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उत्तरपुराण

महापुराण का उत्तरार्ध 'उत्तरपुराण कहलाता है। यह जिनसेन के पट्टशिष्य गुणभद्राचार्य की प्रौढ़ रचना है। इसमें लगभग 9,500 श्लोक हैं जिनमें 24 में से 23 तीर्थकरों तथा अन्य शलाकापुरुषों के चरित्र काव्यरीति में वर्णित हैं। महापुराण के पूर्वाद्ध, आदिपुराण की अपेक्षा विस्तार में यह नि:सदेह बहुत ही न्यून है, परंतु कला की दृष्टि से यह पुराण आदिपुराण का एक उपयुक्त पूरक माना जा सकता है।

उत्तरपुराण (प्रकाशित संस्करण की झलक)

उत्तरपुराण की समाप्तितिथि का पूरा परिचय नहीं मिलता, परंतु इसकी समाप्ति शक सं. 820 (898 ई.) से पहले अवश्य हो गई होगी, क्योंकि गुणभद्र के शिष्य लोकसेन के कथनानुसार उक्त संवत्‌ में इस ग्रंथ का पूजामहोत्सव निष्पन्न किया गया था। विद्वानों का अनुमान है कि महापुराण का यह पूजामहोत्सव लोकसेन ने अपने गुरु के स्वर्गवासी होने पर किया होगा। गुणभद्र बड़े ही विनीत तथा गुरुभक्त थे। काव्यकाला में वे अपने पूज्य गुरुदेव के सुयोग्य शिष्य थे। उत्तरपुराण की कथाओं में जीवंधर की कथा बड़ी प्रसिद्ध है जिसका वर्णन अनेक कवियों ने संस्कृत और तमिल में काव्यरूप में किया है।