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स्वामी कन्नू पिल्लै

दीवान बहादुर लेविस डोमिनिक स्वामी कन्नू पिळ्ळै (L.D. SWAMIKANNU PILLAI) (11 फरवरी 1865 - 10 सितंबर 1925) भारतीय राजनीतिज्ञ, इतिहासज्ञ, भाषाशास्त्री, गणितज्योतिषी एवं प्रशासक थे।

लेविस डोमिनिक स्वामी कन्नू पिळ्ळैसी०आइ०ई०, आइ०एस०ओ०


कार्यकाल
फरवरी 1925 – 10 सितंबर 1925
राज्यपाल George Goschen, 2nd Viscount Goschen
पूर्व अधिकारी पी० राजगोपालाचारी
उत्तराधिकारी वी०एस० नरसिम्हा राजू

मद्रास प्रेसिडेन्सी के मुख्य सचिव
कार्यकाल
1920 – 1925
उत्तराधिकारी जी० टी० बाॅग

जन्म 11 फ़रवरी 1865
मद्रास
मृत्यु 10 सितम्बर 1925(1925-09-10) (उम्र 60)
रोयापुरम, मद्रास
राष्ट्रीयता भारतीय
पेशा राजनीतिज्ञ, ज्योतिषी, भाषाशास्त्री, दार्शनिक
धर्म ईसाई (रोमन कैथोलिक)

जीवन परिचय

लेविस डोमिनिक स्वामी कन्नू पिळ्ळै का जन्म स्वतंत्रता-पूर्व मद्रास प्रैज़िडन्सी में 11 फरवरी 1865 ई० को हुआ था। एक गरीब ईसाई परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने ऊँची शिक्षा प्राप्त की। उनकी आरंभिक तथा उच्च शिक्षा मद्रास में ही हुई। एलएलबी की डिग्री उन्होंने लंदन से प्राप्त की।[1] उन्हें मद्रास विश्वविद्यालय का फेलो भी बनाया गया था। उन्होंने मद्रास विधान परिषद के सभापति पद को भी सुशोभित किया था। 10 सितंबर 1925 ई० को रोयापुरम में अपने घर में ही उनका निधन हुआ।

प्रकाशित पुस्तकें

  1. Panchang and Horoscope
  2. Indian Chronology (solar, Lunar and Planetary): A Practical Guide to the Interpretation and Verification of Tithis, Nakshatras, Horoscopes and Other Indian Time-records, B.C. 1 to A.D. 2000.
  3. AN INDIAN EPHEMERIS (A. D. 700 to A.D. 1999) [8 volumes].

उनकी अमर कीर्ति का आधार उनका विशाल ग्रन्थ 'AN INDIAN EPHEMERIS' है। यह ग्रन्थ यूँ तो अंग्रेजी़ में है लेकिन यह हिन्दी या अन्य भाषाओं के पाठकों के लिए भी प्रायः समान रूप से उपयोगी है, क्योंकि इसमें प्रत्येक दिन के तिथि-नक्षत्रादि का विवरण सारणी या कैलेंडर की तरह है; भाषा का प्रयोग प्रथम खंड के प्रथम जिल्द तथा द्वितीय खंड के आरंभिक कुछ पृष्ठों को छोड़कर प्रायः है ही नहीं। इस विशाल ग्रन्थ में उनका अत्यधिक प्रसिद्ध ग्रंथ 'INDIAN CHRONOLOGY' (भारतीय कालक्रम-विज्ञान) [1911] भी समाहित हो गया है। 1922 ई० में एक साथ छह खण्डों (7 जिल्दों) में प्रकाशित इस ग्रन्थ (AN INDIAN EPHEMERIS) के प्रथम खंड के प्रथम जिल्द (vol. I, part-I) के रूप में 'INDIAN CHRONOLOGY' (1911) का ही संशोधित-परिवर्धित संस्करण प्रकाशित हुआ है।[1] प्रथम खंड के द्वितीय जिल्द (vol. I, part-II) से लेकर षष्ठ खंड तक में सन् 700 ई० से लेकर 1799 ई० तक (प्रथम खंड के द्वितीय जिल्द में 100 वर्ष तथा द्वितीय से षष्ठ खण्ड तक के प्रत्येक खंड में 200-200 वर्षों के) प्रत्येक दिन की सौर तिथि, अंग्रेजी महीने के दिन एवं दिनांक, चान्द्र तिथि एवं तिथि-समाप्ति-समय-सूचना, नक्षत्र की संख्या एवं नक्षत्र-समाप्ति-समय-सूचना, तथा इस्लामी संवत् के महीने की तिथि आदि के रूप में पर्याप्त महत्त्वपूर्ण विवरण दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त विक्रम संवत्, संवत् के नाम, शक संवत्, कलियुग संवत्, कोल्लम एवं बंगाली सन्, शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष की सूचना, पूर्णिमा और अमावस्या के संकेत तथा संक्रांति की सूचना आदि विवरण भी दिये गये हैं। इस ग्रन्थ में दिये गये भारतीय महीनों (चैत्र, वैशाख आदि) के विवरण में दक्षिण भारत में प्रचलित अमान्त (अमावस्या को पूर्ण) मास का प्रयोग किया गया है।[2]

इस महाग्रन्थ में आरम्भ से 2 सितंबर 1752 ई० तक के विवरण पुराने कैलेण्डर (जूलियन) के अनुसार दिये गये हैं और उसके पश्चात् नये कैलेण्डर (ग्रेगोरियन) के अनुसार। इस सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि पोप ग्रेगरी ने 1582 ईस्वी में पुराने कैलेंडर में सुधार किया था[3] और तदनुसार तब तक की गणना में हुई 10 दिन की भूल दूर करने के लिए 4 अक्टूबर के बाद 10 दिन जोड़कर 5 अक्टूबर के बदले 15 अक्टूबर की तारीख स्वीकार की गयी थी।[4] ब्रिटिश साम्राज्य ने इस नयी व्यवस्था को 1752 ई० में स्वीकार किया था।[4] तदनुसार इस महाग्रन्थ (AN INDIAN EPHEMERIS) में भी 2 सितम्बर 1752 ई० तक पुराने कैलेण्डर (जूलियन) के अनुसार विवरण दिये गये हैं और 3 सितम्बर (गुरुवार) के बदले ग्यारह दिन जोड़कर नये कैलेण्डर (ग्रेगोरियन) के अनुसार 14 सितम्बर (यथावत् गुरुवार) की तारीख दी गयी है।[5] इसके बाद के विवरण नये कैलेण्डर के अनुसार ही हैं।

बाद में इस महाग्रन्थ के सातवें खण्ड (आठवीं जिल्द) का भी प्रकाशन हुआ, जिसमें 1800 ई० से लेकर 1999 ई० तक के पूर्ववत् विवरण कुछ अन्य सामग्रियों के साथ दिये गये हैं।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. AN INDIAN EPHEMERIS, vol. I, part-I, L.D. Swamikannu Pillai, Madras govt., edition-1922, p.-i.
  2. उत्तर भारत में 'पूर्णिमान्त मास' प्रचलित है। अमान्त मास को पूर्णिमान्त बनाते समय प्रत्येक महीने का शुक्ल पक्ष यथावत् रहता है, केवल कृष्ण पक्ष के महीने का नाम बदल जाता है। अमान्त मास में किसी महीने के शुक्ल पक्ष के बाद उसी महीने का कृष्ण पक्ष रहता है, जबकि पूर्णिमान्त मास में किसी महीने के शुक्ल पक्ष से पहले उसी मास का कृष्ण पक्ष रहता है। अतः इस ग्रन्थ में दिये गये विवरण से पूर्णिमान्त मास के अनुसार प्रयोग करते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि इसमें (अमान्त मास होने के कारण) जिस महीने का कृष्ण पक्ष लिखा गया है वह वास्तव में उससे अगले महीने का कृष्ण पक्ष होगा। उदाहरण के लिए इस ग्रन्थ में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के बाद ज्येष्ठ महीने का कृष्ण पक्ष आरंभ होता है, परंतु पूर्णिमान्त मास बनाने पर यह ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष वास्तव में आषाढ़ कृष्ण पक्ष होगा और ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष से पहले इस ग्रन्थ में जो वैशाख कृष्ण पक्ष दिया गया है वह वास्तव में (पूर्णिमान्त मास के अनुसार) ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष होगा। इसी प्रकार सभी महीनों में केवल कृष्ण पक्ष में अन्तर होगा; शुक्ल पक्ष यथावत रहेगा।
  3. हिंदी विश्वकोश, भाग-2, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संशोधित-परिवर्धित संस्करण-1975ई०, पृ०-557.
  4. ज्योतिर्गणितकौमुदी, रजनीकांत शास्त्री, खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन, मुंबई, संस्करण-2006, पृष्ठ-12.
  5. AN INDIAN EPHEMERIS, vol. VI, L.D. Swamikannu Pillai, Madras govt., edition-1922, p.-307.

बाहरी कड़ियाँ