आयोजन
वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भविष्य की रुपरेखा तैयार करने के लिए आवश्यक क्रियाकलापों के बारे में चिन्तन करना आयोजन या नियोजन (Planning) कहलाता है। यह प्रबन्धन का प्रमुख घटक है।
आज जिस प्रकार के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक माहौल में हम हैं, उसमें नियोजन उपक्रम एक अभीष्ट जीवन-साथी बन चुका है। यदि समूहि के प्रयासों को प्रभावशाली बनाना है तो कार्यरत व्यक्तियों को यह जानना आवश्यक है कि उनसे क्या अपेक्षित है और इसे केवल नियोजन की मदद से ही जाना जा सकता है। इसीलिए तो कहा जाता है कि प्रभावशाली प्रबन्ध के लिए नियोजन उपक्रम की समस्त क्रियाओं में आवश्यक है। लक्ष्य निर्धारण तथा उस तक पहुँ चने तक का मार्ग निश्चित किये बिना संगठन, अभिप्रेरण, समन्वय तथा नियन्त्रण का कोई भी महत्त्व नहीं रह पायेगा। जब नियोजन के अभाव में क्रियाओं का पूर्वनिर्धारण नहीं होगा तो न तो कुछ कार्य संगठन को करने को ही होगा, न समन्वय को और न ही अभिप्रेरणा और नियन्त्रण को। इसीलिए ही विद्वानों ने नियोजन को प्रबन्ध का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य माना है। नियोजन की प्रक्रिया मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही मौजूद है, क्योंकि यह मानव का स्वभाव रहा है कि उसे आगे क्या करना है? इसकी वह पूर्व में कल्पना करता है। आज इसका सुधरा हुआ स्वरूप हमारे सामने है।
नियोजन के उद्देश्य
- 1. जानकारी प्रदान करना : नियोजन का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य, संस्था में कार्यरत कर्मचारियों एवं बाहरी व्यक्तियों को उपक्रम के लक्ष्यों एवं उप-लक्ष्यों की जानकारी प्रदान करना तथा इन्हें प्राप्त करने की विधियों के सम्बन्ध में भी सूचना प्रदान करना है।
- 2. विशिष्ट दिशा प्रदान करना : नियोजन द्वारा किसी कार्य-विशेष की भावी रूपरेखा बनाकर उसे एक ऐसी विशेष दिशा। प्रदान करने का प्रयत्न किया जाता है जो कि इसके अभाव में लगभग असम्भव प्रतीत होती है।
- 3. कुशलता में वृद्धि करना : नियोजन का एक मूलभूत उद्देश्य उपक्रम की कुशलता में वृद्धि करना है। सर्वोंत्तम विकल्प के चयन और व्यवस्थित ढंग से कार्य किए जाने के कारण उपक्रम की कार्य-कुशलता में वृद्धि स्वाभाविक ही है।
- 4. प्रबन्ध में मितव्ययिता : उपक्रम की भावी गतिविधियों की योजना के बन जाने से प्रबन्ध का ध्यान उसे कार्यान्वित करने की ओर केन्द्रित हो जाता है जिसके फलस्वरूप क्रियाओं में अपव्यय के स्थान पर मितव्ययिता आती है।
- 5. स्वस्थ मोर्चाबन्दी : नियोजन का उद्देश्य स्वस्थ मोर्चाबन्दी को विकसित करना भी है। पूर्वानुमानों व सर्वोंत्तम विकल्प के चयन द्वारा सही मोर्चाबन्दी या व्यूह-रचना तैयार की जा सकती है।
- 6. भावी कार्यों में निश्चितता : नियोजन के माध्यम से संस्था की भावी गतिविधियों में अनिश्चितता के स्थान पर निश्चितता लाने का प्रयास किया जाता है।
- 7. जोखिम एवं सम्भावनाओं को परखना : नियोजन का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य संस्था की भावी जोखिम एवं सम्भावनाओं की परख करना है। इसके अनेक भावी जोखिमों से बचने के लिए आवश्यक उपाय किये जा सकते हैं।
- 8. निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति करना: नियोजन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहना है।
- 9. साम्य एवं समन्वय की स्थापना : नियोजन द्वारा उपक्रम की विभिन्न गतिविधियों में साम्य एवं समन्वय स्थापित किया जाता है।
- 10. प्रतिस्पर्द्धा पर विजय पाना: दॉव पेचपूर्ण नियोजन प्रतिस्पर्द्धा के क्षेत्र में विजय पाने में सहायक सिद्ध होता है। कार्यकुशलता एवं मितव्ययिता से किये जाने के कारण प्रतिस्पर्द्धा का सामना किया जा सकता है।
नियोजन का अर्थ एवं परिभाषा
नियोजन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा भावी उद्देश्यों तथा उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले कार्यों को निर्धारित किया जाता है। इसके अतिरिक्त उन सभी परिस्थितियों की जाँच की जाती जिनसे इसका सरोकार हो। इस प्रक्रिया में किये जाने वाले कार्यों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी निर्धारित किये जाते हैं ये कार्य कब, कहाँ, किस प्रकार, किनके द्वारा, किन संसाधनों से, किस नियम एवं प्रक्रिया के अनुसार पूरे किये जायेंगे। नियोजन को अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार से परिभाषित किया है। कुछ प्रमुखपरिभाषाएं निम्नानुसार हैं-
मोन्डे एवं फ्लिपो (mondy and flippo) के अनुसार लक्ष्यों तथा इनकी प्राप्ति के लिए कार्य-पथ के निर्धारण की प्रक्रिया को नियोजन कहा जाता है।
क्लॉड एस. जार्ज (claude S. Georgh) के अनुसार नियोजन आगे देखना है, भावी घटनाओं की संकल्पना करना है तथा वर्तमान में भविष्य को प्रभावित करने वाले निर्णय लेना है।
कूट्ज एवं ओ’ डोनेल (koontz and O'Donnell) अनुसार, नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है, कार्यविधि का सचेत निर्धारण है, निर्णयों को उद्देश्यों, तथा पूर्व-विचारित अनुमानों पर आधारित करना है।
एम. ई. हले (M.E.Hurley) के शब्दों में, ' 'क्या करना है, इसका पूर्व निर्धारण नियोजन है। इसमें विभिन्न वैकल्पिक उद्देश्यों, नीतियों, पद्धतियों एवं कार्यक्रमों में से चयन करना निहित है।
हार्ट (Hart) के शब्दों में, नियोजन कार्यों की शृंखला का अग्रिम निर्धारण है जिसके द्वारा निश्चित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।
मेरी कुशिंग नाइल्स (Marry cushing Niles) के शब्दों में, नियोजन किसी उद्देश्य को पूरा करने हेतु क्रिया-विधि या कार्य-पथ का चयन एवं विकास करने की प्रक्रिया है। यह वह आधार है जिसमें भावी प्रबन्धकीय कार्यों का उद्गम होता है।
क्रीटनर (Kreitner) के शब्दों में, नियोजन विनिर्दिष्ट परिणाम प्राप्त करने हेतु भावी कार्य-पथों का निर्धारण करके अनिश्चितता का सामना करने की प्रक्रिया है। है मन (Haiman) के शब्दों में, क्या किया जाना है इसका पूर्व-निर्धारण ही नियोजन है।
जार्ज आर. टेरी (George R.Terry) के शब्दों में, नियोजन भविष्य में देखने की विधि अथवा कला है। इसमें भविष्य की आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाया जाता है ताकि निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए जाने वाले वर्तमान प्रयासों को उनके अनुरूप डाला जा सके। ।
नियोजन का महत्त्व या प्रभाव
व्यावसायिक क्षेत्र में अनेक परिवर्तन आते रहते हैं जो उपक्रम के लिए विकास एवं प्रगति का मार्ग ही नहीं खोलते हैं, वरन् अनेक जोखिमों एवं अनिश्चितताओं को भी उत्पन्न कर देते हैं। प्रतिस्पर्द्धा, प्रौद्योगिकी, सरकारी नीति, आर्थिक क्रियाओं, श्रम पूर्ति, कच्चा माल तथा सामाजिक मूल्यों एवं मान्यताओं में होने वाले परिवर्तनों के कारण आधुनिक व्यवसाय का स्वरूप अत्यन्त जटिल हो गया है। ऐसे परिवर्तनशील वातावरण में नियोजन के आधार पर ही व्यावसायिक सफलता की आशा की जा सकती हैं। आज के युग में नियोजन का विकास प्रत्येक उपक्रम की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। व्यावसायिक बर्बादी, दुरूपयोग व, जोखिमों को नियोजन के द्वारा ही कम किया जा सकता है। नियोजन की आवश्यकता एवं महत्त्व को निम्न बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है :
- 1. अनिश्चितताओं में कमी : भविष्य अनिश्चितताओं तथा परिवर्तनों से भरा होने के कारण नियोजन अधिक आवश्यक हो जाता है। नियोजन के माध्यम से अनिश्चितताओं को बिल्कुल समाप्त तो नहीं अपितु कम अवश्य किया जा सकता है। पूर्वानुमान जो नियोजन का आधार है, की सहायता से एक प्रबन्धक भविष्य का बहुत कुछ सीमा तक ज्ञान प्राप्त करने तथा भावी परिस्थितियों को अपने अनुसार मोड़ने में समर्थ हो सकता है। तथ्यों के विश्लेषण के आधार पर निकाले गये निष्कर्ष बहुत कुछ सीमा तक एक व्यवसायी को अनिश्चितताओं से निपटने का आधार तैयार कर देते हैं।
- 2. नियन्त्रण में सुगमता : कार्य पूर्व-निर्धारित कार्य-विधि के अनुसार हो रहा हे या नहीं, यह जानना ही नियन्त्रण का कार्य है। नियोजन के माध्यम से कार्य प्रारम्भ करने की विधि तय की जाती है ताकि प्रमाप निर्धारित किये जाते हैं। ऐसी कई तकनीकों का विकास हो चुका है, जिनसे नियोजन एवं नियन्त्रण में गहरा सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। जो तकनीक नियोजन में काम में ली जाती हैं वे ही आगे चलकर नियन्त्रण का आधार बनती हैं। इसीलिए यदि नियोजन को नियन्त्रण की आत्मा कह दिया जायेतो कोई गलती नहीं होगी।
- 3. समन्वय में सहायता : समन्वय सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न क्रियाओं की एक व्यवस्थित प्रथा है। इसके माध्यम से उपक्रम के उद्देश्यों को प्राप्त करना सरल हो जाता है, क्योंकि योजनाएं चुने हुए मार्ग हैं, इसलिए इनकी सहायता से प्रबन्धक संघर्ष के स्थान पर सहयोग जागृत कर सकता है जो कि विभिन्न क्रियाओं में समन्वय स्थापित करने में मदद देता है। इसके अतिरिक्त यह विभिन्न क्रियाओं का इस प्रकार निर्धारण करता है, जिससे समन्वय लाना आवश्यक बन जाता है।
- 4. उतावले निर्णयों पर रोक : नियोजन के अन्तर्गत सभी कार्य काफी सोच-विचार के पश्चात् ही हाथ में लिये जाते हैं, इसलिए उतावले निर्णयों से होने वाली हानि से बचा जा सकेगा।
- 5. पूर्णता का ज्ञान : उपक्रम को पूर्णता में देखने के कारण एक प्रबन्धक प्रत्येक क्रिया के बारे में सम्पूर्ण ज्ञान कर पाता है ताकि जिस आधार पर उसके कार्य का निर्धारण किया गया है उसे जानने का अवसर भी उसे नियोजन के माध्यम से मिल पाता है।
- 6. अपवाद द्वारा प्रबन्ध : अपवाद द्वारा प्रबन्ध से अर्थ यह है, कि प्रबन्धक को प्रत्येक क्रिया में सम्मिलित नहीं होना चाहिए। यदि सब काम ठीक-ठाक चल रहा हो तो प्रबन्धक को निश्चिन्त रहना चाहिए और केवल उसी समय बीच में आना चाहिए जब कार्य नियोजन के अनुसार न चल रहा हो। नियोजन द्वारा संस्था के उद्देश्य निर्धारित कर दिए जाते हैं और सभी प्रयास उनको प्राप्त करने के लिए ही किए जाते हैं। इस प्रकार प्रबन्ध को दैनिक कार्यों में उलझने की आवश्यकता नहीं हैं, अत: कहा जा सकता है, कि नियोजन से अपवाद द्वारा प्रबन्ध सम्भव हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रबन्धकों के पास इतना समय बच जाता है, कि वे और आर्थिक सोच-विचार करके श्रेष्ठ योजनाएँ तैयार करें।
- 7. कर्मचारियों के सहयोग एवं संतोष में वृद्धि : नियोजन द्वारा विभिन्न कर्मचारियों को इस बात की जानकारी हो जाती है कि विभिन्न कर्मचारियों को कब, क्या और कै से करना है ? अपनी भावी क्रियाओं की पूर्व जानकारी हो जाने पर व मानसिक रूप से तैयार हो जाते हैं और जैसे ही कार्य का समय आता है, वे उसे अधिक लगन व मेहनत के साथ करते हैं। मेहनत से किये कार्यों से साख बढती है और संस्थान को लाभ प्राप्त होता है। इससे कर्मचारियों को संतुष्टि प्राप्त होती है तथा आपसी सहयोग को बढावा मिलता है।
- 8. निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति करना : नियोजन का अन्तिम एवं सबसे अधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहना है।
- 9. विशिष्ट दिशा प्रदान करना : नियोजन द्वारा किसी कार्य विशेष की भावी रूपरेखा बनाकर उसे एक विशेष दिशा प्रदान करने का प्रयत्न किया जाता है, जो कि इसके अभाव में लगभग असम्भव प्रतीत होती है।
- 10. कार्यकुशलता मापदण्ड : नियोजन का उद्देश्य प्रबन्धकीय कुशलता एवं व्यक्तिगत व सामूहिक कार्यकुशलता के मूल्यांकन हेतु मापदण्ड निर्धारित करना।
नियोजन की कठिनाइयाँ, सीमाएँ एवं आलोचनाएँ
नियोजन का उपर्युक्त महत्त्व होते हुए भी कुछ विद्वान इसे 'समय एवं धन की बर्बादी अथवा 'बरसाती ओले' कहकर इसका विरोध करते हैं। उनका कहना हैं कि व्यावसायिक योजनाएँ अनिश्चित एवं अस्थिर परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में तैयार की जाती हैं। जब इनका आधार ही अनिश्चित है तो फिर यह कै से माना जा सकता है कि नियोजन द्वारा निर्धारित बातें सदैव शत्-प्रतिशत सत्य ही होंगी। इस विरोध का मूल कारण नियोजन में उत्पन्न विभिन्न कठिनाइयों एवं सीमाओं का होना है जिनके कारण इसकी कटु शब्दों में आलोचनाएँ की जाती है। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
- 1. सर्वोंत्तम विकल्प के चुनाव में कठिनाई : नियोजन में विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ का चुनाव किया जाता है परन्तु कौनसा विकल्प श्रेष्ठ है। इसका निर्णय कौन करेगा? एक व्यक्ति के अनुसार एक विकल्प हो सकता है और दूसरे व्यक्ति के अनुसार दूसरा विकल्प। यही नहीं वर्तमान में कोई एक विकल्प श्रेष्ठ होता है और भविष्य में बदली हुई परिस्थितियों में दूसरा विकल्प श्रेष्ठ प्रतीत होता है।
- 2. लोचशीलता का अभाव : नियोजन के कार्य में एक अन्य कठिनाई पर्याप्त लोच का अभाव है। विलियम न्यूमेन के अनुसार नियोजन जितना अधिक विस्तृत होगा उसमें उतनी ही ज्यादा लोचहीनता होगी। लोच के अभाव में प्रबन्धक उत्साह-विहीन हो जातेहैं जिससे वे उपक्रम के कार्यों में पूर्ण रूचि नहीं ले पाते। प्रबन्धक पूर्व निर्धारित नीतियों, पद्धतियों तथा कार्यक्रम के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य होते हैं और परिस्थितियों के अनुरूप उनमें संशोधन की आवश्यकता होने पर भी वे ऐसा नहीं कर सकते। इस प्रकार लोचहीनता के कारण नियोजन के संचालन में कठिनाइयों उत्पन्न हो जाती हैं।
- 3. पर्याप्त मानसिक योग्यता का अभाब : उर्विक के अनुसार, ' नियोजन मूल रूप से एक मानिसिक अवस्था है, एक बौद्धिक प्रक्रिया है। केवल वह तकनीकी रूप से प्रशिक्षित व अनुभवी व्यक्ति ही नियोजन का कार्य कर सकते हैं, परन्तु संस्थाओं में प्राय: ऐसेव्यक्तियों की कमी पाई जाती है जिससे त्रुटिपूर्ण योजनाएँ ही बन पाती हैं।
- 4. मनोवैज्ञानिक बाधाऐं : मनोवैज्ञानिक बाधाएँ भी योजनाओं के निर्माण एवं उनकेक्रियान्वयन में बाधाएँ उत्पन्न करती हैं। इसमें से प्रमुख बाधा यह है कि अधिकांश व्यक्तियों की तरह अधिशासी भी भविष्य की तुलना में वर्तमान को अधिक महत्त्व देतेहैं। इसका कारण यह है कि भविष्य की तुलना में वर्तमान न केवल अधिक निश्चित है अपितु वांछित भी है। नियोजन में अनेक ऐसी बातों को संम्मिलित किया जाता है जिनकी अधिशासी इस आधार पर उपेक्षा एवं विरोध करते हैं कि उन्हें अभी कार्यान्वित नहीं किया जा सकता है।
- 5. अरूचिकर कार्य : यदि देखा जाये तो योजना बनाना ही एक अरूचिकर कार्य है। कभी-कभी अरूचिकर कार्य होने के कारण भी नियोजन असफल रहता है। ऐलन के .केअनुसार, कभी-कभी कठिन एवं अरूचिकर कार्यों के कारण नियोजन असफल होता है।
- 6. हिस्सेदारी का अभाव : विद्वानों का मत है कि नियोजन के निर्माण में संबन्धको, प्रशासकों, विशेषज्ञों एवं मनोवैज्ञानिकों को समुचित हिस्सेदारी मिलनी चाहिए, जिसका इस प्रक्रिया में अभाव पाया जाता है। यही कारण है जिसके अभाव में नियोजन अपनी सर्वव्यापकता सिद्ध नहीं कर पाता।
- 7. सीमित व्यावहारिक मूल्य : कुछ आलोचकों का यह मत है कि नियोजन को सभी परिस्थितियों में व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। तथ्यों के ऊपर आधारित होने के बावजूद भी नियोजन में अवसरवादिता को पूरा स्थान मिलता हैं नियोजक तथ्यों को इस प्रकार तोड-मरोड कर प्रस्तुत करते हैं जो कि नियोजन की समस्त उपादेयता को समाप्त कर देता है।
नियोजन के प्रकार
नियोजन कई प्रकार के हो सकते हैं। सामान्यतया नियोजन को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है :
अवधि के आधार पर
अवधि के आधार पर नियोजन तीन प्रकार का हो सकता है :
- (१) अल्पकालीन नियोजन : यह सामान्यतया एक वर्ष और इससे कम की अवधि के लिए तैयार किया जाता है। इसके अन्तर्गत अल्पकालीन क्रियाओं का निर्धारण इस प्रकार से किया जाता है, ताकि दीर्घकालीन नियोजन के उद्देश्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सके। इसमें क्रियाओं का विस्तृत विश्लेषण किया जाता है। यह विशिष्ट उद्देश्य तथा उत्पादन के ऐच्छिक स्तर को प्राप्त करने से प्रारम्भ होता है। अल्पकालीन नियोजन का सम्बन्ध, चूंकि अल्पकाल से होता है, इसलिए इसका पूर्वानुमान लगाया जाना आसान है, इनका सफलतापूर्वक क्रियान्वयन किया जा सकता है तथा आवश्यक परिवर्तन एवं संशोधन सम्भव है। अल्पकालीन नियोजन की कुछ सीमाएँ भी हैं। इसमें उपक्रम के विकास एवं स्थायित्व को पर्याप्त महत्त्व नहीं मिल पाता और कर्मचारियों को निर्णयन में हिस्सेदारी देना कठिन है। इसके अलावा उतावले निर्णयों का नुकसान भी इस प्रकार के नियोजन में होता है।
- (२) मध्यकालीन नियोजन : सामान्यतया यह योजना 1 वर्ष से अधिक लेकिन 5 वर्ष से कम की अवधि की होती है तथा इनमें उन तमाम क्रियाओं को निर्धारित किया जाता है जिनसे आधारभूत समस्या का समाधान करने में मदद मिल सके।
- (३) दीर्घकालीन नियोजन : साधारणतया ये योजनाएँ 5 वर्ष या उससे अधिक की अवधि के लिए तैयार की जाती है। इनके द्वारा उपक्रम के दीर्घकालीन उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए विशिष्ट योजनाओं का निर्माण किया जाता है। आधारभूत समस्याओं को पूर्व में ही पहचानने तथा उनके बारे में निर्णय ले ने की बात इन योजनाओं में निहित होती है।
दीर्धकालीन नियोजन संस्थान के इरादों एवं अपेक्षाओं का वास्तविक प्रतिनिधि कहा जा सकता है। इसमें वातावरण में आये परिवर्तनों का समायोजन किया जाना आसान है और यह उपक्रम के विकास में तीव्रता लाता है। इसके अलावा यह शोध एवं अनुसंधान को प्रोत्साहन देगा। इसके दोष है- लम्बी अवधि का पूर्वानुमान करना कठिन, खर्चीली व्यवस्था तथा सभी तत्वों के प्रभावों का विश्लेषण करना कठिन।
प्रकृति के आधार पर
प्रकृति के आधार पर नियोजन को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
- (१) स्थायी नियोजन: यह नियोजन स्थायी प्रकृति का होता है जिसे बार-बार उपयोग में लाया जाता है। इसमें उपक्रम की नीतियाँ, संगठन का ढाँचा, प्रमाणित प्रक्रिया एवं विधियॉ सम्मिलित की जाती हैं।
ये दीर्घकाल तक उपयोगी बने रहते हैं। इनका निर्धारण पूर्व में कर लिया जाता है, ताकि संगठन के क्रियाकलापों को व्यवस्था प्रदान करने के आधार के रूप में काम लिया जा सके। इनसे फर्म की विश्वसनीयता बढती हैं।
- (२) अस्थायी नियोजन : यह वह नियोजन है जो किसी विशेष स्थिति के लिए बनाया जाता है और उस उद्देश्य के पूरा हो जाने के साथ ही समाप्त होता है। इन्हें एकल प्रयोग नियोजन के नाम से भी जाना जाता है। इनकी प्रकृति अस्थायी एवं नवीनता की होती है। बजट इसका अच्छा उदाहरण है।
स्तर के आधार पर
स्तर के आधार पर नियोजन को तीन भागों में बॉटा जा सकता है :
- (१) उच्चस्तरीय नियोजन- यह उच्च स्तर पर कार्य करने वाले प्रबन्धकों द्वारा बनाई गई योजनाएँ . जो कि सम्पूर्ण उपक्रम के क्रियाकलापों को प्रभावित करती हैं। इसमें सं स्था-की सामान्य नीतियाँ स्पष्ट की जाती हैं।
- (२) मध्यस्तरीय नियोजन : इन योजनाओं का निर्माण मध्यस्त्तरीय प्रबन्धकों द्वारा किया जाता है जो कि निम्नस्तरीय नियोजन के लिए आधार का कार्य करती।
- (३) निम्नस्तरीय नियोजन : निम्न स्तर पर कार्य करने वाले प्रबन्धकों द्वारा बनाई गई येयोजनाएँ मध्स्तरीय योजनाओं को कार्य-रूप दे ने का कार्य करती हैं।
महत्त्व के आधार पर
महत्त्व के आधार पर नियोजन को तीन भागों में बॉटा जा सकता है :
- (१) समष्टि नियोजन : भारत के आर्थिक परिदृश्य में 1990 के पश्चात् आये परिवर्तन, यथा- उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण तथा पारदर्शिता ने समष्टि नियोजन को महत्वपूर्ण बना दिया है। उपक्रम के सफल संचालन के लिए इसकी विद्यमानता आवश्यक समझी जाने लगी है। सामान्य अर्थों में समष्टि नियोजन एक व्यापक योजना है जो संस्था को पूर्णता में विचार करती है। इसे नियोजन का समय दृष्टिकोण कहा जा सकता है।
- (२) व्यूहरचनात्मक नियोजन : व्यूहरचनात्मक नियोजन न तो चालों का पिटारा है और न ही तकनीकों का समूह, बल्कि यह एक विश्लेषणात्मक विचार एवं कार्य के लिए साधनों की प्रतिबद्धता है। यह उपक्रम की साहसिक क्षमताओं में सुधार लाने की विधि है।
- (३) परिचालन नियोजन : परिचालन नियोजन को रणनीतिक नियोजन के नाम से भी जाना जाता है। परिचालन नियोजन व्यूह रचनात्मक नियोजन को विशिष्ट कार्य योजनाओं में परिवर्तित करने की एक प्रक्रिया है। यह व्यूहरचनात्मक नियोजन को विषय-वस्तु एवं स्वरूप प्रदान करता है। इसका सम्बन्ध परिचालन से होता है जो कि उपक्रम के विभिन्न क्रियात्मक क्षेत्रों, जैसे-उत्पादन, विपणन, वित्त, मानवीय संसाधन विकास, शोध एवं अनुसंधान आदि के लिए योजनाओं का निर्माण करता है। यह उपलब्ध साधनों के सर्वोंत्तम उपयोग को सम्भव बनाता है। इससे फ्रन्टलाइन पर कार्य करनेवाले प्रबन्धकों को दिशा मिलती है और इनके आधार पर उनके कार्यों का मूल्यांकन किया जाना आसान होता है।
नियोजन की तकनीक या प्रक्रिया
नियोजन प्रक्रिया से आशय ऐसी प्रक्रिया से है जिसके अनुसरण करने से एक प्रभावशाली नियोजन का निर्माण सम्भव है। यद्यपि सभी प्रकार के उपक्रमों के लिए नियोजन की एक सामान्य प्रक्रिया निश्चित नहीं की जा सकती, लेकिन फिर भी एक तर्कसंगत व्यावसायिक नियोजन में निम्न प्रक्रिया का अनुसरण किया जा सकता है :
- 1. समस्या को परिभाषित करना- समस्या को परिभाषित करना नियोजन का वास्तविक बिन्दु है। इसके अन्तर्गत समस्या के संभावित भावी अवसरों पर प्रारम्भिक दृष्टि डालना तथा उपक्रम की शक्तियों एवं सीमाओं का ज्ञान करना शामिल है। इस चरण में प्रबन्धक समस्या के समाधान से होने वाले संभावित लाभों का ज्ञान भी कर लेता है।
- 2. उद्देश्यों का निर्धारण- समस्या को परिभाषित करने के पश्चात् संस्था को अपने उद्देश्यों व लक्ष्यों का स्पष्ट निर्धारण करना चाहिए। सबसे पहले संस्था के सामान्य उद्देश्य निश्चित किये जाने चाहिए। तत्पश्चात् उन्हें विभिन्न विभागों, उप-विभागों व कर्मचारियों हेतु विभक्त कर देना चाहिए।
उद्देश्य संस्था के साधनों को ध्यान में रखकर निश्चित किये जाने चाहिए तथा वेबोधगम्य एवं वास्तविक होने चाहिए। उद्देश्य किये जाने वाले कार्यों के लक्ष्य बिन्दुहोते है तथा इच्छित परिणामों के मार्ग का निर्धारण करते हैं। निर्धारण के बाद इन उद्देश्यों की जानकारी संबंधित विभागों एवं कर्मचारियों को दी जानी चाहिए ताकि वेयोजना निर्माण में सहयोग दे सकें।
- 3. नियोजन आधारों एवं मान्यताओं की स्थापना- नियोजन प्रक्रिया का अगला चरण उसके आधारों की स्थापना करना है। नियोजन आधारों से आशय ऐसी मान्यताओं से है जो योजनाओं के क्रियान्वयन का वातावरण निर्मित करती हैं। इनमें विभिन्न पूर्वानुमानों, आधारभूत नीतियों तथा कम्पनी की विद्यमान योजनाओं आदि को सम्मिलित किया जाता है। नियोजन के आधारों को पूर्वानुमान भी कहा जा सकता है। ये आधार संस्था के आन्तरिक वातावरण जैसे-विक्रय की मात्रा, उत्पादन वित्त, श्रमिक, योग्यता, प्रबन्धकीय कुशलता आदि से संबंधित हो सकते हैं। ये आधार नियंत्रण-योग्य अथवा अनियंत्रण-योग्य हो सकते हैं, अत: पूर्वानुमान की वैज्ञानिक पद्धतियों व प्रवृत्ति विश्लेषण द्वारा उन्हें ज्ञात करना चाहिए। नियोजन की मान्यताएँ स्पष्ट व व्यापक होना चाहिए तथा इनकी जानकारी नियोजन से सम्बन्धित अधिकारियों को दे देनी चाहिए।
- 4. सूचनाओं का संकलन एवं विश्लेषण- नियोजन की मान्यताओं का निर्धारण करने के पश्चात् योजना से सम्बन्धित तथ्यों व सूचनाओं का संकलन करना होता है। येसूचनाएँ विभिन्न आंतरिक İोतों जैसे पुराने रिकार्ड, फाइलें, विद्यमान नीतियों, प्रलेखों आदि से एकत्र की जा सकती हैं। बाह्य स्त्रोतों के रूप में विभिन्न सरकारी विभागों, प्रतिद्वन्द्वी संस्थाओं, ग्राहक आदि से ये सूचनाएं, बाजार अनुसंधान, अवलोकन व साक्षात्कार के द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। संकलन के बाद सूचनाओं का वर्गीकरण एवं विश्लेषण करके योजनाओं के निर्माण में इनकी उपयोगिता ज्ञात की जा सकती है।
- 5. वैकल्पिक मार्गों का निर्धारण- इस चरण में एकत्र की गई विभिन्न सूचनाओं, तथ्यों व मान्यताओं के आधार पर कार्य के वैकल्पिक मार्गों की खोज की जाती है। इस चरण की यह मान्यता हे कि किसी भी कार्य को करने की अनेक विधियाँ होती हैं, अत: कार्य निष्पादन के संभावित विकल्पों का निर्धारण कर लिया जाना चाहिए।
- 6. विकल्पों का मूल्यांकन- यह नियोजन प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण चरण है जिसमें वैकल्पिक तरीकों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए उनका मूल्यांकन किया जाता है। उनका मूल्यांकन सापेक्षिक लाभ-दोषों के साथ-साथ संस्था की मान्यताओं एवं लक्ष्यों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। मूल्यांकन हेतु गणितात्मक विधियों तथा- पर्ट, सी। पी. एम., क्रियात्मक शोध व सांख्यिकीय तकनीकों आदि का प्रयोग किया जा सकता है। प्रत्येक के अपने लाभ दोष होते हैं। कोई विकल्प अधिक लाभदायक किन्तुअधिक खर्चीला व देर से लाभ दे ने वाला हो सकता है। कोई विकल्प फर्म के दीर्घकालीन लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक हो सकता है तो कोई विशिष्ट लक्ष्यों की पूर्ति में, अत: अत्यन्त सतर्कता, कल्पना व दूरदृष्टि से विकल्पों का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
- 7. सर्वोंत्तम विकल्प का चुनाव- सर्वोंत्तम विकल्प का चुनाव नियोजन के आधारों, लक्ष्यों व संस्था की भावी आवश्यकताओं एवं साधनों के अनुरूप ही हो सकता है। नियोजन का यह चरण अत्यन्त महत्वपूर्ण हे, क्योंकि इसी में प्रबन्धक निर्णय लेकर योजना का निर्माण करता है। कई बार एक विकल्प के चयन की अपेक्षा दो या अनेक विकल्पों का मिश्रण संस्था के लिए अधिक उपयुक्त हो सकता है। ऐसी दशा में प्रबन्धक उपयुक्त विकल्पों का समन्वय कर सकता है।
- 8. योजना तैयार करना- सर्वोंत्तम विकल्प का चुनाव कर ले ने के पश्चात् योजना को विस्तार से तैयार किया जाता है। इस चरण में योजना के विभिन्न पहलुओं पर विचार करके योजना की क्रमिक अवस्थाओं का निर्धारण किया जाता है। सम्पूर्ण योजना को उत्पादन विभाग की दृष्टि से भी देखा जाता है। योजना की प्रत्येक अवस्था का निष्पादन समय भी निर्धारित किया जाता है। इसी चरण में योजना अपने अन्तिम रूप में प्रकट होती है।
- 9. सहायक योजनाओं का निर्माण करना- मूल योजना के सफल क्रियान्वयन के लिए कई सहायक योजनाओं का निर्माण करना आवश्यक होता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी संस्था ने किसी नवीन उत्पाद हेतु संयंत्र की स्थापना की योजना बनाई है तो उसे मूल योजना के पश्चात् कर्मचारियों की भर्ती, यंत्रों व मशीन की खरीद, अनुरक्षण सुविधाओं के विकास, उत्पादन अनुसूचियों, विज्ञापन, वित्त, बीमा आदि से सम्बन्धित सहायक योजनाओं का निर्माण भी करना होगा। सहायक योजनाएँ विभागीय योजनाओं के रूप में तैयार की जा सकती हैं।
- 10. क्रियाओं के क्रम व समय का निर्धारण- इस चरण में योजना को विस्तृत क्रियाओं में विभाजित करके उनका क्रम व समय निर्धारित किया जाता है, ताकि आवश्यक साधनों, सामग्री व औजारों की ठीक समय पर व्यवस्था की जा सके। क्रम निर्धारित हो जाने से यह पता रहता है कि पहले कौन सी क्रिया प्रारम्भ की जानी है और उसके बाद कौन सी। समय निश्चित कर दे ने से प्रत्येक कार्य का निष्पादन उचित समय पर संभव होता है।
- 11. बजट का निर्माण करना- कोई भी योजना वित्त व्यवस्था के बिना अधूरी रहती है। योजना में निर्धारित कार्यों को दिल प्रबन्ध द्वारा ही पूरा किया जा सकता है, अत: योजना को अन्तिम रूप दे ने के साथ ही उसका बजट भी बना लिया जाता है। इसमें योजना की विभिन्न क्रियाओं पर खर्च की जाने वाली वित्तीय राशि का प्रावधान किया जाता है। बजट योजनाओं को नियंत्रित करने तथा योजनाओं की प्रगति का मूल्यांकन करने का एक महत्वपूर्ण उपकरण भी होता है।
- 12. योजना का क्रियान्वयन- योजनाओं का महत्त्व उनके क्रियान्वयन में ही निहित है। जब तक उन्हें कार्य रूप न दे दिया जाये वे ' 'कागजी कार्यवाही ' ही रहती हैं। कर्मचारियों का सक्रिय सहयोग प्राप्त करके ही योजना की प्रभावी क्रियान्विति की जा सकती है, अत: उन्हें योजना के प्रत्येक पहलू की जानकारी दी जानी चाहिए। योजना के निर्माण में उनके विचारों को प्राप्ति करके तथा उनके हितों का ध्यान रखकर भी योजनाओं के क्रियान्वयन में उनका सहयोग प्राप्त किया जा सकता है।
नियोजन के सिद्धान्त
- 1. समय का सिद्धान्त : योजना बनाते समय योजना के पूरी होने का समय अवश्य निश्चित कर देना चाहिए ताकि विभिन्न कार्यक्रमों के पालन में समय का ध्यान रखा जा सके।
- 2. लोचशीलता का सिद्धान्त : नियोजन लोचशील होना चाहिए क्योंकि यह भविष्य के पूर्वानुमानों पर आधारित होता है। नियोजन इतना लोचशील होना चाहिए कि अनिश्चित घटनाओं के कारण होने वाली हानियों को न्यूनतम किया जा सके। लोचशीलता का अर्थ है कि योजना में आसानी से परिवर्तन किया जा सके व नए मार्गों को अपनाया जा सके।
- 3. कार्यकुशलता का सिद्धान्त : नियोजन का यह सिद्धान्त यह स्पष्ट करता है कि सामूहिक उद्देश्यों की प्राप्ति न्यूनतम प्रयत्नों एवं लागत पर की जानी चाहिए। नियोजन की सफलता इसी बात पर निर्भर करती है कि कितनी तत्परता से लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है। नियोजन में कार्य को एक व्यवस्थित रूप दे ने का प्रयास किया जाता है।
- 4. परिवर्तन का सिद्धान्त : नियोजन के इस सिद्धान्त के अनुसार प्रबन्धक को नाविक की भाँति सदैव अपने कार्यों की जाँच करते रहना चाहिए और इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतुनियोजन में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करते रहना चाहिए अर्थात् निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पुनर्नियोजन करते रहना चाहिए।
- 5. व्यापकता का सिद्धान्त: यह सिद्धान्त नियोजन की सर्व व्यापकता को प्रदर्शित करता है। यह नियोजन को प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर अपनाये जाने पर जोर देता है।
- 6. मोर्चाबन्दी का सिद्धान्त : नियोजन प्रतिस्पर्धा की दृष्टि से अत्यन्त सुदृढ होना चाहिए। यह सिद्धान्त प्रतियोगी संस्थाओं की नीतियों एवं कार्य प्रणाली को ध्यान में रखकर नियोजन करने पर बल देता है।
- 7. सीमित घटक का सिद्धान्त : यह सिद्धान्त इस बात पर जोर देता है कि नियोजन करतेसमय एवं विभिन्न विकल्पों को मूल्यांकन करते समय उन सीमित घटकों को पहचान लेना चाहिए जो लक्ष्य-प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण हो तथा जो नियोजन में आगे बाधक बन सकते हों।
- 8. प्राथमिकता का सिद्धान्त : इस सिद्धान्त के अनुसार नियोजन प्रबन्ध का एक प्राथमिक कार्य है, अत: अन्य प्रबन्धकीय कार्यों को करने के पूर्व नियोजन किया जाना आवश्यक होता है।
- 9. तथ्यों का सिद्धान्त: नियोजन तभी प्रभावी होता है जबकि वह समस्त उपलब्ध प्रासंगिक तथ्यों पर आधारित हो, तथ्यों का सामना करता हों तथा तथ्यों द्वारा इंगित कार्यवाही को प्रारम्भ कराता हों।
- 10. नीति संरचना का सिद्धान्त : यह सिद्धान्त बतलाता है कि नियोजन को सुसंगत एवं प्रभावी बनाने के लिए सुदृढ नीतियों, कार्यक्रमों एवं व्यूहरचनाओं का निर्माण किया जाना चाहिए।
सन्दर्भ
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 12 मई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 अप्रैल 2017.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 22 मई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 अप्रैल 2017.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 9 जनवरी 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 अप्रैल 2017.