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हनुमानसिंह बुडानिया

हनुमानसिंह बुडानिया राजस्थान के चूरु जिले के एक गांव दूदवा खारा के निवासी थे। आपने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था।



जाट जन सेवक रियासती भारत के जाट जन सेवक (1949) पुस्तक में ठाकुर देशराज द्वारा चौधरी हनुमानसिंह बुड़ानिया का विवरण पृष्ठ 139-140 पर प्रकाशित किया गया है।

ठाकुर देशराज[3] ने लिखा है ....चौधरी हनुमान सिंह - [पृ.139]: सन् 1936 के किसी महीने की बात है। बीकानेर का एक नौजवान आगरा में आकर मुझसे मिला। उन दिनों हम आगरे से 'गणेश' नाम का साप्ताहिक पत्र निकाल रहे थे। उस नौजवान के दिल में कोई दर्द था। दर्द ऐसा कि जिसकी माप-तोल मुझ से नहीं हो सकी। इस दर्द के साथ ही करो या मरो की बलवती भावना प्रज्वलित थी। उसने कहा राजस्थान के तमाम जाट आपकी और निगाह लगाए बैठे हैं। बीकानेर में जिस तरह का अपमानित जीवन हमें बताना पड़ रहा है वह असह्य है। आप हमें बताइए हम क्या करें। मैंने उसे कहा "मुसीबतें दूर तभी होती है जब उनसे भी अधिक मुसीबतों को निमंत्रण दिया जाता है और उन्हें हँसते-हँसते झेला जाता है।"

इसके बाद सन् 1945 से मैंने अखबार में पढ़ा दूधवाखारा के जाट खानाबदोश किए जा रहे हैं। महाराजा के कृपापात्र सेक्रेटरी और एक दुर्दांत जागीरदार के खिलाफ खड़े होने वाला वही नौजवान चौधरी हनुमान सिंह था। जो सन 1936 में मुझसे मिलने आगरा आया था। 9 वर्ष पहले की हनुमान सिंह की बातें याद आ गई। अब मेरे हाथ में "किसान" अखबार था। "किसान" में जो कुछ हो सका और मुझसे जितना बन सका हनुमान सिंह के लिए किया है। चौधरी हनुमान सिंह से तभी से मुझे स्वाभाविक प्रेम है और मैं उन्हें बीकानेर के जाटों के लिए हनुमान और भीम के रूप में आया एक पुरुष मानता हूं।

चौधरी हनुमान सिंह की तो एक स्वतंत्र जीवनी लिखी

[पृ.140]: जानी चाहिए। इस लेख में तो उनका संक्षिप्त परिचय मात्र है।

तहसील चुरू के दूधवाखारा गांव में बुड़ानिया गोत के भरमर चौधरी उदाराम जी के घर आज से 36-37 वर्ष पहले चौधरी हनुमान सिंह का जन्म हुआ। आप पांच भाई हैं - 1. बेगाराम, 2. सरदाना राम, 3. पेमाराम, 4.गणपत राम और 5. हनुमान सिंह

बीकानेर के राठौड़ी शासन ने आपके परिवार को, न केवल आपको, ठीक वैसा ही दरदर का भिखारी बनाने की कोशिश की जैसा कि अकबर की बादशाह ने राणा प्रताप के लिए की थी। मुझे खूब मालूम है कि जब हम (जाट महासभा का डेपुटेशन) बीकानेर के प्रधानमंत्री सरदार पन्निकर से मिले तो उस समय के खत्री आईजीपी ने यह खुले तौर पर कहा था कि अगर हनुमान सिंह और उसके आदमियों को छोड़ा जाता है तो मैं इस्तीफा दे दूंगा। इस पर मैंने आईजीपी को यह कहकर डांटा था कि तुम महाराजा सादुल सिंह के सेवक नहीं दुश्मन हो क्योंकि तुम चाहते हो कि यहां झगड़ा किसी सूरत में शांत ना हो। खैर हनुमानसिंह आज भी जिंदा है और उसकी धाक सारे सरकारी वर्ग पर है। यह कहना पड़ेगा कि उनका परिवार शहीदों का परिवार है।

जीवन परिचय हनुमान सिंह बुड़ानिया का जन्म सन् 1900 में ग्राम दूधवा खारा में चौधरी उदाराम के घर हुआ। बीकानेर रियासत में जाटों को पढ़ने की अनुमति नहीं होने के कारण अपनी बहन के ससुराल पंजाब में ग्राम बालसमंद (वर्तमान हरयाणा के हिसार जिले में) में पढ़ाई की। बाद में आपने लाहोर से पढ़ाई की और 'विशारद' परिक्षा पास की। शिक्षा प्राप्ति के बाद बीकानेर महाराज गंगा सिंह की सेवा में थानेदार के पद पर रहे। सन् 1932 में बीकानेर षडयंत्र केश के समय आपने सर्वश्री सत्यनारायन सर्राफ, स्वामी गोपालदास और पंडित दानमल बहड़ जैसे राजद्रोहियों के प्रति श्रद्धा एवं हमदर्दी दिखाते हुये अपनी पोजीशन का पूर्ण उपयोग किया और इन देशभक्तों को सेवा और सुविधाएं मुहैया कराने में किसी प्रकार की कसर नहीं रखी। महाराजा को जब यह पता चला तो इनको चेतावनी दी गई।

हनुमान सिंह बुड़ानिया का जीवन-वृत कुर्बानियों और कष्ट-सहिष्णुता की एक जीवंत कथा है। जागीरी अत्याचारों और राजशाही निरंकुशता से दुखी होकर सन् 1942 में रियासती सेवा से अवकाश ले लिया। देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम के लिए समर्पित हो कर आप प्रजा परिषद में शामिल हो गए। आपने गाँव-गाँव ढाणी-ढाणी जाकर जागृति का संदेश पहुंचाया और प्रजा परिषद के सदस्य बनाने में सारी ताकत झोंकदी। दूधवा खारा के जागीरदार सूरजमालसिंह का उन दिनों रियासत में मेजर का रैंक था तथा राज्य के जनरल सेक्रेटरी के पद पर भी कार्यरत थे। कस्तूरबा फंड के संग्रह को रियासत ने अपमान माना । रियासत के पुलिस महा निरीक्षक उप महा निरीक्षक, नाज़िम (SDM), तहसीलदार सहित 500 सिपाही दूधवा खारा में आ धमके। झूठी बकाया की वसूली के नाम पर आदेश दिया कि एक-एक आदमी को उनके घर और खेतों से बेदखल कर दिया जाए और वह संपत्ति दूसरे खरीददार को दे दी जावे जो लेना चाहे। जागीरदार का अत्याचार पराकाष्ठा की सीमा तक पहुँच गया और देखते ही देखते दूधवा खारा के क्रांतिकारी किसानों को अपनी संपत्ति से बेदखल कर दिया गया। इस तरह सम्पन्न काश्तकार भी बेघर और संपत्ति हीन हो गए। इस लूट-पाट, अन्यायपूर्ण बेदखली और अत्याचार का समाचार अखबारों में छपते ही रियसती शासन तिलमिला उठा और गाँव की शांति एवं सुरक्षा के नाम पर 50 सिपाहियों का जत्था ताजिरी चौकी के रूप में हनुमान सिंह के घर के बाहर बैठा दिया। यह सारा खर्च हनुमान सिंह पर डाल दिया गया। सिपाही किसानों के घरों में छीना-झपटी करते। जवान लड़कियों और महिलाओं का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया।

इन अत्याचारों के प्रतिकार स्वरूप हनुमान सिंह ने प्रतिज्ञा की कि जब तक इन जागीरदारों के अत्याचारों को समाप्त नहीं कर दूँगा तब तक गृहस्थ आश्रम में नहीं लौटूँगा। "करूंगा या मरूँगा" का संकल्प लेकर न्याय की खोज में अपने पीड़ित और ग्रसित परिवारों का काफिला लेकर चल पड़े और बीकानेर पहुंचे। महारानी ने होम मिनिस्टर के पास भेज दिया। जिसने काफिले को गिरफ्तार कर लिया और पुलिस लाईन भेज दिया। रात्री 2 बजे हनुमान सिंह को होम मिनिस्टर के पास लाया गया। आदेश दिया गया कि माफी मांगकर घर जाओ नहीं तो तुम्हारा नामोनिशान मिटा दिया जवेगा। तुम्हारी दुल्हन को सिपाही उड़ाकर ले जाएंगे। हनुमान सिंह के माफी मांगने से मना करने पर कोटरी में बंद कर दिया गया। न्याय के लिए वे महाराजा के आबू प्रवास के समय भी उनके पास गये लेकिन बेंत खाकर वापस दूधवा खारा लौटना पड़ा। बाद में बीकानेर से राजा का बुलावा आया, वापस बीकानेर पहुँचते ही उनको गिरफ्तार कर लिया गया और राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। 50 दिन तक हनुमान सिंह लगातार अनसन पर रहे। उनको 5 वर्ष के कारावास की सजा दी गई। महाराजा ने स्ट्रेचर पर महल में बुलाया और कहा कि नेहरू-गांधी को तार दे दो कि बीकानेर राजा अच्छा आदमी है। हनुमान सिंह ने मना कर दिया। राजा को लगा कि यह जेल में मर जाएगा तो तूफान खड़ा हो जाएगा। हनुमान सिंह को जेल से छोड़कर मेडिकल अफसर के पास प्राण रक्षा के लिए सौंप दिया। राजा ने आंदोलन छोड़ने के एवज में एक सौ मुरब्बे देने का प्रस्ताव दिया परन्तु हनुमान सिंह ने नहीं माना।

उन्हीं दिनों उदयपुर में देशी राज्य प्रजा परिषद का अधिवेशन पंडित नेहरू की अध्यक्षता में हो रहा था। तब आप जाकर उनसे मिले तो नेहरू जी ने आपको गले लगाया। महाराजा ने आपको फिर से बुलाया तो आपने तार भेजकर मना कर दिया। इस पर राजा ने बौखला कर आपको कैद कर लिया। हनुमान सिंह की समस्त अचल संपत्ति नीलाम कर दी गई। दुधारू पशु भूख से मर गए। हनुमान सिंह की 90 वर्षीय वृद्धा माता, 4 भाईयों और 4 भाभियों को 2-2 साल की सजा देकर जेल भेज दिया। उनकी दोनों पत्नियों को देश निकाला दे दिया। हनुमान सिंह को अनूपगढ़ के बुर्ज में कैद रखा गया, जहां सांप छोड़े जाते थे। हनुमान सिंह को 65 दिन की भूख हड़ताल के अंत में 15 अगस्त 1947 को आधी रात जेल से छोड़ा गया।

हनुमान सिंह का परिवार: हनुमान सिंह के पिता उदाराम के 4 पुत्र हुये - 1. बेगा राम, 2. गनपत राम, 3. पेमा राम, 4. हनुमान सिंह

हनुमान सिंह की दो शादियाँ हुई थी। पहली पत्नी लक्ष्मी के 2 पुत्र और 2 पुत्री हुये - 1. सुरेन्द्र, 2. रणवीर, 3. तारावती 4.चंद्रप्रभा

पहली पत्नी लक्ष्मी का निधन हो गया तो दूसरी शादी सुगनी के साथ की। सुगनी से 7 लड़के और 7 लड़कियां पैदा हुये। इनके नाम हैं - 1. यशपाल: वकील, 2. देवेंद्र कुमार: सेवा निवृत अध्यापक, 3. उषा:सेवा निवृत प्रिंसिपल, 4. सारदा: एमए, फगेडिया में ब्याही है पुत्री स्वेता आरएएस है, 5. विद्याधरी: बीए गोयनका स्कूल में मास्टर, 6. अरुण कुमार बीए,बीएसटीसी अध्यापक, 7. इंदुबाला: एमए राजनीति शास्त्र, पूनिया परिवार में शादी, 8. अनुसूईया: नर्सिंग रायसिंहनगर, 9. अरविंद बुड़ानिया: बीएसटीसी, घर पर हैं। 10,......14.

हनुमान सिंह किसान वर्ग के बच्चों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे देखना चाहते थे। इन्होने अपने 7 बच्चों और 7 बच्चियों को उच्च शिक्षा दिलाई। इनका दौहित्र अजय भादू गुजरात कैडर में आईएएस है। एक दौहीती श्वेता एडीएम कोटा है। इनके बड़े भाई बेगा राम फील्ड वर्कर थे और आंदोलन की कमान इनके द्वारा ही संभाली जाती थी। बेगाराम जी के कोई लड़का नहीं था। इनके 2 लड़कियां थी जिनका देहांत ताशकंद समझौते के समय हो गया।

हनुमान सिंह बुड़ानिया का स्वर्गवास 26 मार्च 1993 को दूधवा खारा में हुआ। राजकीय सम्मान के साथ इनका दाह संस्कार किया गया।

संदर्भ: चुरू दर्शन, उद्देश्य II एवं हनुमान सिंह बुड़ानिया के पुत्र वकील यशपाल सिंह बुड़ानिया द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के आधार पर लक्ष्मण महला चुरू द्वारा संकलित कर उपलब्ध कराया गया है।

दूधवाखारा आंदोलन (1943-1946) गणेश बेरवाल[4] ने लिखा है ... [p.55]: दूधवाखारा में जमीन तथा कुंड जब्त करना, जमीन से बेदखल करना, हनुमान बुड़ानिया तथा उसके खानदान को बार-बार जेलों में डालना जैसी घटनाएँ हुई। ठाकुर सूरजमालसिंह गाँव से बुड़ानियों को निकालना चाहता था। ठाकुर के ऊपर महाराज सारदूल सिंह का वरदहस्त था। सूरजमाल सिंह महाराज सारदूल सिंह के ए. डी. सी. थे, इसलिए सूरजमाल सिंह पूरे घमंड में थे।

ठाकुरों के जुल्मों से तंग आकार सन् 1944 में 25 किसानों का एक जत्था टमकोर के आर्य समाज जलसे में आया जिसके सरगना चौधरी हनुमान सिंह बुड़ानिया एवं नरसा राम कसवा थे। मोहर सिंह और जीवन राम भी इस जलसे में आए थे। जीवन राम ने दूधवाखारा के लोगों को समझाया कि संघर्ष में सब साथ मिलकर रहें। राजगढ़ तहसील वाले भी आपका साथ देंगे।

महाराज सारदूल सिंह ने सूरजमाल सिंह की मदद के लिए त्रिलोक सिंह जज को भेजा। और आदेश दिया कि तुम जाकर किसानों को बेदखल कर दो। इसके बाद दूधवाखारा में कुंड व जमीन कुर्क कर ली गई, परंतु किसानों ने गाँव नहीं छोड़ा और गाँव में ही जमे रहे। हनुमान सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। हनुमान सिंह ने भूख हड़ताल शुरू कर दी तो उनको छोड़ दिया गया। गर्मियों के दिनों में महाराज से

[p.56]: मिलने दूधवाखारा के किसानों का जत्था गया। उन्होने कहा, “राजन हमारे ऊपर जुल्म बंद करवादो।“ राजा ने उनकी बात न मानी बल्कि उन्हें फटकार दिया। वापिस आते समय रतनगढ़ स्टेशन पर हनुमान सिंह को गिरफ्तार करलिया। कुछ दिनों बाद रिहा भी कर दिया गया। वर्ष 1944 से 1946 तक इसी प्रकार गिरफ्तारियाँ होती रही।

8 अप्रेल 1946 को बीकानेर शहर में राजगढ़ के किसानों का काफी बड़ा जुलूस निकला जो की दूधवाखारा के किसानों के हिमायत के लिए निकाला गया था। लोगों को गिरफ्तार किया गया परंतु कुछ दूर लेजाकर छोड़ दिया गया।

10 अप्रेल 1946 को शीतला मंदिर चौक राजगढ़ में किसानों का बड़ा जुलूस निकला। इसमें पुलिस की तरफ से भयंकर लाठी चार्ज हुआ जिससे काफी किसान घायल हुये। इस लाठी चार्ज की खबर बहुत से अखबारों ने निकाली। 12 अप्रेल 1946 के हिंदुस्तान में राजगढ़ के लाठी चार्ज की खबर छपी। इसके बाद जलसों का एक नया दौर आया।

दूधवाखारा सम्मेलन – 1946 में यह सम्मेलन हुआ, जिसमें 10 हजार के करीब आदमी थे। जिसमें रघुबर दयाल गोयल, मधाराम वैद्य, चौधरी हरीश चन्द्र वकील (गंगानगर), सरदार हरी सिंह (गंगानगर), चौधरी हरदत्त सिंह बेनीवाल (भादरा) और चौधरी घासी राम (शेखावाटी) शामिल थे। इस जलसे में मोहर सिंह भी सम्मिलित हुये थे। इस जलसे को चारों तरफ भारी समर्थन मिला। राजा को आखिर किसानों की अधिकतर मांगे माननी पड़ी।

तारावती भादू की अनुभूतियाँ

तारावती भादू तारावती भादू का जन्म 10 मई 1938 को वरिष्ठ स्वतन्त्रता सेनानी श्री हनुमान सिंह बुड़ानिया के घर श्रीमती लक्ष्मी देवी की कोख से गाँव दूधवा-खारा जिला चुरू में हुआ।

माटी की महक (तारावती भादू: व्यक्तित्व एवं कृतित्व) पुस्तक के पृष्ठ 31-38 पर "मेरी अनुभूतियाँ" अध्याय के अंतर्गत तारावती जी ने स्वयं के जीवन संस्मरण दिये हैं जो यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं:

शादी से पूर्व अपने पिता के घर पर 14 वर्ष की उम्र तक खेजड़ी छांगी थी। लूंग की पतियाँ चारे के रूप में ऊंटों व बकरियों को खिलाते थे। पैदावार में केवल बाजरा, ग्वार की कुछ बोरियां, यदि बरसात होती तो, हो जाती थी अन्यथा अकाल। यह बात चुरू जिले की है जहां खेती मानसून का खेल होती है। (पृ.34)

अपनी पढ़ाई का खर्च, पेंसिल, साँठी, कापियाँ, कागज, स्लेट, तख्ती का खर्चा गाय भैंस चराकर, घास खोद कर, घास काटकर, भरोटी लाकर चलाना पड़ता था। पिताजी पुलिस में मुनसी थे और राष्ट्रीयता के भावों और देश-भक्ति से ओत-प्रोत होकर 1942 में नौकरी छोड़ चुके थे। तब मैं 5 वर्ष की थी। छोटी बहन 3 वर्ष की, एक भाई जो हम तीन बहनों में सबसे बड़े थे, उस समय 8 वर्ष के थे श्री रणवीर सिंह एडवोकेट। गाँव के जागीरदार ठाकुर सूरजमाल सिंह के अन्याय के विरुद्ध मेरे युवा पिता चौधरी हनुमान सिंह ने पुलिस की नौकरी छोड़ दी। दो जून की रोटी के लाले पद गए, तीस पर भी आजादी का जुनून सिर पर सवार था। आए दिन फिरंगियों की पुलिस घर पर हम सबको परेशान करती थी। एक भैंस थी जिसका दूध वे ले जाते थे। हम बच्चे, औरतें (मेरी माँ, दादी, चाची-ताई) उन फिरंगी पुलिस वालों की हरकतों, गालियों का शिकार रहती। हमें पिताजी के घर आने पर केवल यह सिखाया जाता था बोला करो, नारे लगाया करो-"जागीरदारी प्रथा का नाश हो, "जयहिंद", "भारत माता की जय" । आजादी के तराने शिखाए जाते थे यथा 'एक चवन्नी तेल में, गांधी बाबो जेल में' 'ए नौजवानों, हाँ भाई हाँ, एक काम करोगे। क्यों भाई क्यों ? एक चीज मिलेगी। क्या भाई क्या? आजादी। वाह भाई वाह।' (पृ.34)

ये सुनकर पुलिसवाले दौड़े आते, कोई बच्चा मिल जाता तो बेंत से मारते। हम बच्चों को यह सिखा दिया था कि तुम छोटे पत्थर इकट्ठे करके रखा करो, सिपाहियों को मारा करो। एक बार हम सबने मिलकर बीकानेर में मौन जुलूस निकाला। तब सिपाही हमारे पीछे चल दिये। मेरी माँ ने तिरंगा झण्डा छुपा रखा था। बीकानेर कोटगेट दरवाजे पर पहुँचते ही झण्डा लहरा दिया और हाथ ऊंचा करके बोले - 'जयहिंद, भारत माता की जय'। बस फिर क्या था? पुलिस हम सबको एक कैंटर में भरकर जेल ले गई। हम बच्चे, बूढ़े, जवान, औरतें सब जेल में भूखे प्यासे ही रहे। उधर पिताजी अनूपगढ़ किले में कैद थे। उन्होने आजीवन भूख हड़ताल करदी थी। बिना पानी रोटी साढ़े तीन फुट लंबी काल कोटरी में बंद थे। यह 65 दिन तक चली। असीम यातनायें दी जा रही थी। अपराध यह था कि राजा की आज्ञा की अवहेलना की। आज्ञा थी कि गाँव दूधवा खारा छोड़ दो, जागीरदार सुरजमल सिंह का विरोध मत करो। तत्कालीन राजा ने कहा कि एक हजार मुरबा जमीन दे दूँगा, गाँव छोड़ दो। किन्तु स्वाभिमानी देशभक्त कब मानने वाला था। पिताजी को कठोर यातनायें दी जाने लगी। 65 दिन पश्चात 35 किलो वजन शेष बचा था। तब जवाहर लाल नेहरू ने राजा शार्दूल सिंह को यह कहकर मेरे पिताजी को रिहा कराया था कि हनुमान सिंह अगर जेल में मर गया तो खूनी क्रांति हो जाएगी। (पृ.35)

इन विकट परिस्थितियों में नहाना तो क्या महीनों बाल धोना भी हमारे लिए मुश्किल होता था। एक तो उम्र में छोटी थी दोनों बहन, दूसरा न साबुन होती थी न तेल। कभी-कभी मेट या खट्टी छाछ से अपने बाल धोती थी। छान-छप्पर के स्कूल में हम बच्चे पढ़ते, न दूध, न सब्जी, न घी न छाछ। कुपोषण की शिकार (पृ.35)

विधानसभा अध्यक्ष सुमित्रा सिंह ने मुझसे एक बार पूछा था ताराजी, आपने अपना स्वस्थ्य खो दिया मैं तो आपसे 4 वर्ष बड़ी हूँ किन्तु स्वस्थ हूँ। कारण बताओ! पढ़ी लिखी सेवानिवृत जिला शिक्षा अधिकारी का उत्तर था - विस्तार से तो दीदी कभी फिर बताऊँगी, अभी तो केवल इतना बता रही हूँ कि मैं किस बीमारी से त्रस्त हूँ। मेरा रुँधे गले से उत्तर था- पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक परिवेश से जो संघर्ष करना पड़ा उसी कुपोषण का शिकार हूँ। ऐसे में क्या पढ़ाई? कैसी शिक्षा? कैसा स्वस्थ्य होना चाहिए, आप अनुमान लगा सकते हैं;यह कटु सत्य है। (पृ.36)

सम्मान शेरे बीकानेर चौधरी हनुमान सिंह बुडानिया दूधवा खारा के वरिष्ठ स्वतन्त्रता सेनानी हैं। आपने दूधवा खारा के जागीरदार जगमाल सिंह के जुल्मों का डटकर मुकाबला किया। आपकी जायदाद आदि सभी ठाकुर ने लेली तथा आपको कारावास में डाल दिया। आपने 5 वर्ष जेल की सजा काटी। सरकार द्वारा इनके स्वतन्त्रता आन्दोलन में योगदान के एवज में दी गयी 2500 बीघा नहरी जमीन ठुकरा दी। इन्हें पूर्व प्रधान मंत्री स्व. इंदिरा गाँधी एवं राष्ट्रपति वी.वी. गिरी द्वारा स्वतंत्रता की 25 वीं रजत जयंती पर लाल किले के दीवाने हाल में ताम्र-पत्र भेंट कर सम्मानित किया गया। उनकी पत्नी श्रीमति सुगनी देवी को 80 हजार रूपये प्रतिमाह पेंशन मिलती है।