अनेकांतवाद
अनेकात्मवाद से भ्रमित न हों।[1]
जैन धर्म |
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अनेकान्तवाद जैन धर्म के सबसे महत्वपूर्ण और मूलभूत सिद्धान्तों में से एक है। मौटे तौर पर यह विचारों की बहुलता का सिद्धान्त है। अनेकान्तवाद की मान्यता है कि भिन्न-भिन्न कोणों से देखने पर सत्य और वास्तविकता भी अलग-अलग समझ आती है। अतः एक ही दृष्टिकोण से देखने पर पूर्ण सत्य नहीं जाना जा सकता। अनेकान्तवाद जैन धर्म का आधारभूत सिद्धान्त एव दर्शन है।
दर्शन के क्षेत्र में जैन धर्म ने स्यादवाद का प्रतिपादन किया जो प्राचीन भारतीय दर्शनिक व्यवस्था की एक अमूल्य निधि मानी जाती है। इसके अनुसार प्रत्येक प्रकार का ज्ञान (मति, श्रुति , अवधि, मनः पर्याय) सात स्वरूपो में व्यकत किया जा सकता है, जो इस प्रकार है-
- (१) है
- (२) नहीं है
- (३) है और नहीं है
- (४) कहा नहीं जा सकता
- (५) है किंतु कहा नहीं जा सकता
- (६) नहीं है और कहा जा सकता
- (७) नहीं है और कहा नहीं जा सकता
अनेकान्वाद को 'सप्तभंगी ज्ञान' भी कहा जा सकता है।
परिचय
अनेकान्तवाद के अनुसार प्रत्येक वस्तु में अनन्त विरोधी युगल एक साथ रहते हैं। एक समय में एक ही धर्म अभिव्यक्ति का विषय बनता है। प्रधान धर्म व्यक्त होता है और शेष गौण होने से अव्यक्त रह जाते हैं। वस्तु के किसी एक धर्म के सापेक्ष ग्रहण व प्रतिपादन की प्रक्रिया है 'नय'। सन्मति प्रकरण में नयवाद और उसके विभिन्न पक्षों का विस्तार से विचार किया गया है। वस्तुबोध की दो महत्त्वपूर्ण दृष्टियां हैं- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। द्रव्यार्थिक दृष्टि वस्तु के सामान्य अंश का ग्रहण करती है जबकि पर्यायार्थिक दृष्टि वस्तु के विशेष अंगों का ग्रहण करती है। भगवती आदि प्राचीन आगमों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों दृष्टियों का उल्लेख मिलता है।
प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मों का समवाय है। वस्तु में अनन्त विरोधी युगल एक साथ रहते हैं। एक ही वस्तु में वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी युगलों का प्रकाशन करना ही अनेकान्त है। नित्यत्व-अनित्यत्व, वाच्यत्व-अवाच्यत्व, एकत्व-अनेकत्व आदि विरोधी धर्म परस्पर सापेक्ष रहकर ही अपने अस्तित्व को सुरक्षित रख सकते हैं। [1]
जैन दर्शन के तीन मूलभूत सिद्धान्त हैं- (१) अनेकान्तवाद, (२) नयवाद, (३) स्याद्वाद। आगम युग में नयवाद प्रधान था। दार्शनिक युग अथवा प्रमाण युग में स्याद्वाद और अनेकान्तवाद प्रमुख बन गए, नयवाद गौण हो गया। सिद्धसेन ने अनेकान्त की परिभाषा '’अनेके अन्ता धर्मा यत्र सोऽनेकान्तः’' नयवाद के आधार पर की है। नयवाद अनेकान्त का मूल आधार है।
अनेकान्तवाद को एक हाथी और पांच अंधों की कहानी से बहुत ही सरल तरीके से समझा जा सकता है। पांच अंधे एक हाथी को छूते हैं और उसके बाद अपने-अपने अनुभव को बताते हैं। एक अंधा हाथी की पूंछ पकड़ता है तो उसे लगता है कि यह रस्सी जैसी कोई चीज है, इसी तरह दूसरा अंधा व्यक्ति हाथी की सूंड़ पकड़ता है उसे लगता है कि यह कोई सांप है।
इसी तरह तीसरे ने हाथी का पांव पकड़ा और कहा कि यह खंभे जैसी कोई चीज है, किसी ने हाथी के कान पकड़े तो उसने कहा कि यह कोई सूप जैसी चीज है, सबकी अपनी अपनी व्याख्याएं। जब सब एक साथ आए तो बड़ा बवाल मचा। सबने सच को महसूस किया था पर पूर्ण सत्य को नहीं, एक ही वस्तु में कई गुण होते हैं पर हर इंसान के अपने दृष्ठिकोण की वजह से उसे वस्तु के कुछ गुण गौण तो कुछ प्रमुखता से दिखाई देते हैं। यही अनेकान्तवाद का सार है।
इन्हें भी देखें
- स्यादवाद
- नयवाद
- सिद्धसेन दिवाकर
- अनेकान्तिक हेतु
- अनेकात्मवाद (यह दर्शन कि भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न आत्मायें निवास करती हैं।)
- सत्यद्वय
सन्दर्भ
- ↑ "नय तथा प्रमाण (शोधगंगा)" (PDF). मूल से 6 अक्तूबर 2014 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 2 अक्तूबर 2014.