स्वामी चिन्मयानंद
स्वामी चिन्मयानन्द (8 मई 1916 - 3 अगस्त 1993) हिन्दू धर्म और संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता थे। उन्होंने सारे भारत में भ्रमण करते हुए देखा कि देश में धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हैं। उनका निवारण कर शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए उन्होंने गीता ज्ञान-यज्ञ प्रारम्भ किया और 1953 ई में चिन्मय मिशन की स्थापना की।
स्वामी जी के प्रवचन बड़े ही तर्कसंगत और प्रेरणादायी होते थे। उनको सुनने के लिए हजारों लोग आने लगे। उन्होंने सैकड़ों संन्यासी और ब्रह्मचारी प्रशिक्षित किये। हजारों स्वाध्याय मंडल स्थापित किये। बहुत से सामाजिक सेवा के कार्य प्रारम्भ किये, जैसे विद्यालय, अस्पताल आदि। स्वामी जी ने उपनिषद्, गीता और आदि शंकराचार्य के 35 से अधिक ग्रंथों पर व्याख्यायें लिखीं। गीता पर लिखा उनका भाष्य सर्वोत्तम माना जाता है।
आरम्भिक जीवन
स्वामी चिन्मयानन्द जी का जन्म 8 मई 1916 को दक्षिण भारत के केरल प्रान्त में एक संभ्रांत परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम बालकृष्ण था। उनके पिता न्याय विभाग में एक न्यायाधीश थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पाँच वर्ष की आयु में स्थानीय विद्यालय श्री राम वर्मा ब्याज स्कूल में हुई। उनकी मुख्य भाषा अंग्रेजी थी उनकी बुद्धि तीव्र थी और पढ़ने मे होशियार थे। उनकी गिनती आदर्श छात्रों मे थी।
स्कूल की पढ़ाई के बाद बालन ने महाराजा कालेज में प्रवेश लिया। वहाँ भी उनकी पढ़ाई सफलतापूर्वक चली। उस समय एक गरीब बालक शंकर नारायण उनका मित्र बना। वे कालेज में विज्ञान के छात्र थे। जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान और रसायन शास्त्र उनके विषय थे। यहाँ इण्टर पास कर लेने पर उनके पिता का स्थानान्तरण त्रिचूर के लिए हो गया यहाँ उन्होंने विज्ञान के विषय छोड़ कर कला के विषय ले लिये। इस पढ़ाई में भी उनका अधिक मन नहीं लग रहा था। पिता ने उनके लिए ट्यूशन भी लगाया, किन्तु वह भी कारगर नहीं हुआ। यद्यपि वहाँ से उन्होंने बी. ए पास कर लिया। किन्तु मद्रास विश्व विद्यालय नें उन्हें एम. ए में प्रवेश नहीं दिया। इसलिए उन्हें लखनऊ विश्व विद्यालय जाना पड़ा।
स्नातकोत्तर
लखनऊ विश्वविद्यालय में बालकृष्ण को एम. ए करने की तथा साथ ही एल. एल.बी की परीक्षा पास करने की स्वीकृति मिल गयी। वहाँ उन्होंने सन 1940 में प्रवेश लिया। अंग्रेजी साहित्य पढ़ने में उन्होंने अपनी रुचि पाई। उसी को पढ़ने में उनका अधिक समय जाता था।
लखनऊ विश्वविद्यालय की पढ़ाई समाप्त करने के बाद बालकृष्ण ने पत्रकारिता का कार्य प्रारम्भ किया। उनके लेख मि. ट्रैम्प के छद्म नाम से प्रकाशित हुए। इन लेखों मे समाज के गरीब और उपेक्षित व्यक्तियों का चित्रण था। एक तरह से ये उस समय के सरकार और धनी पुरुषों का उपहास था।
रुझान
सन् 1948 में बालकृष्ण ऋषिकेश पहुँचे। वे देखना चाहते थे कि भारत के सन्त महात्मा कितने उपयोगी अनुपयोगी है। वहाँ पहुंचने पर उन्हें स्वामी शिवानन्द की जानकारी हुई। वे दक्षिण के रहने वाले थे और उनकी भाषा अंग्रेजी थी। इस कारण बालकृष्ण उनके ही आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ वे स्वामी जी की स्वीकृति से अन्य आश्रमवासियों के साथ रहने लगे। यद्यपि वे उस समय किसी धार्मिक कृत्य में विश्वास नही रखते थे, किन्तु श्रद्धालु पुरुष की भांति आश्रमवासियों का अनुकरण करते हुए रहने लगे। वे प्रात: काल गंगा जी में स्नान करते, सायंकाल प्रार्थना में सम्मिलित होते और आश्रम के काम भी करते।
दीक्षा
इसी समय वे स्वामी शिवानन्द जी से प्रभावित हुए और उनसे संन्यास की दीक्षा ले ली। अब उनका नाम स्वामी चिन्मयानन्द हो गया। वे अपने गुरु से मार्ग - दर्शन पुस्तकालय की एक - एक पुस्तक लेकर अध्ययन करने लगे। दिन भर पढ़ने के लिए पर्याप्त समय रहता। उन दिनों आश्रम में बिजली नहीं थी। इसलिए रात के समय पढ़ने की सुविधा नही थी। स्वामी जी उस समय दिन भर पढ़े हुए विषयों का चिन्तन करते थे। कुछ दिनों बाद उनका अध्ययन गहन हो गया और वे बड़े गम्भीर चिन्तन में व्यस्त रहने लगे।
उनकी यह स्थिति देखकर स्वामी शिवानन्द जी ने उन्हें स्वामी तपोवन जी के पास उपनिषदों का अध्ययन करने के लिए भेज दिया। उन दिनों स्वामी तपोवन महाराज उत्तरकाशी में वाश करते थे। उनके पास रहकर लगभग 8 वर्ष उन्होंने वेदान्त अध्ययन किया। तपोवन जी को कोई जल्दी नहीं थी। वे एक घण्टे नित्य पढ़ाते थे। शेष समय शिष्य मनन - चिन्तन में व्यतीत करता था। यह अध्ययन बौद्धिक तो था ही, किन्तु व्यावहारिक भी था। स्वामी जी को अपनी गुरु के शिक्षा अनुसार संयमी, विरक्त और शान्त रहने का अभ्यास करना होता था। इसके परिणामस्वरूप, स्वामी जी का स्वभाव बिल्कुल बदल गया। जीवन और जगत् के प्रति उनकी धारणा बदल गई।
देहान्त
स्वामी चिन्मयानन्द जी ने अपना भौतिक शरीर 3 अगस्त 1993 ई. को अमेरिका के सेन डियागो नगर में त्याग दिया।
लोक सेवा
अध्ययन समाप्त करने के बाद स्वामी जी के मन मे लोक सेवा करने का विचार प्रबल होने लगा। तपोवन जी से स्वीकृति पाकर वे दक्षिण भारत की ओर चले और पूना पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपना प्रथम ज्ञान यज्ञ किया। यह एक प्रकार का नया प्रयोग था। प्रारम्भ में श्रोताओं की संख्या चार या छह ही था। वह धीरे धीरे बढ़ने लगी। लगभग एक महीने के ज्ञान यज्ञ के बाद वे मद्रास चले गये और वहाँ दूसरा ज्ञान यज्ञ प्रारम्भ किया। इन यज्ञों में स्वामी जी स्वयं प्रचार करते थे और स्वयं यज्ञ करते थे। कुछ समय बाद ही उनके सहायक तैयार हुए और फिर उसने एक संस्था का रूप ले लिया। धीरे - धीरे उनके प्रवचनों की माँग बढ़ने लगी। स्वामी जी ने भी ज्ञान - यज्ञ का समय एक महीने से घटाकर पंद्रह दिन या फिर और फिर दस दिन या सात दिन कर दिया।
पहले ये ज्ञान-यज्ञ भारत के बड़े शहरों में हुए, फिर छोटे शहरों में। कुछ समय बाद स्वामी जी विदेश भी जाने लगे.अब इन यज्ञों की इतनी अधिक माँग हुई कि उसे एक व्यक्ति द्वारा पूरा करना असम्भव हो गया। इसलिए स्वामी जी ने बम्बई सान्दीपनी की स्थापना की और ब्रह्मचारियों को प्रशिक्षित करना प्रारम्भ किया। दो तिन वर्ष पढ़ने के बाद ब्रह्मचारी छोटे यज्ञ करने लगे, स्वाध्याय मंडल चलाने लगे और अनेक प्रकार के सेवा कार्य करने लगे।
इस समय देश में 175 केन्द्र और विदेशों में लगभग 40 केन्द्र कार्य कर रहे है। इन केन्द्रों पर लगभग 150 स्वामी एवं ब्रह्मचारी कार्य में लगे है। यह संख्या हर वर्ष बढ़ रही है।
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- स्वामी चिन्मयानन्द एक विलक्षण व्यक्ति[मृत कड़ियाँ] (रांची एक्सप्रेस)
- Images of Swami Chinmayananda