अंग्रेजी नाटक
उदय
यूनान की तरह इंग्लैंड में भी नाटक धार्मिक कर्मकांडों से अंकुरित हुआ। मध्ययुग में चर्च (धर्म) की भाषा लातीनी थी और पादरियों के उपदेश भी इसी भाषा में होते थे। इस भाषा से अनभिज्ञ साधारण लोगों को बाइबिल और ईसा के जीवन की कथाएँ उपदेशों के साथ अभिनय का भी उपयोग कर समझाने में सुविधा होती थी। बड़े दिन और ईस्टर के पर्वों पर ऐसे अभिनयों का विशेष महत्त्व था। इससे धर्मशिक्षा के साथ मनोरंजन भी होता था। पहले ये अभिनय मूक हुआ करते थे, लेकिन नवीं शताब्दी में लातीनी भाषा में कथोपकथन होने के भी प्रमाण मिलते हैं। कालांतर में बीच-बीच में लोकभाषा का भी प्रयोग किया जाने लगा। अंग्रेजी भाषा 1350 में राजभाषा के रूप में स्वीकृत हुई। इसलिए आगे चलकर केवल लोकभाषा ही प्रयुक्त होने लगी। इस प्रकार आरंभ से ही नाटक का संबंध जनजीवन से था और समय के साथ वह और भी गहरा होता गया। ये सारे अभिनय गिरजाघरों के भीतर ही होते थे और उनमें उनसे संबद्ध साधु, पादरी और गायक ही भाग से सकते थे। नाटक के विकास के लिए जरूरी था कि उसे कुछ खुली हवा मिले। परिस्थितियों ने इसमें उसकी सहायता की।
14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक
मिस्ट्री(रहस्य) और मिरैकिल(चमत्कार) नाटक विशेष मनोरंजक होने के कारण इन अभिनयों को देखने के लिए लोग गिरजाघरों के भीतर उमड़ने लगे। विवश होकर चर्च के अधिकारियों ने इनका प्रबंध गिरजाघरों के मैदानों में किया। लेकिन सड़कों पर या बाजार में इन अभिनयों के लिए अनुमति न थी। प्रार्थना भवन से बाहर आते ही अभिनयों का रूप बदलने लगा और उनमें स्वच्छंदता की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। इस स्वच्छंदता ने गिरजाघर के भीतर के अभिनयों को भी प्रभावित करना आरंभ किया। इसलिए ईसा के संदेह स्वर्गारोहण के दृश्य के अतिरिक्त प्रार्थना भवन में और अभिनय नियम बनाकर रोक दिए गए। बाजारों में और सड़कों पर ऐसे अभिनय करना पाप घोषित कर दिया गया। पादरियों और चर्च के अन्य सेवकों पर लगे इस नियंत्रण ने अभिनय को गिरजाघरों की चारदीवारियों से बाहर ला खड़ा किया। नगरों की श्रेणियों (गिल्ड्स) ने इस काम को अपने हाथ में लिया। यहीं से मिस्ट्री(रहस्य) और मिरैकिल(चमत्कार) नाटकों का उदय और विकास हुआ।
मिस्ट्री नाटकों में बाइबिल की कथाओं से विषय चुने जाते थे और मिरैकिल नाटकों में संतों कीे जीवनियाँ होती थीं। फ्रांस में यह भेद स्पष्ट था, लेकिन इंग्लैंड में दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं था। 14वीं शताब्दी के प्रारंभ में नाटक मंडलियाँ अपना सामान बैलगाड़ियों पर लादकर अभिनय दिखाने के लिए देश भर में भ्रमण करने लगीं। स्पष्ट है कि ऐसे अभिनयों में दृश्यों का प्रबंध नहीं के बराबर होता था। लेकिन वेशभूषा का काफी ध्यान रखा जाता था। अभिनेता प्रायः अस्थायी होते थे और कुछ समय के लिए अपने स्थायी काम-धंधों से छुट्टी लेकर इन नाटकों में अभिनय करके पुण्य और पैसा दोनों ही कमाते थे। धीरे-धीरे जनरुचि को ध्यान में रखकर गंभीरता के बीच प्रहसन खंड भी अभिनीत होने लगे। यही नहीं, हजरत नूह की पत्नी, शैतान और क्रूर हेरोद के चरित्रों को हास्यात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा। विभिन्न नगरों की नाटक मंडलियों ने अपनी-अपनी विशिष्टताएँ भी विकसित कीं- धार्मिक शिक्षा, प्रहसन, तीव्र अनुभूति और यथार्थवाद विभिन्न अनुपातों में मिश्रित किए जाने लगे। इसमें संदेह नहीं कि इन नाटकों में विषय और रूपगत अनेक दोष थे, लेकिन अंग्रेजी नाटक के भावी विकास की नींव इन्होंने ही रखी।
- मोरैलिटी नाटक
इस विकास का अगला कदम था मिस्ट्री और मिरैकिल नाटकों के स्थान पर मोरैलिटी (नैतिक) नाटकों का उदय। ये नाटक सदाचार शिक्षा के लिए लिखे जाते थे। इन नाटकों पर मध्ययुगीन साहित्य के भाववाद और प्रतीक या रूपक की शैली का स्पष्ट प्रभाव है। इनमें उपदेश के अतिरिक्त पात्रों के नाम तक गुणों या दुर्गुणों से लिए जाते थे, जैसे सिन (पाप), ग्रेस (प्रभुदया), फेलोशिप (सौहार्द), एन्वी (ईर्षा), आइडिलनेस (प्रमाद), रिपेटेंस (पश्चाताप) इत्यादि। इन नाटकों की केंद्रीय कथावस्तु थी मानव (एव्रीमैन) का पापों द्वारा पीछा तथा आत्मा और ज्ञान द्वारा उसका उद्धार। इस प्रकार इन नाटकों ने मनुष्य के आंतरिक संघर्षों के चित्रण की महत्त्वपूर्ण परंपरा को जन्म दिया। ऐसे नाटकों में सबसे प्रसिद्ध फ़ एव्रीमैनफ़ है जिसकी रचना 15वीं शताब्दी के अंत में हुई।
मोरैलिटी नाटक पहले वाले नाटकों से ज्यादा लंबे होते थे और पुनर्जागरण के प्राभाव के कारण उनमें से कुछ का विभाजन सेनेका के नाटकों के अनुकरण पर अंकों और दृश्यों में भी होता था। कुछ नाटक सामंतों की हवेलियों में खेले जाने के लिए भी लिखे जाते थे। इनमें से अधिकांश का अभिनय पेशेवर अभिनेताओं द्वारा होने लगा। इनमें व्यक्तिगत रचना के लक्षण भी दिखाई पड़ने लगे।
- इंटरल्यूड
प्रारंभ में मोरैलिटी और इंटरल्यूड नाटकों की विभाजक रेखा बहुत धुँधली थी। बहुत से मोरैलिटी नाटकों को इंटरल्यूड शीर्षक से प्रकाशित किया जाता था। कोरे उपदेश से पैदा हुई ऊब को दूर करने के लिए मोरैलिटी नाटकों में प्रहसन के तत्वों का भी समावेश कर दिया जाता था। ऐसे ही खंडों को इंटरल्यूड कहते थे। बाद में ये मोरैलिटी नाटकों से स्वतंत्र हो गए। ऐसे नाटकों में सबसे प्रसिद्ध हेवुड का फ़ फ़ोर पीज़फ़ है। इन नाटकों में आधुनिक भांड (फार्स) और प्रहसन के तत्त्व थे। इनमें से कुछ ने बेन जॉन्सन की यथार्थवादी कॉमेडी के लिए भी जमीन तैयार की। प्रसिद्ध मानवतावादी चिंतक सर टॉमस मोर ने भी ऐसे नाटक लिखे।
इसी युग में आगे आने वाली प्रहसन और प्रेमयुक्त दरबारी रोमैंटिक कॉमेडी के तत्त्व मेडवाल की कृतियों फ़ फुल्जेंस ऐंड लूक्रीसफ़ और फ़ कैलिस्टो ऐंड मेलेबियाफ़ में और रोमानी प्रवृत्तियों से सर्वथा मुक्त कॉमेडी के तत्त्व यूडाल की रचना फ़ राल्फ़ र्वायस्टर डवायस्टरफ़ और मिस्टर एस की रचना फ़ गामर गर्टस नीडिलफ़ में प्रकट हुए। ऐतिहासिक नाटकों का भी प्रणयन तभी हुआ।
16वीं शताब्दी के मध्य तक आते आते पुनर्जागरण के मानवतावाद ने अंग्रेजी नाटक को स्पष्ट रूप से प्रभावित करना शुरू किया। 1581 तक सेनेका अंग्रेजी में अनूदित हो गया। सैकविल और नॉर्टन कृत अंग्रेजी की पहली ट्रैजडी फ़ गॉरबोडक का अभिनय एलिज़ाबेथ के सामने 1562 में हुआ। कामेडी पर प्लाटस और टेरेंस का सबसे गहरा असर पड़ा। लातीनी भाषा के इन नाटककारों के अध्ययन से अंग्रेजी नाटकों के रचनाविधान में पाँच अंकों, घटनाओं की इकाई और चरित्रचित्रण में संगतिपूर्ण विकास का प्रयोग हुआ।
इस विकास की दो दिशाएँ स्पष्ट हैं। एक ओर कुछ नाटककार देशज परंपरा के आधार पर ऐसे नाटकों की रचना कर रहे थे जिनमें नैतिकता, हास्य, रोमांस इत्यादि के विविध तत्त्व मिले-जुले होते थे। दूसरी ओर लातीनी नाट्यशास्त्र के प्रभाव में विद्वद्वर्ग के नाटककार कॉमेडी और ट्रैजेडी में शुद्धतावाद की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे। अंग्रेजी नाटक के स्वर्णयुग के पहले ही अनेक नाटककारों ने इन दोनों तत्वों को मिला दिया और उन्हीं के समन्वय से शेक्सपियर और उसके अनेक समकालीनों के महान नाटकों की रचना हुई।
इस स्वर्णयुग की यवनिका उठने के पहले की तैयारी में एक बात की कमी थी। वह 1576 में शोरडिच में प्रथम सार्वजनिक (पब्लिक) रंगशाला की स्थापना से पूरी हुई। उस युग की प्रसिद्ध रंगशालाओं में थिएटर, रोज़, ग्लोब, फार्चुन और स्वॉन हैं। सार्वजनिक रंगशालाएँ लंदन नगर के बाहर ही बनाई जा सकती थीं। 16वीं शताब्दी के अंत तक केवल एक रंगशाला ब्लैकफ्रायर्स में स्थित थी और वह व्यक्तिगत (प्राइवेट) कहलाती थी। सार्वजनिक रंगशालाओं में नाटकों का अभिनय खुले आसमान के नीचे, दिन में, भिन्न-भिन्न वर्गों के सामाजिकों द्वारा घिरे हुए प्राय: नग्न रंगमंच पर होता था। एलिज़ाबेथ और स्टुअर्ट युग के नाटकों में वर्णनात्मक अंशों, कविता के आधिक्य, स्वगत, कभी-कभी फूहड़ मजाक या भँड़ैती, रक्तपात, समसामयिक पुट, यथार्थवाद इत्यादि तत्वों को समझने के लिए इन रंगशालाओं की रचना और उनके सामाजिकों का ध्यान रखना आवश्यक है। व्यक्तिगत रंगशालाओं में रंगमंच कक्ष के भीतर होता था जहाँ प्रकाश, दृश्य आदि का अच्छा प्रबंध रहता था और उसके सामाजिक अभिजात होते थे। इन्होंने भी 17वीं शताब्दी में अँग्रेजी नाटक के रूप को प्रभावित किया। इन रंगशालाओं ने नाटकों के लिए केवल व्यापक रुचि ही नहीं पैदा की बल्कि नाटकों की कथावस्तु और रचना विधान को भी प्रभावित किया, क्योंकि इस युग के नाटककारों का रंगमंच से जीवित संबंध था और वे उसकी संभावनाओं और सीमाओं को दृष्टि में रखकर ही नाटक लिखते थे।
- एलिज़ाबेथ और जेम्स प्रथम का युग
एलिज़ाबेथ का युग अंग्रेजों के इतिहास में राष्ट्रीय एकता, अदम्य उत्साह, मानवतावादी जागरूकता के उत्कर्ष और महान प्रयत्नों का था। इसका प्रभाव साहित्य की अन्य विधाओं की तरह नाटक पर भी पड़ा। शेक्सपियर संसार को उस युग की सबसे बड़ी साहित्यिक देन है, लेकिन उसके अतिरिक्त यह अनेक बड़ी प्रतिभाओं का कृतित्वकाल है। उस महान युग की भूमिका तैयार करने में विश्वविद्यालयों में शिक्षित होने और लेखन को व्यवसाय बनाने के कारण फ़ यूनिवर्सिटी विट्सफ़ कहलाने वाले रॉबर्ट ग्रीन (1558-92), जॉन लिली (1542-1606), टॉमस किड (1558-94) और क्रिस्टोफर मार्लो (1564-93) का विशेषत: बहुत बड़ा हाथ है। ग्रीन और लिली ने गीतिमय प्रेम और उदार प्रहसन, किड ने प्रतिहिंसात्मक(बदले की भावना) ट्रैजेडी और मार्लो ने महत्त्वाकांक्षा और नैतिकता के संघर्ष से पैदा हुई विषमता की ट्रैजेडी को जन्म दिया। लातीनी और देशज परंपराओं के मिश्रण से उन्होंने नाटक को कलात्मकता दी। जॉर्ज पील (1557-1596) और ग्रीन ने नाटकीय अतुकांत कविता का विकास किया और मार्लो ने उनसे आगे बढ़कर उसे उच्चकंठ और वेगवान बनाया। मार्लो के नाटकों में कथासूत्र शिथिल है लेकिन वह भयंकर अंतर्द्वंद्वों की गीतिमय अकृत्रिम अभिव्यक्ति और भव्य चित्र योजना में शेक्सपियर का योग्य गुरु है। मार्लो कृत टैंबरलेन, डाक्टर फास्टस् और 'दि ज्यू ऑ्व माल्टा' के नायक अपने अबाध व्यक्तिवाद के कारण आध्यात्मिक मूल्यों से टकराते और टूट जाते हैं। इस प्रकार व्यक्ति और समाज के बीच संघर्ष को चित्रित कर मार्लो पहले पहल पुनर्जागरण की वह केंद्रीय समस्या प्रस्तुत करता है जो शेक्सपियर और अन्य नाटककारों को भी आंदोलित करती रही। मार्लो ने अंग्रेजी नाटक को स्वर्णयुग के द्वार पर खड़ा कर दिया।
विलियम शेक्सपियर (1564-1616) का प्रारंभिक विकास इन्हीं परंपराओं की सीमाओं में हुआ। उसके प्रारंभिक नाटकों में कला में सिद्धहस्तता प्राप्त करने का प्रयत्न है। इस प्रारंभिक प्रयत्न के माध्यम से उसने अपने नाटककार के व्यक्तित्व को पुष्ट किया। कथानक, चरित्र-चित्रण, भाषा, छंद, चित्र योजना और जीवन की पकड़ में उसका विकास उस युग के अन्य नाटककारों की अपेक्षा अधिक श्रमसाध्य था, लेकिन 16वीं शताब्दी के अंतिम और 17वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में उसकी प्रतिभा का असाधारण उत्कर्ष हुआ। इस काल के नाटकों में पुनर्जागरण की सारी सांस्कृतिक और रचनात्मक क्षमता प्रतिबिंबित हो उठी। इस तरह शेक्सपियर ने हाल और हॉलिनशेड के इतिहास ग्रंन्थों से इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के राजाओं की ओर प्लुतार्क से रोम के शासकों की कथाएँ लीं, लेकिन उनमें उसने मानवतावादी युग का बोध भर दिया। प्रारंभिक सुखांत नाटकों में उसने लिली और ग्रीन का अनुकरण किया, लेकिन 'ए मिडसमर नाइट्स ड्रीम' (1596) और उसके बाद की चार ऐसी ही रचनाओं 'दि मरचेंट ऑव वेनिस', 'मच ऐडो अबाउट नथिंग', 'ट्वेल्फ्थ नाइट' और 'ऐज यू लाइक इट' में उसने अंग्रेजी साहित्य में रोमैंटिक कॉमेडी को नया रूप दिया। इनका वातावरण दरबारी कॉमेडी से भिन्न है। वहाँ एक ऐसा लोक है जहाँ स्वप्न और यथार्थ का भेद मिट जाता है और जहाँ हास्य की बौद्धिकता भी हृदय की उदारता से आर्द्र है। 'मेज़र फॉर मेज़र' और 'आल्ज़ वेल दैट एंड्स वेल' में, जो उसके अंतिम सुखांत नाटक हैं, वातावरण घने बादलों के बीच छिपते और उनसे निकलते हुए सूरज का सा है। दुःखांत नाटकों में प्रारंभिक काल की रचना 'रोमियो ऐंड जूलिएट' में नायक-नायिका की मृत्यु के बावजूद पराजय का स्वर नहीं है। लेकिन 16वीं शताब्दी के बाद लिखे गए 'हैमलेट', 'लियर', 'आथेलो', 'मैकवेथ', 'ऐंटनी ऐंड क्लियोपेट्रा' और कोरियोलेनसफ़ में उस युग के षड्यंत्रपूर्ण दूषित वातावरण में मानवतावाद की पराजय का चित्र है। लेकिन उसके बीच भी शेक्सपियर की अप्रतिहत आस्था का स्वर उठता है। अंत में अनुभूतियों से मुक्ति पाने के लिए उसने 'पेरिक्लीज़', 'सिंबेलीन', 'दी विंटर्स टेल' और 'टेंपेस्ट' लिखे जिनमें प्रारंभिक दुर्घटनाओं के बावजूद अंत सुखद होते हैं। जीवन के विशद ज्ञान और काव्य एवं नाट्य सौंदर्य में शेक्सपियर संसार की इनी-गिनी प्रतिभाओं में है।
सत्रहवीं शती
बेन जॉन्सन (1572-1637) अंग्रेजी नाटक में 'विकृत' प्रहसन (कामेडी ऑव ह्यूमर्स) का जन्मदाता है। उसके दीक्षा गुरु प्लाटस और होरेस थे, इसलिए वह आचार्य नाटककार है और उसने शेक्सपियर इत्यादि की रोमैंटिक कॉमेडी में विरोधी तत्वों के समन्वय का विरोध किया। उसकी फ़ विकृतिफ़ का अर्थ था किसी चरित्र के दोषविशेष को अतिरंजित रूप में चित्रित करना। उसकी प्राथमिक रचनाओं 'एब्रीमैन इन हिज़ ह्यूमर' और 'एब्रीमैन आउट ऑव हिज़ ह्यूमर' में इसी तरह का प्रहसन है। जॉन्सन के अनुसार कॉमेडी का कर्तव्य अपने युग का चित्र प्रस्तुत करना और मानव चरित्र की मूर्खताओं से 'क्रीड़ा' करना था। इस तरह उसने विद्रूपपूर्ण यथार्थवादी प्रहसन नाटक को भी जन्म दिया जिसमें उसकी प्रसिद्ध रचनाएँ ' वॉल्पोन' और 'आलकेमिस्ट' हैं। जॉन्सन का प्रहसन गुदगुदाता नहीं, डंक मारता है।
जेम्स प्रथम के शासनकाल में समाज में बढ़ती हुई अस्थिरता और निराशा तथा दरबार में बढ़ती हुई कृत्रिमता ने नाटक को प्रभावित किया। शेक्सपियर के परवर्ती वेब्स्टर, टर्नर, मिडिलटन, मास्टर्न चैपमैन, मैसिंजर और फोर्ड के दुःखांत नाटकों में व्यक्तिवाद अस्वाभाविक महत्वाकांक्षाओं, भयंकर रक्तपात और क्रूरता, आत्मपीड़ा और निराशा में प्रकट हुआ। वेब्स्टर के शब्दों में, इनका केंद्रीय दर्शन ' फूल के पौधों के मूल में नरमुंड' की अनिवार्यता है।
कॉमेडी में मिडिलटन (1580-1627) और मैंसिंजर (1583-1639) जॉन्सन की परंपरा में थे, लेकिन उनमें स्थूल प्रहसन और अश्लीलता की भी वृद्धि हुई। जॉन पलेचर (1579-1625) और फ्रांसिस बोमांट (1584/5 - 1616) में कॉमेडी का पतन स्वस्थ रोमांस या प्रहसन की जगह दुःखपूर्ण घटनाओं, नायक-नायिकाओं के काल्पनिक जीवन, अत्यधिक अलंकृत और रूढ़िप्रिय भाषा तथा अस्वाभाविक घटनाओं के रूप में दीख पड़ा। दरबार की प्रेरणा से ही इसी युग में मास्क का भी जन्म हुआ जिसमें भव्य दृश्यों और साजसज्जा तथा संगीत की प्रधानता थी। इसी समय भावी विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पारिवारिक समस्यामूलक दुःखांत नाटकों में सबसे प्रसिद्ध फ़ आर्डेन ऑव फीवरशैमफ़ (1592) है, जो लिखा पहले गया था पर प्रकाशित पीछे हुआ।
इस तरह दरबार के प्रभाव में नाटक जनता से दूर हो रहा था। वास्तव में बोमांट और फ्लेचर की ट्रैजी-कॉमेडी का अभिनय फ़ प्राइवेटफ़ रंगशालाओं में मुख्यतः अभिजातवर्गीय सामाजिकों के सामने होता था। अगर नाटक का जनता से जीवित संबंध था तो जॉन्सन की शिष्य परंपरा के नाटकों के द्वारा या शेक्सपियर के परवर्ती दुःखांत नाटकों के द्वारा, जिनका अभिनय फ़ पब्लिकफ़ रंगशालाओं में होता था।
अंग्रेजी नाटक के विकास की शृंखला सहसा 1642 में टूट गई जब कामनवेल्थ युग में प्यूरिटन संप्रदाय के दबाव से सारी रंगशालाएँ बंद की दी गईं। उसका पुनर्जन्म 1660 में चार्ल्स द्वितीय के पुनर्राज्यारोहण के साथ हुआ।
पुनर्राज्यारोहण काल- फ्रांस में लुई चतुर्दश के दरबार में शरणार्थी की तरह रह चुके चार्ल्स द्वितीय के लिए संस्कृति का आदर्श फ्रांस का दरबार था। उसके साथ यह आदर्श भी इंग्लैंड आया। फ्रेंच रीतिकार और नाटककार अंग्रेजी नाटककारों के आदर्श बने। चार्ल्स के लौटने पर डÜरी लेन और डॉर्सेट गार्डेन की रंगशालाओं की स्थापना हुई। रंगशालाओं पर स्वयं चार्ल्स और ड्यूक ऑव यॉर्क का नियंत्रण था। इन रंगशालाओं के सामाजिक मुख्यतः दरबारी, उनकी प्रेमिकाएँ, छैल-छबीले और कुछ आवारागर्द होते थे। अब नाटक बहुसंख्यकों की जगह अल्पसंख्यकों का था; इसलिए इस युग में दो तरह के नाटकों का उदय और विकास हुआ- एक, ऐसे नाटक जिनकी फ़ हिरोइकफ़ दुःखांत कथावस्तु दरबारियों की रुचि के अनुकूल फ़ प्रेमफ़ और फ़ आत्मसम्मानफ़ थी; दूसरे, ऐसे प्रहसन जिनमें चरित्रहीन किंतु कुशाग्रबुद्धि व्यक्तियों के सामाजिक व्यवहारों का चित्रण होता था (कॉमेडी ऑव मैनर्स)। रंगशालाओं में दृश्यों, प्रकाश इत्यादि के प्रबंध के कारण कानों से ज्यादा आँखों के माध्यम से काम लिया जाने लगा, जिससे एलिज़ाबेथ युग के नाटकों की शुद्ध कविता की अनिवार्यता जाती रही। स्त्रियों ने भी रंगमंच पर आना शु डिग्री किया जिसकी वजह से कथानकों में कई-कई स्त्री पात्रों को रखना संभव हुआ।
हिरोइकफ़ ट्रैजेडी का नेतृत्व ड्राइडन (1631-1700) ने किया। ऐसे नाटकों की विशेषताएँ थीं-- असाधारण क्षमता और आदर्श वाले नायक प्रेम में असाधारण रूप से दृढ़ और अत्यंत सुंदर नायिका, प्रेम और आत्मसम्मान के बीच आंतरिक संघर्ष, शौर्य, तुकांत कविता, ऊहात्मक भाव एवं अभिव्यक्ति तथा तीव्र और सूक्ष्म अनुभूति की कमी। ड्राइडन का अनुकरण औरों ने भी किया, लेकिन उनको नगण्य सफलता मिली।
इस काल में अतुकांत छंदों में भी दुःखांत नाटक लिखे गए और उनमें हिरोइक ट्रैजेडी की अपेक्षा नाटककारों को अधिक सफलता मिली। ये भी आम तौर पर प्रेम के विषय में थे। लेकिन इनकी दुनिया एलिज़ाबेथ युग के नाटकों के भीषण अंतर्द्वंद्वों से भिन्न थी। यहाँ भी प्रधानता ऊहात्मक भावुकता की ही थी। ड्राइडन के अतिरिक्त ऐसे नाटककारों में केवल टॉमस ऑटवे ही उल्लेखनीय है।
इस युग ने नाटक के रूप को एक नई देन फ़ ऑपेराफ़ के रूप में दी, जिसमें कथोपकथन के अतिरिक्त संगीत भी रहता था।
कॉमेडी ऑव मैनर्स के विकास ने अंग्रेजी प्रहसन नाटक का पुनरुद्धार किया। इसके प्रसिद्ध लेखकों में विलियम विकर्ली (1640-1716), विलियम कांग्रीव (1670-1729), जॉर्ज इथरेज (1634-1690), जॉन व्हॉनब्रुग (1666-1746) और जॉर्ज फर्कुहार (1678-1707) हैं। इन्होंने जॉन्सन के यथार्थवादी ढंग से चार्ल्स द्वितीय के दरबारियों जैसे आमोदप्रिय, प्रमद, प्रेम के लिए अनेक दुरभिसंधियों के रचयिता, नैतिकता और सदाचार के प्रति उदासीन और साफ-सुथरी किंतु पैनी बोली वाले व्यक्तियों का नग्न चित्र तटस्थता के साथ खींचा। उपदेश या समाज सुधार उनका लक्ष्य नहीं था। इसके कारण इन लेखकों पर अश्लीलता का आरोप भी किया जाता है। इन नाटकों में जॉन्सन के चरित्रों की मानसिक विविधता के स्थान पर घटनाओं की विविधता है। इन्होंने जॉन्सन की तरह चरित्रों को अतिरंजन की शैली से एक-एक दुर्गुण का प्रतीक न बनाकर उन्हें उनके सामाजिक परिवेश में देखा। उनका सबसे बड़ा काम यह था कि उन्होंने अंग्रेजी कॉमेडी को बोमांट और फ्लेचर की कृत्रिम रोमानी भावुकता से मुक्त कर उसे सच्चे अर्थों में प्रहसन बनाया। साथ ही जॉन्सन की परंपरा भी शैडवेल और हॉवर्ड ने कायम रखी।
18वीं शताब्दी
यह शताब्दी गैरिक और श्रीमती सिडंस जैसे अभिनेता और अभिनेत्री की शताब्दी थी, लेकिन नाटक रचना की दृष्टि से इस युग में केवल दो बड़े नाटककार हुए: रिचर्ड बिं्रसले शेरिडन (1751-1816) और ऑलिवर गोल्डस्मिथ (1728-74)। इस शताब्दी की मध्यवर्गीय नैतिकता ने इस युग में भावुक (सेंटिमेंटल) कॉमेडी को जन्म दिया, जिसमें प्रहसन से अधिक जोर सदाचार पर था। पारिवारिक सुख, आदर्श प्रेम और हृदय की पवित्रता की स्थापना के लिए अक्सर मध्यवर्गीय चरित्रों को ही चुना जाता था। ऐसे नाटककारों में सबसे प्रसिद्ध सिबर, स्टील, केली और कंबरलैंड हैं। शेरिडन और गोल्डस्मिथ ने ऐसे अश्रुसिंचित सुखांत नाटकों के स्थान पर शुद्ध प्रहसन को अपना लक्ष्य बनाया। इन्होंने रोमानी तत्वों के स्थान पर ज़ॉन्सन और कांग्रीव के यथार्थवाद, व्यंग्य, चुभती हुई भाषा और चरित्र-चित्रण में अतिरंजन का अनुसरण किया। गोल्डस्मिथकृत फ़ शी स्टूप्स टु कांकरफ़ और शेरिडन कृत फ़ दि स्कूल फॉर स्कैंडलफ़ अंग्रेजी प्रहसन नाट्य की सर्वोत्तम कृतियों में गिने जाते हैं।
इस शताब्दी में कई लेखकों ने दुःखांत नाटक लिखे, लेकिन उनमें एडिसन का फ़ कैटोफ़ ही उल्लेखनीय है। पैंटोमाइम, जो एक तरह से शुद्ध भँड़ैती था और बैलड-ऑपेरा (गीति नाट्य) भी इस युग में काफी लोकप्रिय थे। गे का गीतिनाट्य फ़ दि बेगर्सफ़ ऑपेरा तो यूरोप के कई देशों में अभिनीत हुआ। एडवर्ड मूर का पारिवारिक समस्यामूलक नाटक 'गेम्सटर' ऐसे नाटकों में सबसे अच्छा है।
19वीं शताब्दी- रोमैंटिक युग का पूर्वार्ध नाटक की दृष्टि से प्रायः शून्य है। सदी, कोलरिज, बर्ड्स्वर्थ, शेली, कीट्स, बायरन, लैंडर और ब्राउनिंग ने नाटक लिखे, लेकिन अधिकतर वे केवल पढ़ने लायक हैं। शताब्दी के उत्तरार्ध में इब्सन के प्रभाव से अंग्रेजी नाटक को नई प्रेरणा मिली। पारिवारिक जीवन को लेकर रॉबर्टसन, जोन्स और पिनरो ने इब्सन की यथार्थवादी शैली के अनुकरण पर नाटक लिखे। उनमें इब्सन की प्रतिभा नहीं थी, लेकिन नाटकीयता और आधुनिक शैली के द्वारा उन्होंने आगे का मार्ग सरल कर दिया।
20वीं शताब्दी
इब्सन के प्रचार ने अंग्रेजी नाटक को नई दिशा दी। उसके नाटकों की कुछ विशेषताएँ ये थीं- समाज और व्यक्ति की साधारण समस्याएँ; पुरानी नैतिकता की आलोचना; बाहरी संघर्षों के स्थान पर आंतरिक संघर्ष; रंगमंच पर यथार्थवाद; विवरणात्मक साज-सज्जा; स्वगत का बहिष्कार; बोलचाल की भाषा से निकटता; प्रतीकवाद। इब्सन के नाटक समस्या नाटक हैं। 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक नाटककारों पर इब्सन के अतिरिक्त चेखव का भी गहरा असर पड़ा। ऐसे नाटककारों में सबसे प्रमुख शॉ और गाल्सवर्दी के अतिरिक्त ग्रैनबिल बार्कर, सेंट जॉन हैंकिन, जॉन मेसफील्ड, सेंट जॉन अर्विन, आर्नल्ड बेनेट इत्यादि हैं।
इस युग में कॉमेडी ऑव मैनर्स की परंपरा भी विकसित हुई है। 19वीं शताब्दी के अंत में ऑस्कर वाइल्ड ने इसको पुनरुज्जीवित किया था। 20वीं शताब्दी में इसके प्रमुख लेखकों में शॉ, मॉम, लांसडेल, सेंट अर्विन, मुनरो, नोएल काअर्ड, ट्रैवर्स, रैटिगन इत्यादि हैं।
समस्या नाटकों की परंपरा भा आगे बढ़ी है। उनके लेखकों में सबसे प्रसिद्ध ओफ़ कैसी के अतिरिक्त शेरिफ, मिल्न, प्रीस्टले और जॉन व्हॉन ड्रटेन हैं।
इस युग के ऐतिहासिक नाटककारों में सबसे प्रसिद्ध डिं्रकवाटर, बैक्स और जेम्स ब्रिडी हैं।
काव्य नाटकों का विकास भी अनेक लेखकों ने किया है। उनमें स्टीफेन फिलिप्स, येट्स, मेसफील्ड, डिं्रकवाटर, बाम्ली, फ्लेकर, अबरक्रुंबी, टी.एस. इलियट, ऑडेन, ईशरवुड, क्रिस्टोफर फ्राई, डंकन, स्पेंडर इत्यादि हैं।
आधुनिक अंग्रेजी नाटक में आयरलैंड के तीन प्रसिद्ध नाटककारों, येट्स, लेडी ग्रेगरी और सिंज की बहुत बड़ी देन है। यथार्थवादी शैली के युग में उन्होंने नाटक में रोमानी और गीतिमय कल्पना तथा अनुभूति को कायम रखा।
इस प्रकार स्पष्ट है कि 20वीं शताब्दी में अंग्रेजी नाटक का बहुमुखी विकास हुआ है। रंगमंच के विकास के साथ-साथ रूपों में भी अनेक परिवर्तन हुए हैं। समसामयिकता के कारण मूल्यांकन में अतिरंजन हो सकता है, लेकिन जिस युग में शॉ, गार्ल्सवर्दी, ओ कैसी, येट्स, इलियट और सिंज जैसे नाटककार हुए हैं उसकी उपलब्धियों का स्थायी महत्त्व है।