सामग्री पर जाएँ

हंस मोर्गेंथाऊ

हंस मोर्गेंथाऊ
चित्र:Hans Morgenthau.jpg
1963 में मोर्गेंथाऊ
जन्म 17 फ़रवरी 1904
कोबर्ग, जर्मनी
मौत जुलाई 19, 1980(1980-07-19) (उम्र 76)
न्यूयॉर्क

हंस मोर्गेंथाऊ (17 फ़रवरी 1904 - 19 जुलाई 1980) बीसवीं सदी के अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में अग्रणी विद्वानों में से एक थे। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत और अंतरराष्ट्रीय कानून के अध्ययन में ऐतिहासिक योगदान दिया और उनकी पुस्तक राष्ट्रों के बीच राजनीति (Politics Among Nations), 1948 में पहली बार प्रकाशित हुई एवं इसके कई संस्करण छपे, कई दशकों से यह अमेरिकी विश्वविद्यालयों में अपने क्षेत्र में सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली पाठ्यपुस्तक थी।

मार्गेंथाऊ शिकागो विश्वविद्यालय (अमेरिका) के राजनीति विज्ञान विभाग में प्राचार्य थे। वे इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी के सदस्य, वाशिंगटन सेंटर ऑफ फॉरेन पॉलिसी रिसर्च के सहयोगी तथा अनेक विश्वविद्यालयों में अतिथि प्रोफेसर रह चुके थे। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की यथार्थवादी विचारधारा के वे प्रतिनिधि प्रवक्ता हैं। वे वर्षों तक वे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रधान सिद्धांतकारों में अग्रणी रहे हैं।

मार्गेंथाऊ के यथार्थवाद के छः सिद्धान्त

मार्गेंथाऊ ने राजनीतिक यथार्थवाद के छः सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं जो निम्नलिखित हैं:

(1) राजनीति पर प्रभाव डालने वाले सभी नियमों की जड़ मानव प्रकृति में होती है : राजनीतिक यथार्थवाद का विश्वास है कि सामान्यतः समाज की भांति राजनीति भी उन यथार्थवादी अथवा वस्तुपरक नियमों से अनुशासित होती है, जो मानव प्रकृति में निहित हैं। राजनीति पर प्रभाव डालने वाले सभी नियमों की जड़ मानव प्रकृति में होती है। मनुष्य जिन नियमों के अनुसार संसार में क्रियाकलाप करता है, वह सार्वभौमिक हैं और ये नियम हमारी नैतिक मान्यताओं से हमेशा अछूते रहते हैं। अतः समाज अथवा राजनीति का स्तर ऊंचा करने के लिए इन वस्तुनिष्ठ नियमों का ज्ञान आवश्यक है और इनकी उपेक्षा से केवल असफलता ही हाथ लगेगी।

चूंकि यथार्थवाद राजनीति के वस्तुनिष्ठ सिद्धांतों के अस्तित्व को स्वीकार करता है, अतः मार्गेंथाऊ की मान्यता है कि इन सिद्धांतों के आधार पर किसी सिद्धान्त का निर्माण संभव है। यथार्थवाद की यह भी मान्यता है कि राजनीति में सत्य एवं मत (opinion) में भेद करना सम्भव है। सत्य वस्तुनिष्ठ विवेकपूर्ण, साक्ष्य और तर्कसंगत होता है, जबकि मत व्यक्तिनिष्ठ, तथ्यों से निरपेक्ष पूर्वाग्रहों पर आधारित होता है।

(2) राष्ट्रीय हितों को शक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है : यथार्थवादी राजनीतिक सिद्धांत का दूसरा तत्व है राष्ट्रीय हित की प्रधानता। शक्ति के रूप में परिभाषित हित की अवधारणा अर्थात् ‘राष्ट्रीय हितों की सिद्धि के लिए शक्ति का प्रयोग’ एक ऐसा विचार है जिसके द्वारा अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक तथ्य और उन्हें समझने वाले विवेक के मध्य संबंध स्थापित किया जा सकता है। हित का केंद्र बिंदु सुरक्षा है और हितों की सुरक्षा के लिए शक्ति अर्जित की जाती है। राजनीति का मुख्य उद्देश्य हितों का संवर्धन है और इसलिए हम राजनीति को भी शक्ति से प्रथक् करके नहीं समझ सकते। इसी आधार पर हम राजनीति को एक स्वतंत्र विषय मानकर उसका अध्ययन कर सकते हैं। यथार्थवाद राजनीति को एक स्वतंत्र विषय का क्षेत्र मानता है, जो मानव जीवन के अन्य क्षेत्रों जैसे अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, धर्म आदि से भिन्न है।

(3) राष्ट्रीय हित का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता है : मार्गेंथाऊ राष्ट्रीय हित का कोई निश्चित अर्थ मानकर नहीं चलते। राष्ट्रीय हित का विचार वस्तुतः राजनीति का गूढ़ तत्व है, जिस पर परिस्थितियों, स्थान और समय का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फिर भी इतिहास के एक विशिष्ट काल में राजनीतिक कृत्य को निश्चयात्मक रूप देने वाला राष्ट्रीय हित, उन राजनीतिक व सांस्कृतिक प्रकरणों पर आश्रित रहता है, जिनके मध्य विदेश नीति का निर्माण होता है। मार्गेंथाऊ का विचार है कि राजनीतिक व सांस्कृतिक वातावरण राजनीतिक क्रियाओं में जान डालने वाले हितों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अतः शक्ति का विचार भी बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है।

इस प्रकार मार्गेंथाऊ का विचार है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मूल तत्व स्थायी हैं। किंतु परिस्थितियां थोड़ी बहुत बदलती रहती हैं, अतः किसी सफल राजनीतिज्ञ के लिए आवश्यक है कि वह इन मूल तत्वों को बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार ढालने का प्रयास करता रहे।

(4) विवेक राजनीति का उच्चतम मूल्य : यथार्थवाद के अनुसार सार्वभौमिक नैतिकता के आधार पर राष्ट्रों का क्रिया-कलाप संभव नहीं है। यथार्थवाद के अनुसार राष्ट्रों को नैतिक सिद्धांतों का पालन विवेक और संभावित परिणामों के आधार पर ही करना चाहिए। व्यक्ति अपने लिए कह सकता है कि न्याय किया जाना चाहिए चाहे विश्व नष्ट हो जाए, परंतु राज्य के संरक्षण में रहने वाले लोगों को राज्य से ऐसा कहने का कोई अधिकार नहीं है। कोई भी राज्य नैतिकता की दुहाई के आधार पर अपनी सुरक्षा को खतरे में नहीं डाल सकता।

(5) राष्ट्र के नैतिकता और सार्वभौमिक नैतिकता में अंतर : राजनीतिक यथार्थवाद किसी राष्ट्र के नैतिक मूल्यों को सार्वभौमिक नैतिक मूल्यों से अलग मानता है। यथार्थवादी दर्शन प्रत्येक राज्य को एक ऐसे राजनीतिक कर्ता के रूप में देखता है, जो हमेशा शक्ति के माध्यम से अपने हितों की सिद्धि के कार्य में जुटा रहता है। यदि हम इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि प्रत्येक राष्ट्र शक्ति का विकास अपने हितों की पूर्ति के लिए करता है, तो यह मान्यता हमें एकांगी नैतिक आदर्शों की दुहाई की अनिवार्यता से और इसी प्रकार राजनीतिक भूलों के दुष्परिणामों से बचा सकती है। प्रत्येक राष्ट्र के यह जानने से कि उसकी ही भांति दूसरे राष्ट्र भी अपने राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि में लगे हुए हैं, तो इससे अधिक संतुलित और यथार्थवादी नीतियों का विकास हो सकेगा।

(6) राजनीतिक क्षेत्र की स्वायत्तता : राजनीतिक यथार्थवाद का अंतिम नियम यह है कि वह राजनीतिक क्षेत्र की स्वायत्तता में विश्वास करता है। राजनीतिक क्षेत्र उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि आर्थिक अथवा कानून के क्षेत्र को माना जाता है। राजनीतिक यथार्थवाद गैर-राजनीतिक नियमों अथवा तत्वों की उपेक्षा भी नहीं करता है। पर वह उन्हें राजनीतिक नियमों के अधीन मानता है। यथार्थवाद उन सभी विचारधाराओं का विरोधी है जो राजनीतिक विषयों पर गैर-राजनीतिक नियमों को जबरदस्ती थोपने का प्रयत्न करते हैं। प्रत्येक अंतर्राष्ट्रीय समस्या का कानूनी, नैतिक और राजनीतिक पहलू होता है और राजनीतिज्ञ कानूनी और नैतिक मान्यताओं के महत्व को स्वीकार करते हुए उनका उतना ही उपयोग करते हैं, जितना उपयुक्त होता है। उक्त उदाहरण से यह तथ्य स्पष्ट होता है-

मार्गेंथाऊ के सिद्धाnत की आलोचना

मार्गेंथाऊ के यथार्थवादी सिद्धाnत के विभिन्न आलोचकों ने तार्किक आलोचना प्रस्तुत की है। इन आलोचकों के मुख्य तर्क निम्नलिखित हैं-

(1) मार्गेंथाऊ का सिद्धांत अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के केवल एक अंग के अध्ययन के लिए ही मार्गदर्शन का कार्य करता है, और वह अंग है हित संघर्ष (conflict of interests)। वह इस बात को मानकर चलता है कि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सदैव विभिन्न राष्ट्रीय हितों में संघर्ष होता रहता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विभिन्न देश अपने राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हैं, किंतु इसके साथ ही वह सहयोग भी करते हैं। मार्गेंथाऊ ने सहयोग के इस पहलू की सर्वथा उपेक्षा की है।

(2) मार्गेंथाऊ का दावा है कि उनका सिद्धान्त मानव प्रकृति के यथार्थ स्वरूप से उद्भूत होता है। किन्तु मानव प्रकृति संबंधी उनकी धारणाएं वैज्ञानिक न होकर बहुत कुछ अनुमान पर आधारित होती हैं। वैरो वासरमैन का यह कथन ठीक ही है कि मार्गेंथाऊ का सिद्धांत निरपेक्ष एवं अप्रमाणिक आवश्यकतावादी नियमों पर आधारित है।

(3) मार्गेंथाऊ का विचार मानव प्रकृति के बारे में दोषपूर्ण तथा अवैज्ञानिक है। वह शुरू से ही कुछ ऐसे सामान्य सिद्धांतों को स्वयंसिद्ध सत्य मानकर चलता है, जिन्हें वस्तुतः उसे वैज्ञानिक रीति से सिद्ध करना चाहिए था। इसीलिए उसके सिद्धांतों में पारस्परिक विरोध भी पाया जाता है। वह यह मानकर चलता है कि सब मनुष्य और सब राज्य शक्ति की लालसा रखते हैं, उसे सदा पाने और बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। यदि ऐसा मान लिया जाए तो यह भी मानना पड़ेगा कि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सदैव कभी न समाप्त होने वाले शास्वत युद्धों का एक अविच्छिन्न क्रम चलता रहता है। शांति तभी होती है जब राष्ट्र लड़ते-लड़ते थक जाते हैं और वह इस सामान्य नियम के अपवाद के रूप में पाई जाती है। फिर भी मार्गेंथाऊ शांति को वांछनीय समझता है और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इस स्थिति को अधिक पसंद करता है। यदि यथार्थवाद के दृष्टिकोण को सही माना जाए तो संघर्ष की स्थिति ही वास्तविक है और शांति की स्थिति को वांछनीय नहीं समझना उचित नहीं है।

(4) मार्गेंथाऊ के सिद्धांत के विरुद्ध यह भी आलोचना की जाती है कि यह एक अपूर्ण सिद्धांत है। हैरल्ड स्प्राउट ने इस सिद्धांत को इसलिए अपूर्ण बताया है क्योंकि उसमें राष्ट्रीय नीतियों के लक्ष्यों (आदर्शों) की उपेक्षा की गई है। क्विंसी राइट के अनुसार यह सिद्धांत एकांकी है क्योंकि वह राष्ट्रीय नीति पर मूल्यों के प्रभाव की उपेक्षा करता है।

(5) मार्गेंथाऊ शक्ति को साध्य माना है। राज्यों के समस्त संबंध शक्ति के अधिकाधिक संचय करने के लिए होते हैं। हाॅफमैन के अनुसार सत्ता और शक्ति केवल एक माध्यम है, जिससे राज्य अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं। यह अधिक उचित होता कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धांत की व्याख्या साध्य को सम्मुख रखकर की जाती न कि साधन की अवधारणा को ही साध्य मानकर।

(6) मार्गेंथाऊ सिद्धांत रचना की उस सामान्य पद्धति को भी ग्रहण नहीं करते जिसके अनुसार सिद्धांत का निर्माण तथ्यों के अनुभवात्मक सर्वेक्षण के परिणामस्वरुप किया जाता है। वे कछ ऐसी धारणाओं को लेकर सिद्धांत बनाने का प्रयत्न करते हैं, जिन्हें देशकाल के प्रभाव से मुक्त मानते हैं। यदि वे यह कहते हैं कि मानव स्वभाव के अनुभवात्मक अध्ययन तथा राज्यों की नीतियों के व्यवहारवादी अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति और राज्य दोनों ही शक्ति लोलुप हैं, तो अधिक तार्किक होता। लेकिन उन्होंने अपने सिद्धांत को एक परिणाम के रूप में न रखकर पहले उसे एक सत्य के रूप में रखा है और बाद में उसकी पुष्टि के लिए प्रमाण जुटाने का प्रयत्न किया है।

(7) मार्गेंथाऊ का यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण है कि प्रत्येक राष्ट्र शक्ति को प्राप्त करना चाहता है। सच्चाई यह है कि शक्ति राष्ट्र का एक लक्ष हो सकता है परंतु शक्ति के साथ में वह अन्य लक्ष्यों की भी आकांक्षा रख सकता है। वह अपनी विदेश नीति का संचालन आर्थिक लाभ, विश्व शांति आदि के परिपेक्ष्य में भी कर सकता है।

(8) मार्गेंथाऊ ने शक्ति पर बहुत अधिक बल दिया है। वह सभी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की व्याख्या एक मात्र शक्ति पाने की लालसा के आधार पर ही करना चाहता है‌। अधिकांश विद्वान अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को एक ऐसी अत्यंत जटिल प्रक्रिया समझते हैं, जिसकी व्याख्या किसी एक कारण या तथ्य के आधार पर नहीं की जा सकती है। राष्ट्रीय हित को शक्ति के अतिरिक्त अन्य अनेक तत्व- शासन का स्वरूप, जनता के विश्वास और विचार, राज्य की आंतरिक स्थिति प्रभावित करते हैं। मार्गेंथाऊ ने इन सबकी उपेक्षा की है।

(9) मार्गेंथाऊ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को कभी समाप्त न होने वाले शक्ति संघर्ष के रूप में देखते हैं। यदि हम इस तथ्य को स्वीकार कर ले तो हमें अंतर्राष्ट्रीय शांति के विचार को हमेशा के लिए त्यागना पड़ेगा। फिर अंतर्राष्ट्रीय जगत में ऐसे बहुत से कार्य और संबंध हैं, जो गैर-राजनीतिक हैं और जिनका शक्ति के साथ कोई संबंध नहीं है। उदाहरण के लिए, ओलंपिक खेलों अथवा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह को राजनीतिक क्रिया नहीं माना जा सकता और इनका स्पष्टतः शक्ति के साथ कोई संबंध नहीं है।

(10) मार्गेंथाऊ का सिद्धांत मानव प्रकृति से निकाले हुए निश्चयात्मक नियमों से प्रारंभ होता है और वे उन्हें अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार पर लागू करते हैं। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार अनिश्चित है और इसे इन नियमों की परिसीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। केनेथ वाल्ट्ज के शब्दों में मार्गेंथाऊ के सिद्धांत में निश्चयात्मकता और अनिश्चयात्मकता का खींचतान कर मिलान किया गया है।

(11) मार्गेंथाऊ ने अपने विश्लेषण में कहा है कि राज्यों के कार्यों में अपनी नैतिकता (ethics) निहित रहती है, जो अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता से पृथक है। अगर इसे मान लिया जाए तो हम किसी भी राष्ट्र के कार्य को अनैतिक नहीं ठहरा सकते हैं।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

अग्रिम पठन

  • Bain, William. "Deconfusing Morgenthau: Moral Inquiry and Classical Realism Reconsidered." Review of International Studies 26, no. 3 (2000): 445-64.
  • Behr, Hartmut, and Amelia Heath. "Misreading in IR Theory and Ideology Critique: Morgenthau, Waltz and Neo-Realism." Review of International Studies 35 (2009): 327-49.
  • Bell, Duncan, ed. Political Thought and International Relations: Variations on a Realist Theme. Oxford: Oxford University Press, 2008.
  • Conces, Rory J. "Rethinking Realism (or Whatever) and the War on Terrorism in a Place Like the Balkans." Theoria 56 (2009): 81-124.
  • Cozette, Murielle. "Reclaiming the Critical Dimension of Realism: Hans J. Morgenthau on the Ethics of Scholarship." Review of International Studies 34 (2008): 5-27.
  • Craig, Campbell. Glimmer of a New Leviathan: Total War in the Realism of Niebuhr, Morgenthau, and Waltz. New York: Columbia University Press, 2003.
  • Donnelly, Jack. Realism and International Relations. Cambridge: Cambridge University Press, 2000.
  • Frei, Christoph. Hans J. Morgenthau: An Intellectual Biography. Baton Rouge: Louisiana State University Press, 2001.
  • Gellman, Peter. "Hans J. Morgenthau and the Legacy of Political Realism." Review of International Studies 14 (1988): 247-66.
  • Griffiths, Martin. Realism, Idealism and International Politics. London: Routledge, 1992.
  • Guilhot, Nicolas. "The Realist Gambit: Postwar American Political Science and the Birth of IR Theory." International Political Sociology 4, no. 2 (2008):281-304.
  • Hacke, Christian, Gottfried-Karl Kindermann, and Kai M. Schellhorn, eds. The Heritage, Challenge, and Future of Realism: In Memoriam Hans J. Morgenthau (1904–1980). Göttingen, Germany: V&R unipress, 2005.
  • Hoffmann, Stanley. "Hans Morgenthau: The Limits and Influence of 'Realism'." In Janus and Minerva. Boulder, CO.: Westview, 1987, pp. 70-81.
  • Jütersonke, Oliver. "Hans J. Morgenthau on the Limits of Justiciability in International Law." Journal of the History of International Law 8, no. 2 (2006): 181-211.
  • Klusmeyer, Douglas. "Beyond Tragedy: Hannah Arendt and Hans Morgenthau on Responsibility, Evil and Political Ethics." International Studies Review 11, no.2 (2009): 332-351.
  • Lang, Anthony F., Jr., ed. Political Theory and International Affairs: Hans J. Morgenthau on Aristotle's The Politics. Westport, CT: Praeger, 2004.
  • Lebow, Richard Ned. The Tragic Vision of Politics. Cambridge: Cambridge University Press, 2003.
  • Little, Richard. The Balance of Power in International Relations: Metaphors, Myths and Models. Cambridge: Cambridge University Press, 2007.
  • Mazur, G. O., ed. One Hundred Year Commemoration to the Life of Hans Morgenthau. New York: Semenenko, 2004.
  • Mazur, G. O., ed. Twenty-Five Year Memorial Commemoration to the Life of Hans Morgenthau. New York: Semenenko, 2006.
  • Mearsheimer, John J. "Hans Morgenthau and the Iraq War: Realism Versus Neo-Conservatism." openDemocracy.net (2005).
  • Mollov, M. Benjamin. Power and Transcendence: Hans J. Morgenthau and the Jewish Experience. Lanham, MD: Rowman and Littlefield, 2002.
  • Molloy, Sean. "Aristotle, Epicurus, Morgenthau and the Political Ethics of the Lesser Evil." Journal of International Political Theory 5 (2009): 94-112.
  • Molloy, Sean. The Hidden History of Realism: A Genealogy of Power Politics. New York: Palgrave, 2006.
  • Murray, A. J. H. "The Moral Politics of Hans Morgenthau." The Review of Politics 58, no. 1 (1996): 81-107.
  • Myers, Robert J. "Hans J. Morgenthau: On Speaking Truth to Power." Society 29, no. 2 (1992): 65-71.
  • Neacsu, Mihaela. Hans J. Morgenthau's Theory of International Relations: Disenchantment and Re-Enchantment. Basingstoke: Palgrave Macmillan, 2009.
  • Peterson, Ulrik. "Breathing Nietzsche's Air: New Reflections on Morgenthau's Concept of Power and Human Nature." Alternatives 24, no. 1 (1999): 83-113.
  • Pin-Fat, V. "The Metaphysics of the National Interest and the 'Mysticism' of the Nation-State: Reading Hans J. Morgenthau." Review of International Studies 31, no. 2 (2005): 217-36.
  • Russell, Greg. Hans J. Morgenthau and the Ethics of American Statecraft. Baton Rouge: Louisiana State University Press, 1990.
  • Scheuerman, William E. Hans Morgenthau: Realism and Beyond. Cambridge: Polity, 2009.
  • Scheuerman, William E. "Realism and the Left: The Case of Hans J. Morgenthau." Review of International Studies 34 (2008): 29-51.
  • Schuett, Robert. "Freudian Roots of Political Realism: The Importance of Sigmund Freud to Hans J. Morgenthau's Theory of International Power Politics." History of the Human Sciences 20, no. 4 (2007): 53-78.
  • Schuett, Robert. Political Realism, Freud, and Human Nature in International Relations: The Resurrection of the Realist Man. New York: Palgrave Macmillan, 2010.
  • Shilliam, Robbie. "Morgenthau in Context: German Backwardness, German Intellectuals and the Rise and Fall of a Liberal Project." European Journal of International Relations 13, no. 3 (2007): 299-327.
  • Smith, Michael J. Realist Thought from Weber to Kissinger. Baton Rouge: Louisiana State University Press, 1986.
  • Thompson, Kenneth W., and Robert J. Myers, eds. Truth and Tragedy: A Tribute to Hans J. Morgenthau. augmented ed. New Brunswick, NJ: Transaction, 1984.
  • Tickner, J. Ann. "Hans Morgenthau's Principles of Political Realism: A Feminist Reformulation." Millennium: Journal of International Studies 17, no.3 (1988): 429-40.
  • Tjalve, Vibeke Schou. Realist Strategies of Republican Peace: Niebuhr, Morgenthau, and the Politics of Patriotic Dissent. New York: Palgrave, 2008.
  • Turner, Stephen, and G. O. Mazur. "Morgenthau as a Weberian Methodologist." European Journal of International Relations 15, no. 3 (2009): 477-504.
  • Williams, Michael C., ed. Realism Reconsidered: The Legacy of Hans Morgenthau in International Relations. Oxford: Oxford University Press, 2007.
  • Williams, Michael C. The Realist Tradition and the Limits of International Relations. Cambridge: Cambridge University Press, 2005.
  • Williams, Michael C. "Why Ideas Matter in International Relations: Hans Morgenthau, Classical Realism, and the Moral Construction of Power Politics." International Organization 58 (2004): 633-65.
  • Wong, Benjamin. "Hans Morgenthau's Anti-Machiavellian Machiavellianism." Millennium: Journal of International Studies 29, no. 2 (2000): 389-409.
  • Zambernardi, Lorenzo. I limiti della potenza. Etica e politica nella teoria internazionale di Hans J. Morgenthau. Bologna: Il Mulino, 2010.