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अंशुबोधिनी

अंशुबोधिनी महर्षि भरद्वाज द्वारा रचित एक ग्रन्थ है। इसमें सूरज से प्राप्त ऊर्जा के विभिन्न उपयोग बताये गये हैं। इसमें बिना तार के सन्देश भेजने की बात भी कही गयी है।

परिचय

प्राच्य संस्थान, बडोदरा (Oriental Institute, Vadodara) के पुस्तकालय से बोधानन्द की टीका के साथ 'अंशुबोधिनी' शीर्षक की महर्षि भरद्वाज रचित एक पाण्डुलिपि प्राप्त हुयी है। वास्तव में प्राप्त पांडुलिपि भरद्वाज के १२ अध्याय वाले ग्रंथ में से केवल पहला अध्याय है, जिसका शीर्षक "सृष्ट्याधिकार" (सृष्टि + अधिकार = Evolution of Universe) है जिसमें महाविस्फोट (Big-bang) से अपने सौर मंडल के सूर्य की उत्पत्ति तक का वर्णन किया गया है, जिसमें उपर्युक्त यंत्र जो कि संभवत: उस समय प्रचलित पाँच प्रकार के वर्णक्रम मापक यंत्रों में से एक है जिसे "तम" व्यापक अर्थ में (radiation) के तीन प्रकाशकीय परास (Optical region) अर्थात् अंधतम/पराबैंगनी, गूढ़तम/दृश्य एवं तम (ultraviolet, visible and infrared regions) के मापन में प्रयुक्त होता रहा है।

चितिचैत्यस्पन्दनेन सृष्टयाद्यतेकमेवहि।
तम: प्रादुरभूद्वेगात्तम स्पृष्टवैवकेवलम्॥
तमेवमूलप्रकृतिरित्यार्हुज्ञानवित्तमा:।
तम आसीदितिप्राहतमेवहिसनातनी॥
पश्चात्तस्मिन्चितप्रकाशस्स्वभावात्प्रतिबिंबित :।
तत्सानिध्यबलातन्मूलप्रकृत्यामतिवेगत:॥
अन्धंतमोगूढंतमस्तमश्चेतियथाक्रमम्।
तमांसित्रीण्यजायन्तचित्प्रभामिश्रितानिहि॥
त्रिगुणाइतितान्येवप्रवदन्तिमनीषिण:।
सत्वंरजस्तमइतिगुणा: प्रकृतिसंभव:॥ --- पृष्ठ ८५, अंशुबोधिनी

महर्षि भारद्वाज रचित “अंशु बोधिनी” ग्रन्थ में सूर्य और नक्षत्रों की किरणों की शक्ति पर विचार किया गया है। इस ग्रन्थ में 64 अधिकरण हैं, जिनको छह भागों में विभाजित किया गया है। इनमें से 54 वाँ अधिकरण “विमानाधिकरण” नाम का है। इसके सिवा इन्हीं ऋषि का एक ग्रन्थ “अक्ष-तन्त्र” नाम का है जिसमें आकाश की परिधि और उसके विभागों का वर्णन किया गया है और बतलाया है कि मनुष्य आकाश में कहाँ तक जा सकता है और उसके बाहर जाने से किस प्रकार वह नष्ट हो सकता है। उसमें विमानों के सम्बन्ध में अनेक ऐसी बातें दी गई हैं जिनको पढ़कर आजकल के मनुष्य आश्चर्य में पड़ जाते हैं। “विमानाधिकरण” में यह सूत्र दिया गया है--[1]

शक्त्युद्गमोदयष्टौ

इस सूत्र पर बोधायन ऋषि ने निम्नलिखित व्याख्या की है-

शक्त्युद्गमो भूतवाहो धूमयानश्शिखोद्गमः। अंशुवाहस्तारामुखो मणिवाहो मरुत्सखः॥

अर्थात् विमान-रचना और उनके आकाश के चलने की गति के आठ भेद हैं :-

शक्त्युद्गमः- विद्युत शक्ति से चलने वाले विमान।

भूतवाहः- पंच महाभूत की शक्ति इकट्ठी करके चलने वाले विमान।

धूमयानः- भाप अथवा धुँये से चलने वाले विमान।

शिखोद्गमः- पंचशिखी, शिखरीनी, शिखा वति, कुँदशिखी आदि वनस्पतियों के तेल की मोमबत्ती बनाकर उनसे चलने वाले विमान।

अंशुवाहः - सूर्य की किरणों की शक्ति से चलने वाले विमान।

तारामुखः - नक्षत्र शास्त्र के अनुसार नक्षत्रों में रस बनकर जो पदार्थ भूमि पर आता है उसके प्रयोग से चलने वाले विमान।

मणिवाहः - हवा में जो उष्णता और बिजली है उसको कुछ यन्त्रों द्वारा पृथक करके उसी शक्ति से चलने वाले विमान।

मरुत्सखाः - हवा में शीत और उष्ण विभाग है उनका आवृत्तिकरण करने से जो शक्ति प्राप्त होती है, उससे चलने वाले विमानों को ‘मरुत्सखा’ कहा जाता था।

संक्षिप्त इतिहास

वैमानिक प्रकरण, ऋषि भरद्वाज द्वारा रचित यन्त्रसर्वस्व का एक भाग है। परम्परानुसार कहा जाता है कि उनका जीवनकाल त्रेता और द्वापर दोनों युगों में बीता। अतः उनका यह ग्रन्थ कम से कम २५०० वर्ष पुराना होगा। इसके अतिरिक्त, वैमानिकप्रकरणम् के आरम्भिक अनुच्छेद में ऋषि ने स्वयं कहा है कि इस ग्रन्थ में जो कुछ लिखा जा रहा है वह (नया नहीं है, बल्कि) वेदों से लिया गया ज्ञान है। और वेद तो २५०० से भी बहुत पुराने हैं। १०वीं शताब्दी में बोधायन ने वैमानिक प्रकरण के सूत्रों पर वृत्ति (व्याख्या) लिखी। इसके पश्चात लगभग ९०० वर्ष तक यह ग्रन्थ लुप्तप्राय बना रहा। सन १८९५ और १९१८ ई के बीच किसी समय पण्डित अनेकल सुब्बाराय शास्त्री ने कई अन्य भौतिकशास्त्रों के साथ वैमानिकप्रकरण को भी प्रकाश में लेकर आये। वैमानिक प्रकरण की पाण्डुलिपि को पुणे और वडोदरा की पौरस्त्य पुस्तकालयों में भेजा गया। सन १९५९ में दयानन्द भवन ने 'बृहद विमानशास्त्र' नाम से इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया, जिसके अनुवादक स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक हैं। सन १९७३ में वैमानिक प्रकरण का अंग्रेजी अनुवाद मैसूर के जी आर जोसयर द्वारा किया गया, जिसका नाम था 'वैमानिक शास्त्र'। ध्यान देने योग्य बात है कि वैमानिक प्रकरण में अत्रि, शौनक, लल्लाचार्य, गालव, अगस्त्य, आदि ऋषियों और मुनियों द्वारा प्रदिपादित विचार उद्धृत हैं। इसके अलावा, उद्धृत इन सिद्धान्तों के सन्दर्भ रूप में अंशुबोधिनी, वाल्मीकि गणित, यान बिन्दु, लोहकल्प, क्रियासार, रहस्य लहरी आदि को दिया गया है जिनकी संख्या ४० से भी अधिक है। ऐसा लगता है कि ये सन्दर्भित ग्रन्थ 'अनुसन्धान से उत्पन्न ज्ञान भण्डार' के मूलभूत ग्रन्थ थे जिनका आधार लेकर वैमानिकशास्त्र जैसे अनुप्रयुक्त विज्ञान के ग्रन्थ रचे गए।[2]

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ