अंतरराष्ट्रीय संबंध सिद्धांत
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत |
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- यह लेख सैद्धान्तिक शिक्षण की ओर इंगित करता है। अन्तरराष्ट्रीय अध्ययन के लिए अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध को देखें।
अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्त में सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य से अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। यह एक ऐसा वैचारिक ढाँचा प्रदान करने का प्रयास करता है जिससे अन्तरराष्ट्रीय सबन्धों का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जा सके।[1] ओले होल्स्ती कहता है कि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्त रंगीन धूप के चश्में की एक जोड़ी के रूप में कार्य करते हैं, जो उसे पहनने वाले व्यक्ति को केवल मुख्य सिद्धान्त के लिए प्रासंगिक घटनाओं को देखने की अनुमति देता है । अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में यथार्थवाद, उदारवाद और रचनावाद, तीन सबसे लोकप्रिय सिद्धांत हैं।[2]
अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्त मुख्यत: दो सिद्धान्तों में विभाजित किये जा सकते हैं, "प्रत्यक्षवादी/बुद्धिवादी" जो मुख्यत: राज्य स्तर के विश्लेषण पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। और उत्तर-प्रत्यक्षवादी / चिन्तनशील जो अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्त में उत्तर औपनिवेशिक युग में सुरक्षा, वर्ग, लिंग आदि के विस्तारित अर्थ को शामिल करवाना चाहते हैं। आईआर (IR) सिद्धान्तो में 443333 विचारों के अक्सर कई विरोधाभासी तरीके मौजूद हैं, जैसे अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों (IR) में रचनावाद, संस्थावाद, मार्क्सवाद, नव-ग्रामस्कियनवाद (neo-Gramscianism), और अन्य। हालाँकि, प्रत्यक्षवादी सिद्धान्तों के स्कूलों में सबसे अधिक प्रचलित यथार्थवाद और उदारवाद हैं। यद्यपि, रचनावाद अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में तेजी से मुख्यधारा होता जा रहा है।[3]
परिचय
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन को सिद्धांत के रूप में मान्यता ई. एच. कार (E . H . Carr) की पुस्तक "बीस साल के संकट" ("The Twenty Years' Crisis") (1939) और हंस मोर्गेंथाऊ (Hans Morgenthau) की पुस्तक राष्ट्रों के मध्य राजनीती (1948) ("Politics Among Nations") से मिली।[4] ऐसा माना जाता है कि एक विषय के रूप में अंतरराष्ट्रीय संबंध प्रथम विश्व युद्ध के बाद वेल्स विश्वविद्यालय, ऐबरिस्टविद (University of Wales, Aberystwyth) में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के एक चेयर की स्थापना के साथ उभरा है।[5] प्रारंभिक युद्ध के वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का विषय शक्ति का संतुलन (Balance of Power) पर केंद्रित था, धीरे-धीरे यह सामूहिक सुरक्षा (Collective Security) की एक प्रणाली के साथ प्रतिस्थापित किया जाने लगा। इन विचारकों को बाद में "आदर्शवादी" के रूप में पहचाना गया।[6] आदर्शवादी स्कूल के अग्रणी आलोचक "यथार्थवादी" विश्लेषक ई. एच. कार थे।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत में व्याख्यात्मक और रचनात्मक दृष्टिकोणों में भेद तब नज़र आता है जब हम अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों को वर्गीकृत करते हैं। व्याख्यात्मक सिद्धांत वे हैं जो सिद्धांत निर्माण के लिए बाहरी दुनिया को सैद्धांतिक दृष्टि से देखते हैं। रचनात्मक सिद्धांत वे हैं जो मानते हैं कि सिद्धांत वास्तव में दुनिया का निर्माण करने में मदद करते हैं।[7]
यथार्थवाद
यथार्थवाद या राजनीतिक यथार्थवाद,[9] अंतरराष्ट्रीय संबंधों के शिक्षण की शुरुआत के बाद से ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों का प्रमुख सिद्धांत रहा है।[10] यह सिद्धांत उन प्राचीन परम्परागत दृष्टिकोणों पर भरोसा करने का दावा करता है, जिसमें थूसीडाइड, मैकियावेली और होब्स जैसे लेखक शामिल हैं। प्रारंभिक यथार्थवाद को आदर्शवादी सोच के खिलाफ एक प्रतिक्रिया के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। यथार्थवादियों ने द्वितीय विश्व युद्ध के प्रकोप को आदर्शवादी सोच की कमी के एक सबूत के रूप में देखा था। आधुनिक यथार्थवादी विचारों में विभिन्न किस्में हैं, हालांकि, इस सिद्धांत के मुख्य सिद्धांतों के रूप में राज्य नियंत्रण वाद, अस्तित्व और स्वयं सहायता को माना जाता है।[10]
- राज्य नियंत्रण वाद/सांख्यबाद (Statism): यथार्थवादियों का मानना है कि राष्ट्र राज्य (Nation States) अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मुख्य अभिनेता होते हैं,[11] इस प्रकार यह अंतरराष्ट्रीय संबंधों का एक राज्य केंद्रित (State Centric) सिद्धांत है। यह विचार उदार (Liberal) अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों के साथ विरोधाभास प्रकट करता है, जो गैर राज्य अभिनेताओं (Non-state Actors) और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की भूमिका को भी अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों में समायोजित करता है।
- जीवन रक्षा/अस्तित्व (Survival): यथार्थवादियों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय प्रणाली अराजकता के द्वारा संचालित है, जिसका अर्थ है कि वहाँ कोई केंद्रीय सत्ता नहीं है, जो राष्ट्र राज्यों में सामंजस्य रख सके।[9] इसलिए, अंतरराष्ट्रीय राजनीति स्वार्थी (Self-interested) राज्यों के बीच सत्ता के लिए एक संघर्ष है।[12]
- स्वयं सहायता (Self-help): यथार्थवादियों का मानना है कि राज्य के अस्तित्व की गारंटी के लिए अन्य राज्यों की मदद पर भरोसा नहीं किया जा सकता है, इसलिए राज्य को अपनी सुरक्षा स्वयं के बल पर ही करनी चाहिए।
यथार्थवाद में कई महत्त्वपूर्ण मान्यताएं हैं। यथार्थवादी मानते हैं कि राष्ट्र - राज्य इस अराजक अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में ऐकिक (Unitary) व भौगोलिक आधारित अभिनेता (Actors) हैं, जहाँ कोई भी वास्तविक आधिकारिक विश्व सरकार के रूप में मौजूद नहीं है जो इन राष्ट्र- राज्यों के बीच अन्तः क्रिया या सहभागिताओं को विनियमित (Regulate) करने में सक्षम हो। दूसरे, यह अंतरसरकारी संगठनों (IGOs), अंतरराष्ट्रीय संगठनों (IOs), गैर सरकारी संगठनों (NGOs), या बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNCs) के बजाय संप्रभु राज्यों (Sovereign states) को ही अंतरराष्ट्रीय मामलों में प्राथमिक अभिनेता मानते हैं। इस प्रकार, राज्य ही, सर्वोच्च व्यवस्था के रूप में, एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा में रहते हैं। ऐसे में, एक राज्य अपने अस्तित्व को बनाए रखने, अपनी खुद की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए और इन प्राथमिक उद्देश्यों के साथ अपने स्वयं के स्वार्थ की खोज में एक तर्कसंगत स्वायत्त अभिनेता के रूप में कार्य करता है और इस तरह अपनी संप्रभुता और अस्तित्व की रक्षा करने का प्रयास करता है। यथार्थवादी मानते हैं कि राष्ट्र राज्य अपने हितों की खोज में, अपने लिए संसाधनों को एकत्र करना करने का प्रयास है और ये राज्यों के बीच के संबंधों को सत्ता के अपने संबंधित स्तरों द्वारा निर्धारित करते हैं। शक्ति का यह स्तर राज्य के सैन्य, आर्थिक और राजनीतिक क्षमताओं से निर्धारित होता है।
मानव स्वभाव यथार्थवादीयों (Human nature realists) का मानना है, कि राज्य स्वाभाविक रूप से ही आक्रामक होते हैं अतः क्षेत्रीय विस्तार को शक्तियों का विरोध करके ही असीमाबद्ध किया गया है। जबकि दुसरे आक्रामक/ रक्षात्मक यथार्थवादीयों (Offensive/defensive realists) का मानना है कि राज्य हमेंशा अपने अस्तित्व की सुरक्षा और निरंतरता की चिंता से ग्रस्त रहते हैं। रक्षात्मक दृष्टिकोण एक सुरक्षा दुविधा (Security dilemma) की तरफ ले जाता है, क्योंकि जहां एक राष्ट्र खुद की सुरक्षा को बढ़ाने के लिए हथियार बनता है, तो वहीं प्रतिद्वंद्वी भी साथ ही साथ समानांतर लाभ प्राप्त करने की कोशिश करता है। इसलिए यह प्रक्रिया और अधिक अस्थिरता की ओर ले जा सकती है यहाँ सुरक्षा को केवल शून्य राशि खेल/शून्य-संचय खेल (ज़ीरो सम गेम्स) के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ केवल सापेक्ष लाभ मिल सकता है।
नव यथार्थवाद
नव यथार्थवाद या संरचनात्मक यथार्थवाद,[13] केनेथ वाल्ट्ज द्वारा अपनी पुस्तक अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धांत (The Theory of International Politics) में इसे यथार्थवाद के ही उन्नत विकास के रूप में प्रस्तुत किया था। जोसेफ ग्रिएको (Joseph Grieco) ने नवयथार्थवादी विचारों को और अधिक परंपरागत यथार्थवादियों के साथ जोड़ा है। सिद्धांत का यह प्रकार कभी कभी "आधुनिक यथार्थवाद" भी कहा जाता है।[14] वाल्ट्ज के नव यथार्थवाद का कहना है कि संरचना के प्रभाव को राज्य के व्यवहार को समझाने के रूप में लिया जाना चाहिए। संरचना को दो रूपों में परिभाषित किया गया है, प्रथम-अंतरराष्ट्रीय प्रणाली का व्यवस्था सिद्धांत, जो की अराजकता (Anarchy) लिए हुए हैं और दूसरा- इकाइयों में क्षमताओं का वितरण। वाल्ट्ज भी पारंपरिक यथार्थवाद को चुनौति देता है जो की पारंपरिक सैन्य शक्ति पर जोर देता है बजाय राज्य की संयुक्त क्षमताओं के, जो की प्रदर्शनात्मक शक्ति के रूप में होती हैं।[15]
उदारवाद
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के उदारवादी सिद्धांतों का अग्रदूत "आदर्शवाद" था। आदर्शवाद (कल्पनावाद) जो खुद को यथार्थवादियों की आलोचना के रूप में देखता था। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में, आदर्शवाद (वुडरो विल्सन के साथ इसके जुड़ाव की वजह से इसे "विल्सनवाद" भी बुलाया जाता है, जिसने इसे आदर्श रूप दिया था) एक वैचारिक दृष्टिकोण है जो यह मानता है कि एक राज्य को अपनी विदेश नीति का लक्ष्य निर्धारित करने के लिए इसे (आदर्शवाद को) अपने आंतरिक राजनीतिक दर्शन में अपनाना चाहिए। उदाहरण के लिए, एक आदर्शवादी यह विश्वास कर सकता है कि घर पर गरीबी समाप्त करने के साथ-साथ विदेशों में भी गरीबी से निपटने के लिए साथ मिलकर काम किया जाना चाहिए। विल्सन का आदर्शवाद उदार अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों के लिए एक अग्रदूत के रूप में था, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद "'संस्था निर्माताओं'" (Institution builders) के बीच पैदा हुआ था।
उदारवाद यह मानता है कि राज्य की क्षमताओं (State capabilities) के बजाय राज्य की प्राथमिकताएँ (State preferences), राज्य के व्यवहार के लिए मुख्य निर्धारक होती हैं। यथार्थवाद के विपरीत, जहां राज्य एक एकात्मक अभिनेता के रूप में देखा जाता है, वहीं उदारवाद राज्य के कार्यों में बहुलता के लिए अनुमति देता है। इस प्रकार, प्राथमिकताएँ अलग अलग राज्यों में उनकी संस्कृति, आर्थिक प्रणाली या सरकार के प्रकार के रूप में अलग अलग कारकों पर निर्भर करेंगी। उदारवादी यह भी मानते हैं कि राज्यों के बीच संपर्क (Interactions) केवल राजनीतिक अथवा सुरक्षा ("उच्च राजनीति") के मामलों तक ही सीमित नहीं है, जबकि इनमें आर्थिक अथवा सांस्कृतिक ("निम्न राजनीति") मामलों के लिए भी आपस में संपर्क होता रहता है, चाहे वो वाणिज्यिक कंपनियों, संगठनों या व्यक्तियों के माध्यम से ही हो। इस प्रकार, एक अराजक अंतरराष्ट्रीय प्रणाली के बावजूद, सहयोग और सत्ता के व्यापक विचार के लिए बहुत से अवसर विद्यमान हैं, जैसे कि सांस्कृतिक पूंजी। (उदाहरण के लिए, फिल्मों के प्रभाव ने देश की संस्कृति की लोकप्रियता और इसके दुनिया भर में निर्यात के लिए एक बाजार बनाने के लिए अग्रणी भूमिका अदा की है।) एक अन्य धारणा यह भी है कि पूर्ण अथवा सापेक्ष लाभ केवल सहयोग और पारस्परिक - निर्भरता के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है और इस तरह से शांति को हासिल किया जा सकता है।
लोकतांत्रिक शांति सिद्धांत का तर्क है कि उदार लोकतांत्रिक राज्यों के बीच लगभग कभी भी युद्ध नहीं हुआ है और आपस में संघर्ष अथवा विवाद भी बहुत कम ही हुए हैं। यह सिद्धांत विशेष रूप से यथार्थवादी सिद्धांतों के विरोधाभास के रूप में देखा जाता है और यह अनुभवजन्य दावा अब राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र में एक महान विवाद बन गया है। लोकतांत्रिक शांति के लिए कई स्पष्टीकरण आये हैं। किताब नेवर एट वॉर (Never at War) में यह भी तर्क दिया गया है, कि सामान्य रूप से लोकतांत्रिक राज्यों ने गैर लोकतांत्रिक राज्यों से कूटनीति के मामले में बहुत अलग ढंग से आचरण किया है। (नव) यथार्थवादी उदारवादीयों के इस सिद्धांत में असहमति प्रकट करते हैं, कि उन्होंने अक्सर शांति के लिए संरचनात्मक कारणों का हवाला देते हुए, राज्य सरकार का विरोध किया है। सेबस्टियन रोसतो (Sebastian Rosato), जो कि लोकतांत्रिक शांति सिद्धांत का एक आलोचक है, ने लोकतांत्रिक शांति को चुनौती देने के लिए शीत युद्ध के दौरान लैटिन अमेरिका में वामपंथी झुकाव वाले लोकतांत्रिक देशों के प्रति अमेरिका के व्यवहार को इंगित किया है।[17] एक तर्क यह भी है कि व्यापार भागीदारों के बीच आर्थिक निर्भरता युद्ध होने की संभावना को कम करती है।[18] इसके विपरीत यथार्थवादी दावा करते हैं कि आर्थिक निर्भरता संघर्ष की संभावना कम को करने की बजाय बढ़वा देती है।
नव उदारवाद
नव उदारवाद, उदार संस्थावाद या नव - उदारवादी संस्थावाद[19] उदार सोच के लिए एक प्रगति है। यह तर्क देता है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ राष्ट्र-राज्यों को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में सफलतापूर्वक सहयोग करने के लिए अनुमति दे सकती हैं।
उत्तर - उदारवाद
उत्तर- उदारवादी सिद्धांत का तर्क है कि आधुनिक और भूमंडलीकृत दुनिया के भीतर राज्य अपनी सुरक्षा और संप्रभु हितों को सुनिश्चित करने के लिए वास्तव में सहयोग के लिए कदम बढ़ा रहे हैं। यह सिद्धांत विशेष रूप से संप्रभुता और स्वायत्तता की अवधारणाओं की फिर से व्याख्या करने में लगा है। स्वायत्तता आजादी की अवधारणा, आत्मनिर्णय, एक पूर्ण जिम्मेदार एजेंसी और कर्तव्यपरायणता की धारणा से दूर स्थानांतरित होने से एक समस्याग्रस्त अवधारणा बन जाती है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्वायत्तता सुशासन के लिए क्षमता के रूप में होती है। इसी प्रकार से, संप्रभुता भी कर्तव्य के लिए सही से बदलाव का अनुभव कराती है।
रचनावाद
रचनावाद या सामाजिक रचनावाद[21] नव उदारवादी और नव यथार्थवादी अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों के प्रभुत्व के सामने एक चुनौती के रूप में वर्णित किया जाता है।[22] माइकल बार्नेट वर्णन करते हैं कि रचनावादी अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों को इस रूप में समझा जाता है कि विचार कैसे अंतरराष्ट्रीय संरचना को परिभाषित करते हैं, यह संरचना कैसे राज्यों के हितों (Interests) और पहचान को परिभाषित करती है और राज्य (States) और गैर राज्य अभिनेता (Non-states actors) इस संरचना को कैसे पुन: पेश (Reproduce) करते हैं।[23] रचनावाद के प्रमुख सिद्धांत यह मानते हैं कि "अंतरराष्ट्रीय राजनीति प्रेरक विचारों, सामूहिक मूल्यों, संस्कृति और सामाजिक पहचान द्वारा निर्मित होती है।" रचनावाद का तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय वास्तविकता (International reality) सामाजिक रूप से ज्ञानात्मक/बौधिक संरचनाओं (Cognitive structures) (जो भौतिक दुनिया Meterial world को अर्थ देती हैं।) के द्वारा निर्मित होती है।[24] यह सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों की वैज्ञानिक विधि (Scientific method) और अंतरराष्ट्रीय शक्ति के उत्पादन (The production of international power) में सिद्धांतों की भूमिका को ध्यान में रखकर एक बहस के रूप में उभरा।[25] एमेन्युल एडलर ने कहा है कि रचनावाद तर्कवादी और व्याख्यात्मक अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों में एक बीच का रास्ता है।[24]
मार्क्सवाद और विवेचनात्मक सिद्धान्त
मार्क्सवाद और नव-मार्क्सवाद अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्तों के संरचनावादी मानदण्ड हैं, जो यथार्थवादी और उदारवादीयों के राज्य संघर्ष या सहयोग के दृश्य को अस्वीकार करते हैं और इनके बजाय ये आर्थिक और भौतिक पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।
नारीवाद
अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नारीवादी दृष्टिकोण (Feminist approach) 1990 के दशक में लोकप्रिय बना। यह दृष्टिकोण इस बात पर जोर देता है कि महिलाओं के अनुभवों को अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन से लगातार बाहर रखा जा रहा है।[26] अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नारीवादियों का तर्क है कि लिंग संबंध (Gender relations) अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अभिन्न अंग हैं। अतः राजनयिक महिलाओं (Diplomatic wives) और वैवाहिक संबंधों (Marital relationship) पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए जो सेक्स के अवैध व्यापार (Sex trafficking) को सुविधाजनक बनाने में भूमिका निभाते हैं।
ग्रीन सिद्धान्त
हरित सिद्धान्त (Green theory) अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्तों का एक उप क्षेत्र है जो अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण सहयोग से सम्बन्धित है।[27]
वैकल्पिक दृष्टिकोण
अधिक जानकारी के लिए: अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों में बुनियादवाद (Foundationalism), विरोधी बुनियादवाद, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों में प्रत्यक्षवाद, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों में उत्तर-प्रत्यक्षवाद, उत्तर-यथार्थवाद और पूर्ववादी
कार्यात्मकवाद
प्रकार्यवाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों का एक सिद्धांत है जो कि यूरोपीय एकीकरण के अनुभव से उभर कर सामने आया। जहाँ यथार्थवादी स्वहित को एक प्रेरित कारक के रूप में देखते हैं, वहीं प्रकार्यवादी (Functionalists) राज्यों द्वारा साझा हितों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
राज्य कार्टेल (उत्पादक संघ) सिद्धान्त
अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में राज्य कार्टेल सिद्धान्त अर्थशास्त्र के प्राचीन संस्थागत सिद्धान्त (निजी या उद्यम उत्पादक संघ) सिद्धान्त से आया है। इस सिद्धान्त की जर्मन पृष्ठभूमि है, क्योंकि जर्मनी पहले उच्चतम विकसित आर्थिक उत्पादक संघ और क्लासिकल (उत्कृष्ट) कार्टेल सिद्धान्त की मातृभूमि थी। अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के अन्य सिद्धान्तों के के बीच, राज्य कार्टेल सिद्धान्त अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में प्रकार्यवाद के साथ अधिक जुड़ा हुआ है। शुरुआत के थोड़े बाद, राज्य कार्टेल सिद्धान्त ने अन्तरराष्ट्रीय संगठनों के सिद्धांतो पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है।
उत्तर - संरचनावाद
उत्तर - संरचनावाद अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दूसरे अधिकांश दृष्टिकोणों से अलग है, क्योंकि यह खुद को एक ऐसे सिद्धांत, स्कूल या प्रतिमान के रूप में नहीं देखता है जो की केवल किसी एक ही विषय के बारे में लेखा-जोखा रखता हो। इसके बजाय, उत्तर -संरचनावादी दृष्टिकोण एक लोकाचार, तरीका और दृष्टिकोण है जो विशेष ढंग से आलोचनाओं की जाँच एवं खोज करता है। उत्तर -संरचनावाद आलोचना को एक स्वाभाविक सकारात्मक तरीके से देखते है जो कि विकल्पों की खोज के लिए ऐसी स्थितियां बनता है।
उत्तर - उपनिवेशवाद
उत्तर औपनिवेशिकवाद अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के शिक्षण में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के (आईआर) के लिए एक आलोचनात्मक सिद्धांत एवं दृष्टिकोण रखता है और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के शिक्षण में मुख्यधारा का क्षेत्र नहीं माना जाता है। उत्तर उपनिवेशवाद विश्व राजनीति में औपनिवेशिक स्थिरता की शक्ति और नस्लवाद के अस्तित्व को जारी रखने पर बल देता है।[28]
विकासवादी दृष्टिकोण
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
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