। अधिकतम कलंक पर वह लगभग वृत्तीय होती हैं इसमें से चारों ओर अनियमित रूप से फैला होता है इसके विरुद्ध न्यूनतम कलंक पर वह सूर्य के विषुवद्वृत्तीय समतल में अधिक विस्तृत हो जाती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि किरीट की आकृति सूर्य के चुंबकीय क्षेत्र पर निर्भर है।
किरीट का वर्णक्रमपट्ट (स्पेक्ट्रम)
किरीटीय वर्णक्रमपट्ट में सतत विकिरण अंकित होता है, जिसमें कुछ दीप्तिमान रेखाएँ स्थित होती हैं। अनेक वर्षों तक इन रेखाओं का कारण ज्ञात नहीं किया जा सका, क्योंकि उनके तरंगदैर्ध्य किसी भी ज्ञात तत्व की वर्णक्रम रेखाओं के तरंग-दैर्घ्य के सदृश नहीं थे। अत: ज्यातिषियों ने यह कल्पना की कि सूर्यकिरीट में 'कोरोनियम' नामक एक नवीन तत्व उपस्थित है। परंतु शनै:-शनै: नवीन तत्वों की आवर्त सारणी (Periodic Table) के रिक्त स्थान पूर्ण किए जाने लगे और यह निश्चयपूर्वक सिद्ध हो गया है कि कोरोनियम कोई नवीन तत्व नहीं है, वरन् कोई ज्ञात तत्व ही है जिसकी रेखाओं के तरंगदैध्यों में किरीट की प्रस्तुत भौतिक अवस्था इतना परिवर्तन कर देती है कि उनका पहचानना सरल नहीं। सन् 1940 में ऐडलेन ने इस प्रश्न का पूर्ण रूप से समाधान किया। सैद्धांतिक गणना के आधार पर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि किरीट के वर्णक्रम की प्रमुख रेखाओं में से अनेक रेखाएँ लोह, निकल और कैलसियम के अत्यंत आयनित परमाणओं द्वारा उत्पन्न होती हैं। उदाहरणार्थ, लोह के उदासीन परमाणु में 26 इलेक्ट्रन होते हैं और किरीट के वर्णक्रम कर हरित रेखा का वे परमाणु विकिरण करते हैं, जिनके 13 इलेक्ट्रन आयनित हो चुके हैं। किरीट के वर्णक्रम में उपस्थित रेखाओं की तीव्रता में कलंकचक्र के साथ परिवर्तन होता रहता हैं और अधिकतम कलंक पर वे सबसे अधिक तीव्र होती हैं। इसी प्रकार यदि सूर्यबिंब के विविध खंडों द्वारा विकीर्ण रेखाओं की तीव्रता की तुलना की जाए तो निश्चयात्मक रूप से यह कहा सकता है कि समस्त रेखाएँ कलंकप्रदेशों के समीप सबसे अधिक उग्र होती हैं।
रॉबर्ट्स ने सूर्यबिंब के पूर्वीय और पश्चिमी कोरों पर किरीट की दीप्ति का दैनिक अध्ययन किया, जिसके आधार पर उन्होंने यह सिद्ध किया कि किरीट की आकृति बहुत कुछ स्थायी है और उसके अक्षीय घूर्णन (Rotation) का आवर्तनकाल 26 दिन है, जो प्रकाशमंडल (Photosphere) के घूर्णन के आवर्तनकाल के लगभग है। वे यह भी सिद्ध कर सके कि किरीट के दीप्तिमान खंड कलंकों के ऊपर केंद्रीभूत होते हैं। कलंक और किरीट के दीप्तिमान प्रदेशों का यह संबंध महत्वपूर्ण है।
किरीट में लोह के ऐसे परमाणुओं की उपस्थिति जिनके 13 इलेक्ट्रन आयनित हो चुके हैं, यह संकेत करती है कि किरीट में 10 लाख अंशों से अधिक का ताप विद्यमान होना चाहिए। इस कथन का समर्थन अनेक प्रकार के अवलोकन करते हैं, जिनमें से सूर्य से आनेवाले रेडियो विकिरण की तीव्रता का अध्ययन प्रमुख है। किरीट, सौर ज्वाला (Prominence) और वर्णमंडल का प्रकाशमंडल की अपेक्षा अधिक ताप पर होना अत्यंत विषम परिस्थिति उपस्थित करता हैं। यह अधिक ताप प्रकाशमंडल से तापसंवाहन के कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उष्मा उच्च ताप से निम्न ताप की ओर गमन करती हैं। किरीट के इस अत्यधिक ताप का कारण अभी तक निश्चयात्मक रूप से ज्ञात नहीं हो सका हैं। अनेक ज्योतिषियों ने समय समय पर इस विषय पर अनेक प्रकार के विचार प्रकट किए हैं, जिनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं। मेंज़ल ने यह कल्पना की कि सूर्य के अंतर में किसी कारण ऐसे भंवर उत्पन्न होते हैं जिनमें सूर्य के उच्च तापवाले निम्न स्तरों का पदार्थ विस्तरण करता हुआ उसके पृष्ठ तक आ पहुँचता है और प्रत्येक क्षण विस्तरण के कारण उत्पन्न होनेवाले ताप के ह्रास को रोकने के लिए भँवर के पदार्थ का पुन: तापन होता रहता हैं। यह पदार्थ वातिमंडल में ऊपर उठता रहता है और कुछ समय के पश्चात् वह अपनी उष्णता को किरीट में मिलाकर उसका ताप बड़ा देता हैं। उनसोल्ड ने यह सिद्ध किया है कि प्रकाशमंडल के समीप उस स्तर में जिसका ताप 10,000 अंश से 20,000 अंश तक है, पदार्थ की गति विक्षुब्ध (turbulent) होती है और संवाहन का यह प्रदेश हाइड्रोजन के आयनीकरण के कारण उत्पन्न होता हैं। अधिकांश ज्योतिर्विद् इस मत से सहमत हैं कि यह प्रदेश शूकिकाओं (Spikelets) एवं कणिकाओं से संबंधित विक्षुब्ध गति का उद्गम है। टॉमस और हाउट्गास्ट के मतानुसार सूर्य के अंदर से उष्ण गैस की धाराएँ ध्वनि की गति से भी अधिक वेग के साथ किरीट में प्रवेश करती हैं और प्रेक्षित ताप तक उसको तप्त करती हैं। श्वार्शचाइल्ड ने भी इसी प्रकार के विचार प्रकट किए हैं, परंतु उनका मत है कि उष्ण गैस की इन धाराओं का वेग ध्वनि की गति से कम होता हैं। यह असंभव नहीं कि इस प्रकार के प्रभावों का किरीट के लक्षणों का निर्धारण करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग हो। ऑल्फवेन ने यह सिद्ध किया है कि जब विद्युच्छंचारी पदार्थ चुंबकीय क्षेत्र में गतिमान होता है तो विद्युच्चुंबकीय तरंगें उत्पन्न होती हैं। सूर्य के एवं कलंकों के चुंबकीय क्षेत्र में विद्यमान पदार्थ की गति ऐसी तरंगें उत्पन्न करने में समर्थ है। ऑल्फवेन और वालेन का मत है कि ज्यों-ज्यों ये तरंगें किरीट में आगे बढ़ती हैं उनकी ऊर्जा क ह्रास होता जाता है और यह ऊर्जा किरीट को अभीष्ट ताप तक तप्त करने में समर्थ होती हैं।
आजकल इन विचारों का विस्तृत परीक्षण हो रहा है और ऐसा अनुमान है कि इस प्रकार की प्रक्रिया का किरीट की तापोच्चता में हाथ हो सकता है। परंतु संप्रति निश्चयात्मक रूप से यह कहना कि द्रव-चुंबकीय तरंगें किरीट को अभीष्ट ताप तक तप्त कर सकती हैं अथवा नहीं, असंभव है। अत: किरीट का अत्यधिक ताप आज भी एक रहस्य है।
इन्हें भी देखें
- खगोलशास्त्र से सम्बन्धित शब्दावली
- किरीट विसर्जन (corona discharge)
सन्दर्भ
- ↑ मौसम के बारे में जानें: कोरोना[मृत कड़ियाँ]। सुपर ग्लोसरी
- ↑ चंद्रयान के बाद अब मिशन सूरज । नवभारत टाइम्स। १२ नवम्बर २००८
बाहरी कड़ियाँ
- NASA description of the solar corona
- Coronal heating problem at Innovation Reports
- NASA/GSFC description of the coronal heating problem
- FAQ about coronal heating
- Solar and Heliospheric Observatory, including near-real-time images of the solar corona
- Coronal x-ray images from the Hinode XRT
- nasa.gov Astronomy Picture of the Day July 26, 2009 - a combination of thirty-three photographs of the sun's corona that were digitally processed to highlight faint features of a total eclipse that occurred in March of 2006
- Animated explanation of the core of the Sun (University of Glamorgan)
- Animated explanation of the temperature of the Corona (University of Glamorgan)