आयुर्वेद का इतिहास
विभिन्न धार्मिक विद्वानों ने इसका रचना काल ५,००० से लाखों वर्ष पूर्व तक का माना है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थकार आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है।
परम्परानुसार आयुर्वेद के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। अश्विनी कुमारों से इन्द्र ने यह विद्या प्राप्त की। इन्द्र ने धन्वन्तरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वन्तरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वन्तरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जातूकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक।
आयुर्वेद का अवतरण
- चरक मतानुसार (आत्रेय सम्प्रदाय)
चरक मत के अनुसार, आयुर्वेद का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भरद्वाज ने प्राप्त किया। च्यवन ऋषि का कार्यकाल भी अश्विनी कुमारों का समकालीन माना गया है। आयुर्वेद के विकास में ऋषि च्यवन का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान है। फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता का निर्माण किया- अग्निवेश तंत्र का जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरकसंहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार स्तंभ है।
- सुश्रुत मतानुसार (धन्वन्तरि सम्प्रदाय)
सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत जब आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया। उस समय भगवान धन्वंतरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय- शत सहस्र श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार धन्वंतरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन ब्रह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है। पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे अश्विनीकुमार द्वय तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया।
आयुर्वेद का काल-विभाजन
आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है -
संहिताकाल
संहिताकाल का समय ५वीं शती ई.पू. से ६वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि-चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी सं हिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से काययिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्र मुख विशेषता है।
व्याख्याकाल
इसका समय ७वीं शती से लेकर १५वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हड़ की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है।
शोध ग्रन्थ ‘रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है।
विवृतिकाल
इस काल का समय १४वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है।
स्पष्ट है कि आयुर्वेद की प्राचीनता वेदों के काल से ही सिद्ध है। आधुनिक चिकित्सापद्धति में सामाजिक चिकित्सा पद्धति को एक नई विचारधरा माना जाता है, परन्तु यह कोई नई विचारधारा नहीं अपितु यह उसकी पुनरावृत्ति मात्र है, जिसका उल्लेख 2500 वर्षों से भी पहले आयुर्वेद में किया गया है।
वेदों में आयुर्वेद
वेद प्राचीन काल से ही मानव-सभ्यता के प्रकाश-स्तम्भ रहे हैं। वेद की परम्परा में रुद्र को प्रथम वैद्य स्वीकार किया गया है। ‘यजुर्वेद’ में कहा गया है कि 'प्रथमो दैव्यों भिषक'।[1] तथा इसी प्रकार ऋग्वेद में भी उल्लिखित है कि ‘भिषक्तमं त्वां भिषजां शृणोमि'।[2] और आयुर्वेद ग्रन्थो की परम्परा में ब्रह्मा आयुर्वेद का प्रथम उपदेष्टा है।
वेदों में अश्विनों और रुद्रदेवता के अतिरिक्त अग्नि, वरुण, इन्द्र, अप् तथा मरुत् को भी 'भिषक्' शब्द से अभिनिहित किया गया है। परन्तु मुख्य रूप से इस शब्द का सम्बन्ध रुद्र और अश्विनौ के साथ ही है। अतः वेद आयुर्वेदशास्त्र के लिए एक महत्त्वपूर्ण संकेतक तथा स्रोत हैं।
ऋग्वेद में आयुर्वेद
आयुर्वेद के महत्वपूर्ण तथ्यों का वर्णन ऋग्वेद में उपलब्ध है। ऋग्वेद में आयुर्वेद का उद्देश्य, वैद्य के गुण-कर्म, विविध औषधियों के लाभ तथा शरीर के अंग और अग्निचिकित्सा, जलचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, विषचिकित्सा, वशीकरण आदि का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है।[3] ऋग्वेद में 67 औषधियों[4] का उल्लेख मिलता हैं। अतः आयुर्वेद की दृष्टि से ऋग्वेद बहुत उपयोगी है।
यजुर्वेद में आयुर्वेद
यजुर्वेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित निम्नांकित विषयों का वर्णन प्राप्त होता है : विभिन्न औषधियों के नाम, शरीर के विभिन्न अंग, वैद्यक गुण-कर्म चिकित्सा, नीरोगता, तेज वर्चस् आदि। इसमें 82 औषधियों का उल्लेख दिया गया है।
सामवेद में आयुर्वेद
आयुर्वेद के अध्ययन के रूप में सामवेद का योगदान कम है। इसमें मुख्यतया आयुर्वेद से सम्बन्धित कुछ मन्त्रा में वैद्य, तथा अत्यल्प रोगों की चिकित्सा का वर्णन प्राप्त होता है।
अथर्ववेद में आयुर्वेद
आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें आयुर्वेद के प्रायः सभी अंगों एवं उपांगों का विस्तृत विवरण मिलता है। अथर्ववेद ही आयुर्वेद का मूल आधार है। अथर्ववेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित विभिन्न विषयों का वर्णन उपलब्ध है जिनमें से मुख्य है- ‘वैद्य के गुण, कर्म या भिषज, भैषज्य, दीर्घायुष्य, बाजीकरण, रोगनाशक विभिन्न मणियां, प्राणचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, वशीकरण, जलचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा तथा विविध औषधियों के नाम, गुण, कर्म आदि।[5]
आयुर्वेद को अर्थवेद में 'भेषज' या 'भिषग्वेद' नाम से जाना जाता है।[6] गोपथ ब्राह्मण में भी अथर्ववेद के मंत्रों को आयुर्वेद से सम्बन्धित बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में यजुर्वेद के एक मंत्र की व्याख्या में प्राण को 'अथर्वा' कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि प्राणविद्या या जीवनविद्या आथर्वण विद्या ही है।[7] गोपथ ब्राह्मण के अनुसार ‘‘अंगिरस् का सीधा सम्बन्ध आयुर्वेद तथा शरीर विज्ञान से है। अंगों के रसों अर्थात् तत्त्वों का वर्णन जिसमें प्राप्त होता है वह अंगिरस् कहा जाता है। अंगों से जो रस निकलता है वह अंगरस है और उसी को अंगिरस् कहा जाता है।अथर्ववेद को वैदिक जगत् में क्षत्रवेद, ब्रह्मवेद, भिषग्वेद तथा अर्घिंरोवेद इत्यदि नामों से भी जाना जाता है।
स्पष्ट है कि वेदों में आयुर्वेद से सम्बन्धित सैकड़ों मन्त्रों का वर्णन है, जिसमें विभिन्न रोगों की चिकित्सा का उल्लेख है। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद - इन चारों वेदों में अथर्ववेद को ही आयुर्वेद की आत्मा माना गया है। अथर्ववेद में स्वस्त्ययन मंगलकर्म, उपवास, बलिदान, होम, नियम, प्रायश्चित और मन्त्र आदि से भी चिकित्सा करने को कहा गया है। अथर्ववेद में सर्वाधिक 289 औषधियों का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार ज्ञात होता है कि आयुर्विषययक औषधियों का विस्तृत विवरण अथर्ववेद में ही पाया जाता है।
आयुर्वेद ग्रन्थ एवं उनके रचनाकार
आयुर्वेद के मूल ग्रन्थों में काश्यप संहिता, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भेलसंहिता तथा भारद्वाज संहिता में से काश्यप संहिता को अति प्राचीन माना गया है। इसमें महर्षि कश्यप ने शंका समाधान की शैली में दुःखात्मक रोग, उनके निदान, रोगों का पश्रिहार तथा रोग परिहार के साधन (औषध) इन चारों विषयों का भी प्रकार प्रतिपादन किया गया है। इसके पश्चात जीवक ने काश्यप संहिता को संक्षिप्त कर ‘वृद्ध जीवकीय तंत्र‘ नाम से प्रकाशित है। इसके ८ भाग हैं-
- 1. कौमार भृत्य, 2. शल्य क्रिया प्रधान शल्य, 3. शालाक्य, 4. वाजीकरण,
- 5. प्रधार रसायन, 6. शारीरिक-मानसिक चिकित्सा, 7. विष प्रशमन तथा 8. भूत विद्या।
इसी से यह ‘अष्टांग आयुर्वेद' कहलाता है। पुनः इन विषयों को प्रतिपादन के अनुसार आठ स्थानों में विभक्त किया गया। इनमें सूत्र स्थान में 30, निदान स्थान में 12, चिकित्सा स्थान में 30, सिद्धि में 12, कल्प स्थान में 12, तथा खिल स्थान/भाग में 80 अध्याय है। इस प्रकार आचार्य जीवक ने कुल 200 अध्यायों में वृद्ध जीवकीय तंत्र को संग्रहीत कर आर्युविज्ञान का प्रचार प्रसार किया। वृद्ध जीवकीय तंत्र नेपाल के राजकीय पुस्तकालय में उपलब्ध है।
ईसा पूर्व 2350-1200 के लगभग शालिहोत्र नामक अश्व विशेषज्ञ हुए है जिन्हें पशु चिकित्सा का ज्ञान था। इन्होंने हेय आयुर्वेद, अश्व प्राशन तथा अश्व लक्षण शास्त्र की रचना की। इसे ‘शालिहोत्र संहिता‘ भी कहा जाता है। इसमें 12000 श्लोक है। इन्हें विश्व का प्रथम पशु चिकित्सक माना जाता है।
मुनि पालकाप्य का काल 1800 वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है जिन्हें विशाल ग्रन्थ 'हस्ति आयुर्वेद' की रचना की थी। इसमें चार खण्ड तथा 152 अध्याय है। महाभारत काल में आयुर्वेद अपने चरम पर माना गया है। यह काल 1000 से 900 वर्ष ईसा से पूर्व का माना जाता है। इस समय में नकुल, अश्व चिकित्सा तथा सहदेव गोचिकित्सा के विशेषज्ञ थे। इस काल में विभिन्न प्रकार की औषधियों से घायल सैनिकों के उपचार का वर्णन मिलता है।
चरक संहिता के रचयिता महर्षि चरक, महर्षि आत्रेय, महामेघा, अग्निवेश तथा दृढबल रहे हैं मगर महर्षि चरक का नाम विशेष रूप से प्रतिष्ठित हो गया। ये संहिताकार ऋषि एक उच्च कोटि के वैज्ञानिक थे। महर्षि चरक ने वनस्पतिजन्य विभिन्न दवाओं के निर्माण एवं उन्हें लिपिवद्ध करने के अतिरिक्त उनका घूम-घूमकर प्रचार-प्रसार भी किया। इसी कल्याकारी विचरण क्रिया से उनका नाम चरक विश्व प्रसिद्ध हो गया। चरक संहिता के अध्ययन से पूरी जीवन शैली आहार चर्या ऋतु चर्या, रात्रि चर्या आदि का सम्यक ज्ञान हो जाता है तथा तदनुसार यदि व्यक्ति अनुसारण करे तो वह सदा नीरोग रह सकता है। यह काल गुप्त वंश के शासन काल का रहा है व सन् 300 से 500 ई0 के बीच का है।
आचार्य सुश्रुत प्राचीन काल के एक उच्च कोटि के आयुर्वेदाचार्य एवं शल्य चिकित्सक थे। सुश्रत महर्षि विश्वामित्र के पुत्र थे तथा इन्होंने धन्वन्तरि से शल्य-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी। ऐसा विश्वास है कि पृथ्वी पर शल्य तन्त्र के जनक यही सुश्रुत है। इन्होंने भी एक ग्रन्थ की रचना की जिसका शीर्षक ‘सुश्रुत संहिता‘ रखा। इस पुस्तक में 5 अध्याय हैं जिनमें सूत्र स्थान, निदान स्थान, शरीर स्थान, चिकित्सा स्थान तथा कल्प स्थान आदि शामिल है। सुश्रुत के अनुसार मन एवं शरीर को पीड़ित करने वाली वस्तु को 'शल्य' कहा जाता है। तथा इस शल्य को निकालने के साधन 'यंत्र' कहलाते है। आयार्य सुश्रुत ने अपने इस ग्रंथ में 100 से भी अधिक शल्य यंत्रों का वर्णन किया है तथा उनके गुणों के विषय में विस्तार से प्रकाश डाला है। आचार्य सुश्रुत आँखों के मोतियाबिन्द की शल्य क्रिया के विशेषज्ञ थे। यदि माता के गर्भ से शिशु योनि मार्ग से न आता हो तो गर्भस्थ शिशु को शल्य क्रिया द्वारा माता के गर्भ से सुरक्षित निकालने की कई विधियों सुश्रुत अच्छी तरह जानते थे। आजकल जिन यंत्रों का उपयोग शल्य क्रिया में होता है उनमें से अधिकांश यंत्रों का वर्णन सुश्रुत संहिता में मिलता है। आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा जाता है। आयुर्वेद तथा शल्य-चिकित्सा शास्त्र के आचार्य गणों का जगत पर महान उपकार है। इनके नाम इस प्रकार है।
ब्रहमा -- आचार्य सिद्ध नागार्जुन दक्ष प्रजापति -- आचार्य क्षारपाणि भगवान भाष्कर -- आचार्य निमि अश्वनी कुमार -- आचार्य भद्रशौनक इन्द्र -- आचार्य काकांयन महर्षि कश्यप -- आचार्य गार्म्य महर्षि अत्रि -- आचार्य गालव महर्षि भृगु -- आचार्य सात्यकि | महर्षि अंगिरा -- आचार्य औषधेनव महर्षि वरिष्ठ -- आचार्य सौरभ महर्षि अगस्त्य -- आचार्य पौठक लावत महर्षि पुलस्त्य -- आचार्य करवीर्य ऋषि वाम देव -- आचार्य गोपरु रंक्षित ऋषि गौतम -- आचार्य वैतरण ऋषि असित -- आचार्य भोज ऋषि भरद्वाज -- आचार्य भालुकी | आचार्य धन्वन्तरि -- आचार्य दारूक आचार्य पुनर्वसु आत्रेय -- आचार्य कौमार भृत्य आचार्य अग्निवेश -- आचार्य जीवक आचार्य भेल -- आचार्य काश्यप आचार्य जतूकर्ण -- आचार्य उशना आचार्य पाराशर -- वृहस्पति आचार्य हारीत -- आचार्य पतजंलि |
आयुर्वेद के इतिहास पुरूष जीवक कौमारभच्च का कालखण्ड लगभग 500 वर्ष ई0 पू0 माना जाता है, जब मगध के सम्राट बिम्विसार थे। सम्राट बिम्विसार को भगन्दर हो गया। परन्तु जीवक द्वारा निर्मित औषध के एक ही लेप से सम्राट ने रोग से मुक्ति पा ली। इसी प्रकार जीवक ने नगर सेठ की खोपड़ी का सफल आपरेशन (शल्य क्रिया) कर फिर सी दिया व उसमें से मवाद और कीड़े निकाल दिये। सभवतः यह मस्तिष्क की पहल शल्य क्रिया होगी। जीवक की शल्य चिकित्सा के विषय में और भी प्रमाण मिलते है। उन्होने वाराणसी के नगर सेठ के पेट से आँतों की गाँठों का शल्य क्रिया द्वारा सफल उपचार किया। पेट को चीरकर आँतें बाहर निकाली तथा आँतों के खराब भाग को काटकर फैंक दिया तथा शेष को पुनः सीकर ठीक कर दिया। जीवक ने भगवान बुद्ध का भी उपचार किया था।
आयुर्वेद में जिन तीन आचार्यो की गणना मुख्यरूप से होती है उनमें चरक, सुश्रुत के बाद वाग्भट का नाम आता है। इन्होंने अष्टांग हृदय ग्रन्थ की रचना की। इनका कालखण्ड छठी सदी का माना जाता है। यह पूरा ग्रन्थ सूत्र स्थान, शरीर स्थान, निदान स्थान, चिकित्सा स्थान, कल्प स्थान तथा उत्तर स्थान आदि में विभक्त है। यह ग्रन्थ आयुर्वेद का सार माना जाता है। आचार्य वाग्भट का कहना है कि इस ग्रन्थ में कोई कपोल कल्पित बात नहीं कही गयी है बल्कि यह ग्रन्थ पूर्वाचार्यों के अभिमतों तथा अनुभव के आधार पर किया गया है। इस ग्रन्थ के पठन-पाठन, मनन एवं प्रयोग करने से निश्चय ही दीर्घ जीवन आरोग्य धर्म, अर्थ, सुख तथा यश की प्राप्ति होती है।
आचार्य माधव ने एक विशिष्ट ग्रन्थ का लेखन किया जिसका नाम ‘रोग विनिश्चय‘ रखा। यह ग्रन्थ माधव निदान के नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य माधव ने रोग ज्ञान के पाँच साधन बताये है। निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय तथा सम्प्राप्ति। आचार्य माधव का समय छठी सदी के अन्त का बताया जाता है। आचार्य माधव ने अतिसार, पाण्डुरोग, क्षय रोग आदि का विस्तृत वर्णन किया है। आचार्य शार्ङ्गधर को नाड़ी शास्त्र का विशेषज्ञ माना गया है। इन्होंने 13 वीं - 14वीं सदी के दौरान दो ग्रन्थों ‘शार्ङ्गधर संहिता' तथा 'शार्ङ्गधर पद्धति‘ की रचना की। आचार्य हाथ में कच्चे धागे के सूत्र के एक सिरे को बांधकर दूसरे सिरे को पकड़कर नाड़ी गति का ज्ञान करके रोग एवं रोगों के सम्बन्ध में सब कुछ सत्य-सत्य बना देते थे।
आयुर्वेद की आचार्य परम्परा में श्री भावमिश्र का नाम भी विशेष महत्त्व रखता है। इन्होंने भाव प्रकाश ग्रन्थ की रचना की। इनका कालखण्ड 16वीं सदी का माना गया है। इन्होंने समस्त व्याधियों को दो भागों में विभक्त किया- (1) कर्मज अर्थात् जो दुष्कर्म के परिणाम स्वरूप फलित होती है तथा भोग/प्रायश्चित से उनका विनाश होता है। (2) इसके विपरीत दूसरे प्रकार की दोषज व्यधियाँ हैं जो मिथ्या आहार-विहार करने से कुपित हुए वात, पित्त एवं कफ से होती है।
सोलहवीं शताब्दी में आंध्रप्रदेश के आचार्य बल्लभाचार्य द्वारा तेलुगू लिपि में लिखी गयी पुस्तक वैद्यचिन्तामणि का आयुर्वेद में विशिष्ट स्थान है। यह ग्रन्थ 26 भागों में विभक्त है। मंगलाचारण के बाद पञ्च निदान के साथ-साथ अष्ट स्थान परीक्षा का विवरण है जिसमें पहले नाड़ी परीक्षा है। नाड़ी का जितना विस्तार से वर्णन यहां मिलता है उतना अन्य किसी प्राचीन ग्रन्थ में शायद नहीं मिलता। हाथ के साथ-साथ पाँव के मूल नाड़ी परीक्षा, स्त्रियों के बायें तथा पुरूषों के दांये हाथ की नाड़ी परीक्षा का विधान बताया गया है। प्रत्येक रोग की चिकित्सा के लिए चूर्ण, काषाय, वटी, अवलेह, घृत, तेल, अर्जन तथा धूम (धुँआ) का उल्लेख है। ग्रन्थ के तेइस भागों में विभिन्न प्रकार के रोगों को वर्णन है व क्षय रोग के उपचार का विस्तृत उल्लेख मिलता है।
वैद्य लोलिम्बराज का समय 17वीं शताब्दी के पूर्वार्ध का माना गया है। इन्होंने 'वैद्य जीवन' नामक शास्त्र की रचना की। लोलिम्बराज कवित्व सम्पन्न व्यक्ति थे। उन्होने वैद्य-जीवन पाँच भागों में विभक्त है इसमें ज्वर, ज्वरातिसार, ग्रहणी, कास-श्वास, आमवात, कामला, स्तन्यदुष्टि, प्रदर, क्षय, व्रण, अम्लपित्त, प्रमेह आदि रोगों तथा वाजीकरण और विविध रसायनों का उल्लेख है। वैद्य लोलिम्बराज रोगी के लिए पथ्य सेवन अतिहितकर बताते हुए कहते हैं कि रोगी यदि पथ्य सेवन से रहे तो उसे औषध सेवन से क्या प्रयोजन।
==आधुनिक काल में आयुर्वेदिक ब्रिटिश राज ने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को अवैज्ञानिक, रहस्यमयी और केवल एक धार्मिक विश्वास माना। इसके विपरीत अंग्रेजों ने एलोपैथी को राज्य का संरक्षण प्रदान किया। परिणामस्वरूप आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति को नष्ट करने का प्रयास भी किया गया। इसके परिणामस्वरूप अनेकों महान आयुर्वेदिक ग्रन्थ, वैद्य और प्रक्रियाएँ दबकर रह गयीं। आयुर्वेद उन ग्रामीण क्षेत्रों में जीवित रहा जो 'आधुनिक सभ्यता' की पहुँच से दूर थे। वर्ष 1835 में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में आयुर्वेद के शिक्षण कार्य को निलंबित कर दिया गया था। हालाँकि औपनिवेशिक शासन के दौरान कई प्राच्यविदों ने वैदिक ग्रंथों को पुनर्प्राप्त करके आयुर्वेद को अप्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित भी किया। प्राच्यविदों ने आयुर्वेद को पुनर्जीवित करने में बड़ा योगदान दिया था।
अंग्रेजी उपनिवेश के विरुद्ध भारत का संघर्ष जब ‘नवजागरण’ का रूप ले रहा था तब उसकी एक लड़ाई चिकित्सा के क्षेत्र में भी लड़ी जा रही थी। इसे ‘आयुर्वेदिक राष्ट्रवाद’ भी कह सकते हैं। यह पुनरुत्थान अनेक रूपों में प्रकट हुआ। पाश्चात्य चिकित्सकीय ढांचे का उपयोग कर आयुर्वेद अपने को बदल रहा था। इस विषय पर कार्य करने वाले विद्वान डैविड आर्नोल्ड के अनुसार आयुर्वेद के मूल संस्कृत ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद ने इस आंदोलन को शास्त्रीय वैधता प्रदान की और उसे विशाल समुदाय तक पहुंचाया, वहीं प्रभावकारी सांस्थानिक ढांचों में से एक का अनुसरण करते हुए आयुर्वेद ने औषधालयों की स्थापना करते हुए अपनी जड़े मजबूत की।[8]
१९वीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं २०वीं सदी के पूर्वार्ध में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति से संबंधित पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं, संदर्भ-ग्रंथों एवं सम्मेलनों की एक लंबी शृंखला देखने मिलती है। इसका मूल उद्देश्य भारत में पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति (अथवा ऐलोपैथी) के बढ़ते प्रभुत्व के विरुद्ध स्वदेशी चिकित्सा पद्धति के रूप में आयुर्वेद को पुनर्जीवित एवं पुनः स्थापित करना था। नए उभरते सुधारवादी एवं राष्ट्रवादी अभिजात्य वर्ग का यह मानना था कि यदि हम निकट भविष्य में सरकार एवं राज्य सत्ता की कमान अपने हाथों में लेना चाहते हैं तो हमें हर उस चीज का, जिससे जनता का सीधा सरोकार है, स्वदेशीकरण करना होगा। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इस विचारधारा का एक महत्वपूर्ण अंग चिकित्सकीय राष्ट्रवाद भी था जो भारत में स्वदेशी चिकित्सा प्रणालियों के प्रति सन्नद्ध था। चिकित्सकीय राष्ट्रवाद की इसी अवधारणा के अंतर्गत आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति एक 'विशुद्ध' 'स्वदेशी' चिकित्सा प्रणाली के प्रमुख दावेदार के रूप में उभरी।
पहला आयुर्वेदिक औषधालय १८७८ में कविराज चंद्र किशोर सेन ने कलकत्ते में खोला था उसके बीस साल बाद तेलुगु वैद्य पंडित डी. गोपालाचारलू ने मद्रास में प्रथम औषधालय की स्थापना की। मुद्रण तकनीक का प्रयोग करते हुए आयुर्वेदिक चिकित्सा लगातार लोकप्रिय हो रहा थी।[9] यह एक अखिल भारतीय परिघटना (फेनामेना) थी। उत्तरी भारत में यशोदा देवी ने महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने प्रयाग में जहाँ ‘स्त्री-औषधालय’ की स्थापना की। उनकी इस विषय पर लिखी १०८ पुस्तकें बताई जाती हैं।
शंकरदाजी शास्त्री पदे ने आयुर्वेद के विकास के लिए 1907 में ‘निखिल भारतवर्षीय वैद्य सम्मेलन' किया तथा अखिल भारतीय आयुर्वेद महासम्मेलन एवं विद्यापीठ की स्थापना की। इसी सम्मेलन के माध्यम से उन्होंने सारे देश के वैद्यों का संगठन-कार्य प्रारम्भ किया तथा विद्यापीठ के माध्यम से अध्ययनाध्यापन तथा परीक्षाएँ भी आरम्भ की गई। इसी के माध्यम से अनेक आयुर्वेदिक कॉलेजों की स्थापना हुई और आयुर्वेद के पठन-पाठन का कार्य प्रारम्भ हुआ। आयुर्वैदिक कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलनों ने आयुर्वेद के पुनरुत्थान में महती भूमिका निभायी।
औपनिवेशिक शासन के अधीन तत्कालीन संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) आयुर्वेद के इस समकालीन उभार का एक प्रमुख केंद्र था। संयुक्त प्रांत के अलग-अलग भागों से कोई 30 आयुर्वेदिक पत्र-पत्रिकाएँ इस दौर में प्रकाशित हो रही थीं जिनमें से कुछ प्रमुख हैं- धन्वन्तरि, वैद्य सम्मलेन त्रिका, सुधानिधि, अनुभूत योगमाला, आयुर्वेद प्रचारक, वैद्य, राकेश, आयुर्वेद केसरी, इत्यादि। जगन्नाथ शर्मा, किशोरी दत्त शास्त्री, शांडिल्य द्विवेदी, रूपेन्द्रनाथ शास्त्री, जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, गणनाथ सेन, शंकर दाजी पदे, आदि इस आन्दोलन के केंद्र में थे।
आयुर्वेद की प्राचीन यात्रा अनेक परिवर्तनों को पार करके बीसवीं शती तक पहुँची। इस काल में हाराचन्द्र चक्रवर्ती, योगीन्द्रनाथ सेन, ज्योतिषचन्द्र सरस्वती, दत्ताराम चौबे, जयदेव विद्यालंकार, अत्रिदेव विद्यालंकार, रामप्रसाद शर्मा, गोविन्द घाणेकर, दत्तात्रेय अनन्त कुलकर्णी, लालचन्द्र वैद्य आदि प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य हुए हैं, जिन्होंने आयुर्वेद के मूलतत्वों को बरकरार रखते हुए उन्हें विकसित किया।
इनके अतिरिक्त पंडित मदनमोहन मालवीय, सम्पूर्णानन्द, पंडित शिवशर्मा, पण्डित रामरक्षा पाठक, श्री विश्वनाथ द्विवेदी, पं. रमानाथ द्विवेदी, आचार्य प्रियव्रत शर्मा, पं. सत्यनारायण शास्त्री, हरिदत्त शास्त्री आदि अनेक महापुरूषों का भी आयुर्वेदोत्थान की दिशा में अमूल्य योगदान है।
- १८वीं और १९वीं शताब्दी के प्रमुख वैद्य एवं उनके आयुर्वेद ग्रन्थ[10]
- मुर्शीदबाद के कविराज गंगाधर राव (१७९८ - १८६५)
- वाराणसी के बलराम (ग्रन्थ : आतङ्कतिमिरभास्कर) - १८वीं शताब्दी के आरम्भ में रचित
- जयपुर के शंकर भट्ट (वैद्यविनोद, १७०५ ई)
- कलादिबासवराज (शिवतत्त्वरत्नाकर, १७०९ ई)
- धनपति (दिव्यरसेन्द्रसार , १८वीं शताब्दी)
- नारायण (वैद्यामृत , १८वीं शताब्दी)
- वैद्यचिन्तामणि (प्रयोगामृत , १८वीं शताब्दी)
- राजवल्लभ (राजवल्लभ निघण्टु , १८वीं शताब्दी)
- महादेव उपाध्याय (आयुर्वेद प्रकाश, १७१३)
- श्रीकण्ठ शम्भु (वैद्यकसारसंग्रहः, १७३४ ई)
- नारायण दास (राजवल्लभीय द्रव्यगुण, १७६० ई)
- बटेश्वर (चिकित्सासागर, १७८५ ई)
- अनन्त (पारदकल्पद्रुम, १७९२ ई)
- काशिनाथ या काशिराज (अजीर्णमञ्जरी या अमृतमञ्जरी , १८११ ई)
- दिनकर ज्योति ( गूढ़प्रकाशिका या उपकारसार , १८१८ ई)
- देवदत्त (धातुरत्नमाला , १८२८ ई)
- रणजीत सिंह के सौजन्य से संकलित कोबचीनीप्रकाश (१८८५ ई)
- विष्णु वासुदेव गोडबोले (निघण्टुरत्नाकर, १८६७ ई)
- के बी लाल सेनगुप्त (आयुर्वेदीयद्रव्याभिधान, १८७६ ई)
- कविराज विनोदलाल सेनगुप्त (आयुर्वेद विज्ञान, १८८७ ई)
- दत्तारम चौबे (बृहत्निघण्टुरनाकर, १८९१ ई)
- रघुनाथजी इन्द्रजी (निघण्टुसंग्रह, १८९३ ई)
- गोविन्ददास (भैषज्यरत्नावली, १८९३ ई)
- उमेश चन्द्र गुप्त (वैद्यकशब्दसिन्धु, १८९४ ई)
- कृष्णराम भट्ट (सिद्धभेषज्यमणिमाला, १८९६ ई)
- लाला शालिग्राम वैश्य (शालिग्रामनिघण्टु १८९६ ई)
भारत की स्वतंत्रता के बाद
स्वतंत्रता के पहले आयुर्वेद उपेक्षित था किन्तु स्वतंत्रता के बाद भी कई दशकों तक आयुर्वेद की उपेक्षा होती रही।[11] स्वतंत्रता के बाद आयुर्वेद को आधुनिक चिकित्सा पद्धति के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया। इसके पीछे यह तर्क दिया गया था कि एक संयुक्त चिकित्सा प्रणाली, अकेले आयुर्वेद से अधिक प्रभावकारी होगी। आजादी के बाद कोलकाता, बनारस, हरिद्वार, इंदौर, पूना और बंबई आयुर्वेद के प्राचीन उत्कृष्ट संस्थान के रूप में स्थित थे। 1960 के दशक में विशेष रूप से गुजरात और केरल में अच्छी तरह से नियोजित मेडिकल कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के विकास में तेजी आई, परन्तु आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति नेपथ्य में ही रही।
२०वी शताब्दी के अन्त और २१वीं शताब्दी के आरम्भ में आयुर्वेद में विशेष रुचि देखने को मिली। केरल की आर्य वैद्यशाला बहुत प्रसिद्ध है। स्वामी रामदेव का पतंजलि आयुर्वेद २००६ में आरम्भ हुआ था। इसे भरपूर व्यावसायिक सफलता मिली है।
वर्ष 2014 में आयुष मंत्रालय (आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी) की स्थापना से आयुर्वेद को प्रोत्साहन मिला। २०२० में भारत सरकार ने आयुर्वैदिक वैद्यों को भी कुछ प्रकार की शल्यचिकित्सा करने की अनुमति दे दी।[12]
सन्दर्भ
- ↑ यजुर्वेद 21/14-15
- ↑ ऋग्वेद 2/33/13
- ↑ वेदामृतम् भाग 12, ऋग्वेद सुभाषितावली, पृ.-330-358
- ↑ आचार्य प्रियव्रत शर्मा, आयुर्वेद का वैज्ञानिक इतिहास पृ. 43
- ↑ वेदामृतम् भाग 11, अथर्ववेद सुभाषितावली पृ. 229-303
- ↑ 'ऋचः सामानि भेषजा, यजूंषि' , अथर्ववेद 11/6/14
- ↑ प्राणों वा अथर्वा : शतपथ ब्राह्मण 6/4/2/2
- ↑ Medicine and Modernity : The Ayurvedic Revival Movement in India, 1885-1947
- ↑ Science, Technology and Medicine in Colonial India
- ↑ AYURVEDA IN THE EIGHTEENTH AND NINETEENTH CENTURIES
- ↑ Renaissance in Ayurveda
- ↑ केंद्र सरकार ने आयुर्वेद शल्य चिकित्सा में ३९ तरह की बीमारियों में दी ऑपरेशन करने की अनुमति
बाहरी कड़ियाँ
- आयुर्वेद का इतिहास (अत्रिदेव विद्यालंकार)
- ORIGIN AND DEVELOPMENT OF AYURVEDA (A BRIEF HISTORY) (V. Narayanaswamy)
- जैन आयुर्वेद का इतिहास Archived 2020-01-12 at the वेबैक मशीन (गूगल पुस्तक)
- आयुर्वेद का वैज्ञानिक इतिहास (लेखक - आचार्य प्रियव्रत शर्मा)
- आयुर्वेद का इतिहास, प्रथम भाग (लेखक- कविराज सूरमचन्द्र बी०ए० वैद्यवाचस्पति)
- आयुर्वेद के चमत्कार Archived 2023-07-29 at the वेबैक मशीन